माई एडा पूत जण, जेहडा राणा प्रताप

(भूपेश दीक्षित)


राजस्थान के कुम्भलगढ़ दुर्ग में सिसोदिया राजवंश के महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवंता कँवर की कोख से 9 मई, 1540 ई. को मेवाड़ मुकुट-मणि महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था । राजस्थान की तेजस्वी व ओजस्वी, जप-तप, धर्म-कर्म गुणों से परिपूर्ण पवित्र माटी के कण-कण मे भारत के सपूत महाराणा प्रताप के ओजस्वी व्यक्तित्व, देशभक्ति, स्वतंत्रता, शौर्य-पराक्रम, आन-बान-शान, दृढ़ प्रतिज्ञ औंर उनके त्यागमयी जीवन की अमर कहानी के जयघोष आज भी व्यापत हैं । हल्दीघाटी’ में कवि ‘श्यामनारायण पाण्डेय’ ने महाराणा प्रताप के इसी गौरवमयी चरित्र का वर्णन किया है । 
महाराणा प्रताप के विषय मे पृथ्वीराज राठौड ने राजस्थानी भाषा में लिखा हैं ‘माई एडा पूत जण, जेहडा राणा प्रताप, अकबर सूतौं औंझके जाणा सिराणे सांप। सिसोदिया कुल गर्वित प्रताप की शौर्यगाथा चेतक की वीरता व स्वामिभक्ति के उच्च आदर्शों के बिना स्थापित नहीं हो सकती । ‘चेतक की वीरता’ में श्यामनारायण पाण्डेय ने चेतक के अदम्य साहस और वीरता के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखा है - गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था, वह दौड़ रहा था अरिमस्तक पर वह आसमान का घोड़ा था। अमर राष्ट्रनायक, स्वाधीनता के लिए जीवन भर मुगलों से मुकाबला करने वाले, शस्त्र व शास्त्र दोनों में पारंगत एवं छापामार युद्ध कला में निपुण महाराणा प्रताप कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, मानसिक व शारीरिक क्षमता में अद्वितीय थे ।
 हल्दीघाटी के ऐतिहासिक युद्ध में महाराणा प्रताप के अद्भुत रण-कौशल के बारे में पाण्डेय जी की लिखी कविता ‘राणा की तलवार’ में पढ़ सकते है । वे लिखते है - ‘चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल-पानी को, राणा प्रताप सिर काट-काट, करता था सफल जवानी को...‘पैदल, हयदल, गजदल में, छप-छप करती वह निकल गयी, क्षण कहाँ गयी कुछ पता न फिर, देखो चम-चम वह निकल गयी। किन्तु साहसिक स्वाभिमानी देशभक्त रणबांकुर महाराणा प्रताप के जीवन में एक संकट काल ऐसा भी आया जब उन्होंने देशरक्षा हेतु भौतिक सुख सुविधाओ व महलो के ऐश्वर्य का भी त्याग कर दिया । महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि - वह माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेंगे । चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शैय्या पर शयन दोनों उनके लिये वर्जित रहेंगे। इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने पूरी दृढ़ता के साथ किया । उन्होंने अपने परिवार सहित जंगल-पहाड़ियों मे शरण ली । अपनी सेना को संगठित रखा । स्थितियाँ इतनी विकट थी कि उन्हे खाने के लिये रोटी भी नसीब नही हुई । एक दिन जब उन्होंने अपने बेटे अमरसिंह की भूख शांत करने के लिए घास की रोटी बनायी तो उसे भी जंगली बिल्ली ले भागी । इससे विचलित होकर महाराणा प्रताप का स्वाभिमान डगमगाने लगा । उनके हौसले कमजोर पड़ने लगे ।
 राजस्थान की चुरू की माटी के लाल ‘कन्हैयालाल सेठिया’ ने राजस्थानी भाषा में लिखी अपनी कालजयी कविता ‘पाथळ अर पीथळ’ में इस स्थिति का मार्मिक वर्णन करते हुए लिखा है ‘अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावडो ले भाग्यो। नान्हो सो अमरयो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो। वे इस कविता में राणा प्रताप के राजसी जीवन का वर्णन करते हुए लिखते है ‘मेहलां में छप्पन भोग जका मनवार बिना करता कोनी , सोनै री थाळयां नीलम रै बाजोट बिना धरता कोनी ।‘ अनेक विपतियों व भूख से घिरे होने के बाद भी प्रताप अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग रहे । अकबर की अधीनता उन्हें किसी भी रूप में स्वीकार्य नही थी। सेठिया जी अपनी इसी रचना में महाराणा प्रताप के स्वाभिमान के बारे में लिखते है कि ‘हूं भूख मरुं हूं प्यास मरुं, मेवाड धरा आजाद रवै, हूं घोर उजाडा मे भटकूं, पण मन में मां री याद रवै , हूं रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला, ओ सीस पडै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला। आज के कोरोना काल में महाराणा प्रताप के आदर्शों व स्वतन्त्रता के सिद्धान्तो का महत्व और भी अधिक बढ़ गया हैं। 


(लेखक आरोग्यसिद्धि फाउंडेशन, राजस्थान के अध्यक्ष हैं। )