बिहार का सियासी घमासान






बिहार की राजनीति में सतही तौर पर देखने से तो यही पता लगता है कि लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद से समूचा विपक्षी महागठबंधन पूरी तरह लुंज-पुंज और हताशा व निराशा की अवस्था में है जबकि भाजपा, जदयू और लोजपा का सत्ताधारी गठबंधन पूरे उत्साह, आत्मविश्वास और एकजुटता के साथ काम कर रहा है। लेकिन गहराई से परखें तो मामला उतना सीधा, सरल व स्पष्ट नहीं है जितना दूर से दिखाई पड़ रहा है। ना तो विपक्षी महागठबंधन ने अपनी हार को तहे दिल से स्वीकार करके लड़ाई के मैदान में घुटने टेकना गवारा किया है और ना ही सत्ताधारी गठबंधन में सैद्धांतिक, वैचारिक व व्यावहारिक एकजुटता की ऐसी तस्वीर दिखाई पड़ रही है जिससे भविष्य को लेकर कुछ भी निश्चित दावा किया जा सके। आलम यह है कि विपक्षी महागठबंधन ने स्पष्ट लहजे में साफ कर दिया है लोकसभा चुनाव की हार का उसके मनोबल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है और वह पूरी एकजुटता के साथ अपनी लड़ाई को जारी रखेगा। दूसरी ओर सत्ता पक्ष के भीतर आपसी असंतोष और मनमुटाव का लावा भीतर ही भीतर बुरी तरह खौलता हुआ दिख रहा है जो किसी भी मोड़ पर ज्वालामुखी की तरह फट सकता है। हालांकि भाजपा और जदयू के बीच आपसी खटास व मनमुटाव लोकसभा चुनाव के पहले भी दिख रहा था लेकिन उस दौरान सांगठनिक तौर पर पूरी एकजुटता के साथ चुनाव लड़ा गया और भाजपा ने अपनी जीती हुई सात सीटें गठबंधन के लिये छोड़कर सिर्फ 15 सीटों पर लड़ने की जो रणनीति अपनाई उसके नतीजे में नैतिक तौर पर जदयू के समक्ष भाजपा का पूरी तरह साथ देने की मजबूरी हो गई। इसका नतीजा भी उम्मीद से अधिक बेहतर रहा। लेकिन उसके बाद जिस तरह से भाजपा को अपने दम पर लोकसभा में ऐतिहासिक बहुमत का आंकड़ा हासिल हुआ और उसने सहयोगी दलों को संख्याबल के मुताबिक सत्ता में बराबरी की भागीदारी देने के बजाय सांकेतिक साझेदारी देने का फैसला किया उससे जदयू बुरी तरह चिढ़ गई और उसने सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया। बाद में जदयू ने भी बिहार में मंत्रिमंडल का विस्तार करने के दौरान भाजपा की भागीदारी में इजाफा करने से इनकार कर दिया। लेकिन इतने से ही उसका मन नहीं भरा तो तीन तलाक से लेकर जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए को समाप्त किये जाने के विधेयकों पर भाजपा का संसद में साथ देने से भी परहेज बरत लिया। साथ ही कई मसलों पर बिहार में अंदरूनी तौर पर भाजपा और जदयू के बीच मनमुटाव की स्थिति दिख रही है और दोनों ही दलों का काफी बड़ा तबका राहें अलग करने में ही अपनी भलाई देख रहा है। लिहाजा दावे से यह कहना कतई संभव नहीं है कि अगले साल के आखिरी महीनों में होनेवाले बिहार विधानसभा चुनाव में भी सत्ता पक्ष की वही एकजुटता दिखाई देगी जैसी लोकसभा चुनाव के दौरान दिखाई पड़ेगी। सत्ता पक्ष में जारी इसी अंदरूनी घमासान पर विपक्षी महागठबंधन की भी नजरें टिकी हैं लिहाजा उसने अपने लिये सभी विकल्पों को खुला रखना ही बेहतर समझा है। तभी तो वरिष्ठ राजदनेत्री व पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के निवास पर हुए महागठबंधन के आला नेताओं की बैठक में यह तय किया गया है कि महागठबंधन के नेता पद पर तेजस्वी यादव की दावेदारी को भविष्य में स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसका सीधा मतलब यही है कि महागठबंधन ने फिलहाल आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिये जगह खाली रख लिया है। साथ ही राजद के हाथों में ही महागठबंधन की कमान बरकरार रहने की संभावना को कमजोर करते हुए प्रदेश कांग्रेस ने यह ऐलान भी कर दिया है कि आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री पद के चेहरे का चयन दिल्ली में सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही करेंगे। कांग्रेस के इस ऐलान से महागठबंधन के बाकी दलों ने भी अपनी सहमति जता दी है। राजद ने मुख्यमंत्री के तौर पर तेजस्वी का चेहरा आगे किये जाने की जिद छोड़ देना ही बेहतर समझा है और इसी वजह से इस महत्वपूर्ण बैठक में तेजस्वी को शामिल भी नहीं किया गया। इस तरह से देखा जाये तो महागठबंधन ने सत्ता पक्ष की संभावित फूट का अधिकतम फायदा उठाने के लिये अपनी ओर से पूरी तैयारी कर ली है। संकेत साफ है कि अगर भाजपा और जदयू की राहें जुदा होती हैं और नितीश कुमार अपनी हेकड़ी छोड़ते हुए महागठबंधन में वापसी करने को लेकर सकारात्मक रूख दिखाते हैं तो उन्हें एक बार फिर मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाने का फैसला लिया जा सकता है। दूसरी ओर भाजपा में भी अंदरखाने यह विचार आरंभ हो गया है कि अगर जदयू ने लोकसभा की ही तर्ज पर विधानसभा में भी अधिकतम सीटों पर अपनी दावेदारी ठोंकने की पहल की तो उस स्थिति में किस दिशा में आगे बढ़ा जाये। हालांकि बिहार में भाजपा के जिन नेताओं को सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी मिल रही है वे कतई इस गठबंधन को तोड़े जाने के पक्ष में नहीं हैं लेकिन असंतुष्ट नेताओं की काफी बड़ी तादाद नितीश कुमार की सरकार को ढ़ोने के लिये अपना कांधा प्रस्तुत करना सही नहीं मान रही है। उसकी दलील है कि चुंकि नितीश को आगे बढ़ाने में भाजपा के ही कार्यकर्ताओं का निर्णायक योगदान रहा है लिहाजा उनकी मनमानी मांगों के समक्ष घुटना टेकने से बेहतर होगा कि पार्टी अपने ही किसी चेहरे को आगे करके अपने दम पर चुनाव लड़े। संभावनाओं और अटकलों के बाजार को गर्माहट देने में जदयू भी पीछे नहीं है। बेशक उसने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन एक ओर वह भाजपा के समर्थन से सरकार भी चला रही है और दूसरी ओर विपक्षी महागठबंधन के नेताओं के साथ अपनी तल्खी भी दूर कर रही है। पींगे बढ़ाने के लिये नितीश कुमार भी महागठबंधन के कई नेताओं के दरवाजे पर दस्तक दे चुके हैं और खास तौर से जदयू के कई बड़े नेताओं के साथ उन्होंने अपने ताल्लुकात काफी बेहतर और आत्मीय कर लिये हैं। इस प्रकार समग्रता में देखें तो बिहार की राजनीति में तमाम ऐसे पेंचो-खम दिख रहे हैं जिन्हें वक्त ही सुलझा सकता है। फिलहाल तो सभी ने अपने लिये सभी विकल्प खुले रखे हैं और पूरा मामला किस करवट बैठेगा इसके बारे में दावे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।