टेप रिकार्ड बनाम ट्रैक रिकार्ड






लोकसभा चुनाव के बाद एक बार फिर हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के मैदान में कांग्रेसनीत संप्रग और भाजपानीत राजग का आमना सामना हो रहा है। काफी हद तक यह चुनाव भी बीते लोकसभा चुनाव की ही तरह हतोत्साहित और बिखरे हुए विपक्ष के साथ एकजुट व आत्मविश्वास से परिपूर्ण सत्ता पक्ष के बीच होता हुआ दिख रहा है। यहां तक कि जमीनी परिस्थितियां भी कमोबेश एक जैसी ही हैं और चुनावी मुद्दे भी एक सरीखे ही हैं। ऐसे में अगर जनादेश भी लोकसभा चुनाव की ही तरह सामने आए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी क्योंकि आम लोगों को एक बार फिर टेप रिकार्ड और ट्रैक रिकार्ड में से किसी एक को चुनना है। टेप रिकार्ड कांग्रेस का और ट्रैक रिकार्ड भाजपा का। हालांकि अपेक्षित था कि लोकसभा चुनाव के पांच महीने बाद होने जा रहे विधानसभा के इन चुनावों में विपक्ष को अपनी पिछली गलतियों से सीख लेकर इस बार मजबूत तैयारी करनी चाहिये थी और मैदान में आम लोगों से सीधा सरोकार रखनेवाले उन ज्वलंत मुद्दों के साथ सरकार को घेरते हुए दिखाई पड़ना चाहिये था जिनका जवाब देने से सरकार लगातार बच रही है। लेकिन जमीनी तौर पर तो यही दिखाई पड़ रहा है कि विपक्ष की ओर से सिर्फ चुनाव लड़ने की औपचारिकता ही पूरी की जा रही है। कहीं कोई तालमेल ही नहीं दिख रहा है विपक्षी खेमे में। ना तो चुनावी मुद्दों में कोई धार दिख रही है और ना ही सरकार पर हर तरफ से आक्रामक प्रहार करने की कोशिश हो रही है। बेशक राहुल गांधी ने जमीनी मसलों को उठाकर सरकार को घेरने का प्रयास अवश्य किया है लेकिन अंतिम समय में चुनावी भाषण में उनका अचानक आक्रामक होना जनमानस पर कोई छाप छोड़ता हुआ दिखाई नहीं पड़ रहा है। दूसरी ओर सरकार की ओर से पूरे चुनाव कैंपेन को राष्ट्रवाद पर केन्द्रित रखने की जो कूटनीति अपनाई गई वह कामयाब होती हुई दिख रही है। लोग जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने और पाकिस्तान की हर मंच पर फजीहत किये जाने से उत्साह में हैं। इस बयार में जमीनी मुद्दे दब कर रह गए हैं। ना तो आर्थिक मंदी का मसला तूल पकड़ पाया है और ना ही बेरोजगारी के आंकड़ों पर कहीं कोई चर्चा हो रही है। अच्छे दिनों की जो आस सरकार ने बंधाई थी उसकी गुलाबी व गुनगुनी उम्मीदें आज भी जमीनी स्तर पर कायम हैं और सरकार की विश्वसनीयता में कहीं कोई कमी नहीं दिख रही है। यानी समग्रता में समझें तो यह चुनाव विश्वसनीयता पर केन्द्रित होकर रह गया है जिसमें विपक्ष को आम लोगों का ना तो समर्थन मिल रहा है और ना ही सहानुभूति। गहराई से परखें तो इसके लिये विपक्ष की थूको और भागो की वह रणनीति ही जिम्मेवार है जिसके कारण किसी भी मुद्दे को धारदार हथियार की शक्ल देने में विपक्ष को कामयाबी नहीं मिल पाई है। विपक्ष की विश्वसनीयता एक दम सहत पर पड़ी हुई है जिसके कारण मतदाताओं के समक्ष विकल्पहीनता की स्थिति बन गई है जिसमें भाजपा के अलावा किसी अन्य के नाम पर विचार करने की भी नौबत नहीं बन पा रही है। वह भी तक जबकि आम लोगों से सीधा सरोकार रखनेवाले मुद्दों की कहीं कोई कमी नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि केन्द्र की मोदी सरकार या दोनों चुनावी राज्यों की भाजपा सरकारों ने डबल इंजन का लाभ देते हुए आम लोगों को पूरी तरह खुशहाल कर दिया हो। बल्कि आर्थिक मोर्चे पर आम लोगों को जितनी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है उसके बाद भी अगर लोगों को कोई दूसरा विकल्प सामने नहीं दिख रहा है तो इसकी सीधी वजह विपक्ष के प्रति विश्वास का अभाव ही है। यह अभाव इस वजह से भी है क्योंकि विपक्ष की राजनीति सीधे तौर पर सत्ता केन्द्रित है। लोगों को कहीं भी यह महसूस नहीं हो रहा है कि विपक्ष को उनके सरोकारों की कोई चिंता है। विपक्ष के साथ लोगों को कोई जुड़ाव ही महसूस नहीं हो रहा है बल्कि उल्टे लोगों को सरकार ही जनहितैषी दिखाई पड़ रही है और विपक्ष की छवि सत्ता लोलुप की दिख रही है। निश्चित ही ऐसे में विपक्ष को समर्थन व संवेदना से वंचित होना पड़ रहा है। कायदे से तो लोकसभा चुनाव में गलत मुद्दों को तूल देकर अपनी विश्वसनीयता गंवाने के बाद विपक्ष को चाहिये था कि वह उससे सबक लेकर भविष्य के लिये ठोस रणनीति बनाकर सरकार को घेरने के लिये जमीन पर उतरता और आम लोगों के सरोकार से साथ खुद को जोड़ने का प्रयास करता। लेकिन विपक्ष का पूरा खेमा आंतरिक व सांगठनिक लड़ाई में ही उलझा रहा। ना तो सांगठनिक तौर पर वह एकजुट हो सका और ना ही रणनीतिक तौर पर कोई योजना बना सका। खास तौर से विधानसभा चुनाव का ऐलान होने के बाद जबकि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को जमीन पर सक्रिय होना चाहिये था तब राहुल गांधी छुट्टियां मनाने विदेश चले गए। उनके जाने के बाद पार्टी के बाकी नेता भी अंदरूनी राजनीति में उलझ कर रह गए और लोगों के साथ संपर्क बढ़ाने की दिशा में कोई पहलकदमी नहीं की गई। यहां तक चुनाव घोषणापत्र में भी कर्ज माफी बिजली सस्ती करने के सरीखे तमाम ऐसे वायदे किये गये जिनसे यही संदेश गया कि मतदाताओं को प्रलोभन देकर उनका समर्थन हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है। निश्चित ही यह स्थिति बेहद ही हास्यास्पद बन गयी है जिसमें विपक्ष की राजनीति में जनसरोकार का आयाम सिर्फ चुनावी रैलियों में ही दिखाई पड़ रहा है। ऐसे में विश्वसनीयता का संकट उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। दूसरी ओर सरकार की ओर से जिन मुद्दों को तूल दिया गया उन पर काम भी किया गया और उस ट्रैक रिकार्ड के आधार पर ही यह उम्मीद भी बंधी है कि सरकार आगे भी इसी तरह काम करेगी। इसका प्रभाव पड़ना भी लाजिमी ही है। हालांकि दो चुनावी राज्यों का जनादेश अप्रत्याशित तौर पर उम्मीदों से अलग आने की तो कोई संभावना नहीं दिख रही है लेकिन विपक्ष के लिये एक बार फिर सबक लेने का मौका अवश्य सामने आया है जब उसे निर्णायक नेतृत्व और ठोस रणनीति के साथ अपनी विश्वसनीयता सुधारने और आम लोगों के साथ संवाद व सरोकार स्थापित करने का एक और मौका मिल रहा है। अगर इस दिशा में कदम बढ़ाने के बजाय सिर्फ टेप रिकार्ड की चुनावी राजनीति की परंपरा का ही अनुपालन होता रहा तो आगामी दिनों में होनेवाले अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी लोकसभा सरीखा चुनाव परिणाम आना तय ही है।