हिंसक भीड़ में तब्दील होते समाज का जिम्मेदार कौन?


                   (पंकज यादव)


गेरुआ वस्त्र में रोता बिलखता अपनी जान बचाने की उम्मीद लगाए 70 वर्षीय साधु, साथ में खुद अपनी जान बचाने के प्रयास करता महाराष्ट्र पुलिस का एक लाचार सिपाही। लाठी डंडे लेकर किसी की भी जान ले लेने को आतुर निर्मम और वीभत्स भीड़, जिसमें कुछ अर्धनग्न भी हैं और बाकी जो कपड़े पहने हैं, उनके कपड़ों में भी धार्मिक पहचान उजागर करने वाला कोई विशेष प्रतीक चिन्ह भी नहीं, और फिर “फैसला ऑन द स्पॉट“ की अवधारणा को महिमामण्डित कर देने वाले समाज के एक सजग प्रतिनिधि की तरह ये निर्मम भीड़ लाठी-डंडे मारते-मारते पूरी क्रूरता के साथ उस बुजुर्ग के प्राण हर लेती है। जूना अखाड़े के दो साधू और उनका ड्राईवर इस भीड़ हिंसा में अपनी जान गंवा देते हैं और महाराष्ट्र पुलिस लाचार बनकर ये घटना अपनी आँखों से देखती है। महाराष्ट्र के पालघर में हुई इस घटना की वायरल होती वीडियो वाली ये कहानी यहीं खत्म नहीं होती। जान गंवाने वाले वाले 70 वर्षीय बुजुर्ग के गेरुआ वस्त्र अभी भी समाज में नफऱत की आग लगाने के इंतज़ार में बैठे चन्द मौकापरस्तों की आँखों की चमक बढ़ा देते हैं और फिर पहले से कोरोना महामारी का विकराल संकट झेल रहे समाज में ज़हर घोलने की कोशिशें शुरु हो जाती हैं, घटना को साम्प्रदायिक रंग देने के प्रयासों के सहारे। इन सबके बीच महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे स्पष्ट करते हैं कि इस घटना का साम्प्रदायिकता से कोई लेना देना नहीं है, यहां तक कि घटना को अंजाम देने वाले हत्यारोपी भी उसी धार्मिक समुदाय से हैं, जिस धार्मिक समुदाय के साधु भीड़ हिंसा का शिकार बने हैं। इन सब स्थितियों के बीच प्रश्न यह है कि महाराष्ट्र के पालघर जनपद के दुर्गम इलाके में बसे आदिवासियों के गांव गड़चिनचले के लोगों को इतना हिंसक बनाने के पीछे कौन से कारक काम कर रहे थे? 
गौरतलब है कि 15 अप्रैल की शाम को भी इसी गांव के लोगों ने एक सरकारी मेडिकल टीम को चोर समझकर हमला कर दिया था और बमुश्किल इस हमले से टीम अपनी जान बचाकर भागी थी। जिस दिन यह घटना सामने आई उसी दिन वारदात पूरी तरह से स्पष्ट होने से पहले एक जाने माने न्यूज चैनल ने इसी खबर को इस तरह से भी प्रस्तुत किया था कि भीड़ ने जमाती होने के शक में इस गाड़ी पर हमला किया था, प्रसारित होती इस खबर से आसानी से समझा जा सकता है कि कुछ अफवाहें इस इलाके में जोरों पर थीं। सोशल मीडिया और मीडिया पर प्रसारित होती तमाम खबरों की मानें तो इस इलाके में पिछले कई दिनों से साधुओं के भेष में चोर और संक्रमित जमातियों के घुसने सम्बन्धी अफवाहें प्रसारित हो रहीं थीं। एक तरफ जब कोरोना से पूरे महाराष्ट्र में हाहाकार हो रहा है उस संवेदनशील वक्त में इस तरह की अफवाहों पर नियंत्रण न रख पाने की लापरवाही निश्चित रूप से राज्य के शासन-प्रशासन की ओर से हुई है। पालघर पुलिस द्वारा कहा जा रहा है कि इस वारदात में शामिल 110 लोगों को गिरफ्तार किया गया है जिसमें 9 नाबालिग भी शामिल हैं। शासन-प्रशासन की तमाम लापरवाही और नाकामियों के बीच बड़ा प्रश्न यह भी है कि आखिर भीड़ में तब्दील होते इस समाज को इतना हिंसक और वीभत्स बनाने का जिम्मेदार कौन है? आखिर क्या वजह है कि रोते-बिलखते एक 70 वर्षीय बुजुर्ग साधू के आंसुओं से उपजी संवेदनायें भी नफरत और हिंसा में डूबी इस भीड़ को इतना भी विचलित नहीं कर पायीं कि ये भीड़ कम से कम उन साधुओं की जान ही बख्श देती? सरकार, शासन-प्रशासन के साथ-साथ शायद एक समाज के तौर पर भी यह हमारी नाकामयाबी ही है कि पूरा समाज एक ऐसी भीड़ में तब्दील होता जा रहा है जो संवेदनहीन है और न्याय की सामान्य परिभाषा से कोसों दूर खड़ा है। सभ्यता के विकास के न जाने कितने ही संघर्षों के बाद हम एक ऐसे समाज के रूप में स्थापित हो पाये हैं जहां न्याय को कानून की कसौटी पर परख कर इंसाफ मुहैया कराया जाता है। हालांकि न्यायिक प्रक्रिया की अपनी खामियां और प्रक्रियात्मक समस्यायें भी हैं, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं हो जाता कि हम समाज के तौर पर मानव सभ्यता के उस आरम्भिक दौर में पहुंच जायें, जहां जंगलराज हो, जहां थोड़ा सा सन्देह होने पर ही किसी की निर्मम हत्या कर दी जाये, भीड़ को ऐसे त्वरित फैसले लेने के लिये छोड़ दिया जाये कि निर्मम भीड़ शक के दायरे में आये किसी व्यक्ति को अपनी सफाई का मौका तक न दे। सम्भव है कि ऐसे त्वरित फैसले कुछ लोगों की आकांक्षाओं की तुष्टि करते हों, लेकिन एक सभ्य समाज के तौर पर लोगों का इस तरह भीड़ में तब्दील होना किसी भी समाज की असफलता ही है। सवाल ये है कि क्या तमाम धार्मिक, जातिगत, लैंगिक और राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर मीडिया और सोशल मीडिया पर फैली अफवाहों से और समाज में धीरे-धीरे पनप रही हिंसा के प्रभाव में आने से हम स्वयं को, अपनी पीढ़ियों  को और अपने समाज को बचाने की कोई कवायद कर पा रहे हैं? साधु सन्तों की भीड़ हत्या से उपजी संवेदनायें भी जब हिंसक रूप लेने लगें और समाज को पुनः उसी भीड़ में तब्दील करने को प्रेरित करने में लग जायें तो हमें उन सम्भावनाओं के प्रति चिन्तित होने की आवश्यकता है, जब हम स्वयं किसी नफरती भीड़ का शिकार हो जायें या भीड़ में शामिल हमारे घर का कोई सदस्य ही हत्यारा बन जाये। सम्भव है कि इन साधुओं की इस भीड़ द्वारा की गई हत्या पर कोई खुश हो ले, लेकिन यह ध्यान में रखा जाना जरूरी है कि भीड़ सिर्फ भीड़ होती है, जो न्याय की यथार्थ परिभाषा से दूर खड़े रहकर कभी पहलू खान को अपना शिकार बनाती है, कभी तबरेज अंसारी की जान ले लेती है तो कभी 70 वर्षीय रोते-बिलखते जूना अखाड़े के साधु के आंसुओं से उपजी संवेदनाओं को ताक पर रखकर उसकी हत्या कर देती है। भीड़ हत्या के दोषियों और उसके पीछे की अफवाहों को जन्म देने वाले दोषियों को कड़ी सजा दिलाने के प्रयास करने के साथ-साथ विभिन्न सरकारों और समाज द्वारा प्रयास कर नागरिकों को हिंसक भीड़ में तब्दील होने से रोकना ही होगा, अन्यथा इस भीड़ हिंसा के घातक परिणाम पूरे समाज को सदियों पीछे धकेल देने के लिये काफी होंगे।