घरेलू बाजार की खतरनाक अनदेखी






केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों की सबसे बड़ी मार इस समय घरेलू बाजार पर ही पड़ रही है। कहने को केन्द्र की मोदी सरकार ने देश के घरेलू बाजार को संरक्षित व सुरक्षित रखने की बात कई बार दोहराई है और तमाम मंत्री भी परंपरागत खुदरा बाजार के हितों की सुरक्षा को लेकर वायदे दोहराते रहे हैं लेकिन कथनी को करनी में बदलने के लिये आवश्यक इच्छाशक्ति के अभाव और नीतिगत विरोधाभासों के कारण घरेलू बाजार पर इस समय चैतरफा मार पड़ रही है। इसी का नतीजा है कि बीते लोकसभा चुनाव में औपचारिक तौर पर देश भर के व्यापारियों को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने और व्यापारियों को वोटबैंक के रूप में संगठित होने के लिये प्रेरित करनेवाले व्यापारी नेताओं ने अब खुल कर सरकार की नीतियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी है। सरकार की तमाम नीतियां बाजार के हितों के प्रतिकूल जाती हुई ही महसूस हो रही हैं। मसलन पर्यावरण की रक्षा के लिये एक बार इस्तेमाल होनेवाले पाॅलिथीन के इस्तेमाल को सख्ती से प्रतिबंधित करने का कदम हो या ईज आॅफ डूइंग बिजनेस को सरल करने और विदेशी कंपनियों को भारत में अपना उद्यम लगाने के लिये बेहतर माहौल देने की आड़ लेकर बड़ी कंपनियों व उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिये श्रम कानूनों के प्रावधानों को नरम करने की पहलकदमी। इसका सीधा नुकसान परंपरागत खुदरा बाजार को ही हो रहा है। अगर पाॅलिथीन को प्रतिबंधित करने के क्रम में पूरी तरह नीतिगत इमानदारी बरती जाती तो इससे छोटे दुकानदारों, खुदरा करोबारियों व रेहड़ी, पटरी या खोमचे पर सामान बेचनेवालों को होनेवाली परेशानी को बर्दाश्त किया जा सकता था। लेकिन एक ओर कैरीबैग के तौर पर इस्तेमाल होनेवाले पाॅलिथीन पर तो इतनी सख्ती से प्रतिबंध लगाया गया है कि इसके खिलाफ दुकानों में छापेमारी करके मोटा जुर्माना वसूला जा रहा है वहीं दूसरी ओर सिर्फ एक बार इस्तेमाल होनेवाली नमकीन, बिस्कुट, चिप्स, चाॅकलेट या दूध व गुटखे के पैकेट से लेकर पानी, साॅफ्टड्रिंक व दवाओं की प्लास्टिक व पाॅलिथीन की पैकिंग पर रोक लगाने के प्रति पूरी तरह अनदेखी की नीति अपनाई जा रही है। जाहिर है कि पर्यावरण की रक्षा को लेकर उठाए गए अनुकरणीय कदम की रीति-नीति का यह भेदभाव कहीं ना कहीं उन गरीब व कमजोर व्यापारियों के बीच चिढ़ का सबब बन रहा है जिनका व्यापार कैरीबैग के तौर पर इस्तेमाल होनेवाले पाॅलिथीन के इस्तेमाल पर सख्ती से रोक लगाने के कारण प्रभावित हो रहा है। इसी प्रकार श्रम कानूनों में बदलाव करके 'हायर एंड फायर' की सहज व सरल व्यवस्था लागू करके सरकार ने रोजगार छिनने पर कर्मचारियों व श्रमिकों के हितों को भगवान भरोसे छोड़ दिया है जिसका लाभ उठाकर आए दिन तमाम कंपनियों से कर्मचारियों की छंटनी किये जाने की खबरें सामने आ रही हैं। चुंकि परंपरागत खुदरा बाजार के इस सबसे बड़े उपभोक्ता वर्ग की क्रय शक्ति इन दिनों बुरी तरह प्रभावित हुई है लिहाजा इसका असर देश के परंपरागत बाजार पर देखा जा रहा है। आलम यह है कि साल का सबसे बड़ा त्यौहारी सीजन होने के बावजूद बाजारों से रौनक गायब है। इस साल दिल्ली के व्यापारियों ने बाजारों में सजावट नहीं करने का फैसला किया है क्योंकि सरकार व प्रशासन की अनदेखी के कारण आॅनलाइन व्यापार के बड़े खिलाड़ियों ने इतनी आक्रामक व काफी हद तक अनैतिक नीतियां अमल में लाई हैं जिसके कारण उपभोक्ताओं का बड़ा वर्ग बाजार में जाकर खरीदारी करने के बजाय ऑनलाइन मार्केटिंग करने को ही तरजीह दे रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह प्रतिस्पर्धा कानून को लागू करने में बरती जा रही ढ़िलाई और मल्टीब्रांड के ऑनलाइन व्यापारियों द्वारा इतने मोटे डिस्काउंट की पेशकश है जिसकी बराबरी कर पाना परंपरागत बाजार के लिये संभव ही नहीं है। उस पर तुर्रा यह कि बीते दिनों पियूष गोयल ने ऑनलाइन व्यापारियों को अनाप-शनाप डिस्काउंट की पेशकश करके बाजार को प्रभावित करने और खुदरा बाजार को ठप्प करने की हरकतों के खिलाफ जुबानी तौर पर तो काफी सख्ती दिखाई थी लेकिन वास्तव में सरकार की ओर से इस तरह के हमलों से बाजार को बचाने की दिशा में कोई पहल नहीं की गई है। नतीजन बीते सप्ताह फेस्टिवल सेल के नाम पर जिस तरह से 85 फीसदी तक का डिस्काउंट देकर ऑनलाइन कंपनियों ने अपने व्यापार में 75 फीसदी तक का इजाफा किया और पचास फीसदी से भी ज्यादा नये ग्राहक जोड़े उसकी मार से घरेलू बाजार उबरा भी नहीं था कि अब एक बार फिर अगले सप्ताह से फस्टिव सेल का दूसरा चरण आरंभ करने का ऐलान कर दिया गया है। जाहिर है कि एक ओर तो निम्न व मध्यम आयवर्ग के लोगों की क्रयशक्ति में कमी और दूसरी ओर मध्यम व उच्चवर्ग के बाजार को आॅनलाइन कंपनियों द्वारा अपने कब्जे में कर लिये जाने के नतीजे में परंपरागत घरेलू बाजार की हालत बेहद दयनीय हो चली है। अकेले दिल्ली में ही तकरीबन दस लाख से ज्यादा छोटे व खुदरा दुकानदार हैं जहां से पचास लाख लोगों की उदरपूर्ति होती है। देश में सबसे अधिक स्वरोजगार उपलब्ध करानेवाले इस क्षेत्र को अगर इस तरह भगवान भरोसे छोड़ दिया गया तो इसका सीधा नुकसान देश के विकास और जीडीपी पर ही पड़ेगा क्योंकि एक ओर बेरोजगारी बढ़ेगी और दूसरी ओर नकदी के हस्तांतरण में कमी आएगी जिससे करों के सृजन में कमी आना स्वाभाविक है। हालांकि उपभोक्ताओं के लिहाज से सतही तौर पर मौजूदा माहौल बेहद गुलाबी व खुशनुमा दिखाई पड़ रहा है लेकिन गहराई से परखें तो परंपरागत घरेलू खुदरा बाजार के नष्ट होने के बाद ऑनलाइन बाजार जब मुनाफा वसूली में जुटेगा तब बाजार में प्रतिस्पर्धा में कमी का कितना बड़ा नुकसान सामान्य उपभोक्ताओं को झेलना पड़ेगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। हालांकि अभी देर नहीं हुई है क्योंकि आॅनलाइन और परंपरागत बाजार के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर माहौल को बेहतर किया जा सकता है लेकिन अगर मौजूदा खतरे की घंटी को अनदेखा किया गया और बाजार को उसके हाल पर भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया तो एफडीआई के अंधे पैसे के दम पर भारी डिस्काउंट उपलब्ध कराके बाजार में अपना वर्चस्व कायम करने में जुटी ऑनलाइन कंपनियों की मनमानी पर बाद में अंकुश लगा पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल हो जाएगा।