अकारण नहीं है असमंजस







महाराष्ट्र में सरकार गठन को लेकर जारी राजनीतिक रस्साकशी का ताजा सूरतेहाल अगर एक शब्द में बयान करना हो तो इसके लिये सबसे उपयुक्त शब्द असमंजस ही है। वास्तव में देखा जाये तो सूबे की तमाम सियासी ताकतें ही नहीं बल्कि राजभवन भी असमंजस में ही फंसा हुआ है। असमंजस सिर्फ यह नहीं है कि कि क्या करें और क्या ना करें बल्कि यह भी कि क्यों करें, कब करें और कैसे करें। हालांकि राज्यपाल द्वारा सरकार बनाने का न्यौता मिलने के बाद बहुमत का आंकड़ा जुटाने में अपनी असमर्थता प्रकट करके राजभवन के न्यौते को विनम्रतापूर्वक ठुकराकर भाजपा ने असमंजस, उहापोह और उलझनों का एक स्तर तो पार कर लिया है लेकिन उसके इनकार के बाद आरंभ हुई नए सिरे से सरकार बनाने की कवायदों ने भाजपा के लिये नया असमंजस पैदा कर दिया है कि इसको लेकर वह क्या बोले, क्यों बोले, कब बोले और कितना बोले। सतही तौर पर देखने से तो यही लगता है कि भाजपा को शिवसेना द्वारा बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिये किये जा रहे प्रयासों की खुलकर आलोचना करनी चाहिये और इसे विश्वासघात और अवसरवाद की पराष्ठा के तौर पर प्रचारित करके अपने लिये जनसंवेदना जुटाने का प्रयास करना चाहिये। लेकिन चाह कर भी वह ऐसा करने की हालत में नहीं है। उसके इस असमंजस की सबसे बड़ी वजह यही है कि अव्वल तो जब उसने सरकार बनाने का न्यौता खुद ही ठुकरा दिया है तो प्रदेश में राजनीतिक स्थिरता कायम करने के लिये किये जानेवाले प्रयासों को वह विश्वासघात का नाम कैसे दे सकती है। वैसे भी अगर भाजपा ऐसा करने का प्रयास भी करे तो उसे इन सवालों का जवाब देने के लिये तैयार रहना होगा कि आज जनादेश से आगे बढ़कर बहुमत जुटाने के लिये शिवसेना जो प्रयास कर रही उसे कैसे गलत कहा जा सकता है जबकि बिहार और गोवा से लेकर जम्मू कश्मीर तक में भाजपा इसी प्रकार जनादेश को मनमुताबिक तोड़-मरोड़कर पहले ही महामिलावट का गठबंधन बनाकर सरकार चलाने की पहल कर चुकी है। अगर महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के गठबंधन को जनता ने सरकार बनाने का जनादेश दिया था तो बिहार में जदयू और राजद के पक्ष में जनता ने ऐसा ही फैसला सुनाया था। लेकिन चुनाव के बाद राजद से अगल होकर जदयू अगर भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला सकती है तो शिवसेना भी कांग्रेस व एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाए तो उसे भाजपा की ओर से गलत कैसे ठहराया जा सकता है। ऐसे ही सवालों का खुलकर जवाब नहीं दे पाने का असमंजस मौजूदा हालातों में भाजपा को अपनी जुबान बंद रखने के लिये मजबूर कर रहा है। दूसरी ओर असमंजस में शिवसेना भी है कि वह एनसीपी और कांग्रेस की ओर से मिल रहे शह का आखिर क्या अर्थ निकाले। अपनी ओर से तो शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस की मांग को पूरा करते हुए भाजपानीत राजग से अपना तीन दशक पुराना रिश्ता तोड़ लिया और केन्द्र सरकार से अलग भी हो गई। लेकिन जिस भरोसे पर उसने भाजपा से औपचारिक तौर पर संबंध विच्छेद कर लिया वह आज पूरे दिन दिल्ली से लेकर मुंबई तक चली तीनों दलों की अलग-अलग व आपसी बातचीत के बाद भी पूरा नहीं हो सका। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद सोनिया गांधी ने जयपुर में ठहरे अपने नवनिर्वाचित विधायकों के साथ वीडियो कान्फ्रेसिंग करके भी बात की और फोन पर शरद पवार व उद्धव ठाकरे से भी बातचीत की। साथ ही एनसीपी की भी पूरे दिन बैठकें चलती रहीं और उद्धव ने ताज होटल जाकर पवार से अलग से भी मुलाकात की। एनसीपी और कांग्रेस की एक अन्य मांग के सामने झुकते हुए शिवसेना ने यह संकेत भी दिया कि वह अनुभवहीन आदित्य की जगह किसी अन्य अनुभवी नेता को ही नहीं बल्कि शिवसेना प्रमुख उद्धव को भी मुख्यमंत्री बनाने के विकल्प को स्वीकार करने के लिये तैयार है। लेकिन इस सबका कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका और ना तो कांग्रेस ने और ना ही एनसीपी ने शिवसेना को अपने समर्थन का पत्र जारी करना मुनासिब समझा। ऐसे में शिवसेना ने बहुमत के आंकड़े का प्रदर्शन करने के लिये राजभवन की ओर से दी गई मियाद के भीतर ही राज्यपाल से मुलाकात करके उन्हें बता दिया कि अभी उसे बहुमत जुटाने के लिये और अधिक वक्त की दरकार है। हालांकि राजभवन ने अधिक वक्त देने से मौखिक तौर पर तो मना कर दिया लेकिन लिखित तौर पर मना करने को लेकर वहां भी असमंजस आड़े आ गया कि अगर ऐसा किया गया तो इससे गलत संदेश जाएगा। साथ ही अगर कल को शिवसेना ने बहुमत जुटा लिया तो अपने ही फैसले से पीछे हटकर उसे सरकार बनाने का मौका देना मजबूरी हो जाएगी। लिहाजा कोई ठोस कदम उठाने को लेकर राजभवन में जारी असमंजस भी स्वाभाविक ही है। दूसरी ओर असमंजस में एनसीपी भी है जो शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने की ख्वाहिशमंद तो है लेकिन उसके पास इतने आंकड़े नहीं हैं कि कांग्रेस को किनारे करके वह अपनी मनोकामना पूरी कर ले। ऐसे में उसे डर है कि अगर उसने समर्थन का पत्र जारी करने की पहल कर दी और कांग्रेस इसमें उसके साथ नहीं आई तो ना सरकार बन पाएगी और ना ही कांग्रेस के साथ दोस्ती बरकरार रह पाएगी। फजीहत अलग से हो जाएगी। ऐसे में एनसीपी का असमंजस कांग्रेस के अगले कदम को लेकर है जबकि कांग्रेस का असली असमंजस अंदरूनी भी है और वैचारिक भी। अंदरूनी तौर पर कांग्रेस के शीर्ष रणनीतिकारों का बड़ा खेमा कट्टर हिन्दूवादी छवि वाली शिवसेना के साथ दोस्ती से राष्ट्रीय स्तर पर भारी नुकसान होने की संभावना से डरा हुआ है जबकि पार्टी के विधायक हर हालत में सरकार बनाने का दबाव डाल रहे हैं। अगर विधायकों की बात नहीं सुनी गई तो पार्टी में टूट का खतरा झेलना पड़ सकता है और अगर उनकी बात मान कर शिवसेना को समर्थन दे दिया गया तो राष्ट्रीय राजनीति में इसका बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। ऐसे में कांग्रेस के लिये कोई ठोस फैसला करना बेहद मुश्किल हो चला है और वह असमंजस से उबरने के लिये विस्तृत व बहुपक्षीय बातचीत को अभी आगे भी जारी रखने के अलावा कोई और फैसला नहीं कर पा रही है। यानि असमंजस में हर कोई फंसा है और इसका समाधान निकालकर आगे बढ़ना सबके लिये एक बराबर ही चुनौतीपूर्ण है। लेकिन आगे की राह तो सबको तलाशनी ही होगी वर्ना इसका नुकसान सिर्फ सूबे के हितों को ही नहीं होगा बल्कि इन दलों को भी इसका राजनीतिक नुकसान झेलना पड़ सकता है।