क्रिया- प्रतिक्रिया का अंतहीन सिलसिला






महाराष्ट्र की राजनीति में अचानक हुए नाटकीय परिवर्तन के तहत एनसीपी के विधायक दल के नेता अजित पवार के समर्थन से देवेन्द्र फडणवीस द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ले लिये जाने के पूरे घटनाक्रम को अगर बारीकी से समझें तो यह क्रिया की प्रतिक्रिया के अंतहीन सिलसिले की एक कड़ी के तौर पर ही दिखाई पड़ता है। इसकी शुरूआत तो वर्ष 2014 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में ही हो गई थी जब भाजपा और शिवसेना के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर तालमेल नहीं बन पाने के कारण दोनों ही पर्टियों ने गठबंधन तोड़कर चुनाव लड़ा था। हालांकि चुनाव परिणाम सामने आने के बाद 122 विधायकों वाली भाजपा को उस समय बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिये शिवसेना के सहयोग की बेहद आवश्यकता थी और भाजपा की इस जरूरत को पूरा करने का काफी बड़ा मुआवजा वसूलने की शिवसेना ने तैयारी भी कर ली थी। लेकिन ऐन मौके पर एनसीपी द्वारा भाजपा को बिना शर्त बाहर से समर्थन करने का ऐलान कर दिये जाने के बाद शिवसेना के पास मनमानी शर्तें मनवाने का मौका ही नहीं बचा लिहाजा दोयम दर्जे के मंत्रालयों के एवज में ही उसने भाजपा के साथ गठजोड़ करके सरकार में शामिल हो जाना बेहतर समझा। बेशक शिवसेना ने मजबूर होकर भाजपा को अपना समर्थन दिया हो लेकिन उसकी टीस और खीझ सरकार बनने के बाद भी निकलती रही। शिवसेना ने सरकार का हिस्सा होने के बावजूद भाजपा को नीचा दिखाने का कोई भी मौका हाथों से जाने नहीं दिया और सदन के भीतर वह भले ही सत्ता में साझेदार बनी रही लेकिन सड़क पर उसने लगातार सत्ता विरोधी तेवरों का इजहार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि दो साल पहले ही शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने सार्वजनिक तौर पर ऐलान कर दिया था कि अगला लोकसभा और विधानसभा चुनाव वे हर्गिज भाजपा के साथ तालमेल करके नहीं लड़ेंगे। हालांकि यह बात और है कि लोकसभा चुनाव के दौरान बने मोदीमय माहौल को महसूस करके उद्धव ने अपना फैसला बदल लिया और भाजपा ने भी चुनावी अनिश्चितता से उबरने के लिये शिवसेना को अपने पाले में करने के मकसद से उसे यह समझाया कि प्रदेश की राजनीति में उसे बराबर का मौका दिया जाएगा। इस बात का सार्वजनिक तौर पर ऐलान भी किया गया कि महाराष्ट्र में कोई छोटे या बड़े भाई की भूमिका में नहीं होगा बल्कि दोनों ही दल प्रदेश में बराबर की भागीदारी करेंगे। यह बात तय हो जाने के बाद शिवसेना और भाजपा ने साथ मिलकर चुनाव लड़ने की राह पकड़ी जिसमें दोनों को उम्मीद से अधिक सफलता भी मिली। उसके बाद जब विधानसभा चुनाव का समय आया तो बराबर तादाद में सीटें मांगने के नतीजे में गठबंधन टूटने का डर और मोदीमय वातावरण में अकेले चुनावी समर में कूदने के नतीजे में लुटिया डूबने के खौफ से शिवसेना ने 124 सीटों पर चुनाव लड़ने की पेशकश को स्वीकार करके भाजपा और अन्य साथी दलों के लिये 164 सीटें छोड़ दीं। हालांकि शिवसेना ने अपने कोटे से बाहर की दो अन्य सीटों पर भाजपा के खिलाफ अपना उम्मीदवार अवश्य खड़ा किया लेकिन दोनों ही जगह वह भाजपा को हरा पाने में कामयाब नहीं हो सकी। लेकिन अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा हासिल करने के मकसद को लेकर चुनाव मैदान में उतरी भाजपा को 2014 के मुकाबले 17 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा और स्थिति ऐसी बन गई कि शिवसेना के समर्थन के बिना भाजपा के लिये बहुमत का आंकड़ा जुटा पाना नामुमकिन हो गया। हालांकि पूरे चुनाव के दौरान भाजपा और शिवसेना ने साथ मिलकर मतदाताओं से गठबंधन की सरकार बनाने के लिये आवश्यक 145 सीटों से 16 अधिक सीटें हासिल कर लीं लेकिन वह बहुमत तक होता जब दोनों मिलकर सरकार बनाते। इसके लिये शिवसेना ने बराबर की भागीदारी के पुराने वायदे की याद दिलाकर भाजपा को बराबर समयावधि के लिये मुख्यमंत्री पद के बंटवारे की मांग सामने रख दी। इस मांग को स्वीकार करने से भाजपा द्वारा इनकार कर दिये जाने के बाद कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं बचा जिसके कारण सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। लेकिन शिवसेना ने भाजपा को उसके हाल पर छोड़कर कांग्रेस व एनसीपी के साथ पींगें बढ़ानी शुरू कर दीं जिसमें उसकी इकलौती मांग यही थी कि उसे पूरे कार्यकाल के लिये मुख्यमंत्री का पद चाहिये। हालांकि एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार पहले भी स्वीकार कर चुके थे उन्हें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है लेकिन शिवसेना ने जब पहले केन्द्र में और बाद में स्थानीय निकायों में भी भाजपा से खुद को पूरी तरह अलग कर लिया तब कांग्रेस और एनसीपी ने उसके साथ मिलकर सरकार बनाने की अंतिम रूपरेखा तैयार की और आज सरकार बनाने का दावा पेश करने की योजना बनाई गई थी। लेकिन अंतिम समय में एनसीपी विधायक दल के नेता अजित पवार ने भाजपा से हाथ मिला लिया और आज तड़के ही देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री व अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाते हुए राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने उन्हें तीस नवम्बर तक विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने का समय दे दिया। अजित पवार के इस कदम से नाराज एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने उन्हें विधायक दल के नेता पद से भी हटा दिया है और 54 में 50 विधायकों के साथ बैठक करके पार्टी पर अपने मजबूत पकड़ का एहसास भी करा दिया। लिहाजा अब सबकी निगाहें 30 तारीख पर टिक गई हैं जब फडणवीस सरकार को सदन में बहुमत का समर्थन हासिल करना होगा। लेकिन इस बीच दोनों ही ओर से एक दूसरे को गलत बताते हुए परस्पर लोकतंत्र की हत्या करने और जनादेश का अपमान करने का इल्जाम लगाया जा रहा है। जबकि कायदे से देखें तो अगर भाजपा ने जोड़-तोड़ करके बहुमत जुटाने की राह पकड़ी है तो शिवसेना ने भी यही करके सरकार बनाने की कोशिश की थी। लिहाजा अगर एक सही है तो दूसरा गलत कैसे हो सकता है। खैर, भाजपा और शिवसेना के बीच क्रिया की प्रतिक्रिया का दौर तो आगे भी चलता ही रहेगा क्योंकि एक बार सरकार बना लेने से कोई भी राजनीति में अजेय नहीं हो जाता है और एक बार मंजिल से पहले ही फिसल कर गिर जाने वाले को हारा हुआ मान लेना भी सही नहीं हो सकता है।