अंकों की दौड़ से मुक्ति के प्रयास

सीबीएसई 10वीं और 12वीं परीक्षाओं के प्रक्रिया में बुनियादी बदलाव करने जा रहा है। इस तरह के बदलावों को लागू करने के लिये सीबीएसई समय-समय पर कोशिश करता रहा है, लेकिन जिस तरह के बदलावों की बात इस बार की जा रही है, वे कुछ अलग से लग रहे हैं, उनसे शिक्षा प्रणाली की विसंगतियों को दूर किया जा सकेगा। एक तरह से शिक्षा को व्यावहारिक बनाने का उपक्रम किया जा रहा है, जिसमें विद्यार्थी को कोरा रटन विद्या में पारंगत ही नहीं बनाया जायेगा, बल्कि पढ़े गये सिद्धान्तों को जीवन में उतारने का बोध कराया जायेगा। शिक्षा प्रणाली में सुधार की यह प्रक्रिया आवश्यक एवं उपयोगी है, जिससे नयी दिशाएं उद्घाटित होंगी। इसके लिये सीबीएसई बधाई की पात्र है।


लंबे समय से 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं में विद्यार्थियों के सामने केवल अधिकतम अंक पाने की होड़ रही है, इस तरह पुस्तकें पढ़ा और रटा देने भर से सकारात्मक परिवर्तन की उम्मीद नगण्य हो गयी है। शिक्षाशास्त्रियों का मानना है कि बच्चों के लिए यह प्रक्रिया खतरनाक हैं, इस अंधी होड से बच्चों को मुक्ति दिलाना जरूरी है। क्योंकि इस रटन विद्या से विद्यार्थी अकल्पनीय लगने वाले प्राप्तांक तो लाता रहा है और उसकी चर्चा भी होती रही है, लेकिन इस तरह का ज्ञान जीवन के लिये उपयोगी नहीं हो पाया है। क्योंकि इस तरह का ज्ञान विद्यार्थी के मस्तिष्क में तब तक रहता है, जब तक वह उन पुस्तकों को जिस कक्षा में पढ़ता है। अगले वर्ष वह दूसरी कक्षा में पहुंचते ही उन पुस्तकों से मुक्ति पा लेता है। कोई आश्चर्य नहीं कि वह अब तक पढ़ी-पढ़ाई सब बातों को भूल जाए। इस पुस्तकीय शिक्षा प्रणाली में अधिकतम अंक पाने की होड़ रहती है। टॉपरों को पूर्णाक से सिर्फ एक या दो नंबर कम मिलते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय हो या देश के अन्य ख्यात विश्वविद्यालय के अच्छे माने जाने वाले कॉलेजों में प्रथम कटऑफ की सीमा 95 फीसदी से भी ऊपर रहती है।


स्वाभाविक है कि अलग-अलग राज्यों के बोर्ड भी धीरे-धीरे इसी पैटर्न पर खुद को ढालने लगे, ताकि उनके बच्चें अधिकतम अंकों से पास हो। इस तरह की शिक्षा प्रणाली ने विद्यार्थियों का कितना भला किया, यह सर्वविदित है। इस चिन्तनीय स्थिति पर बहस भी बहुत होती रही है, क्योंकि इस प्रणाली को विद्यार्थी के व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए भरोसेमंद नहीं माना जा सकता है। परीक्षाओं में शत-प्रतिशत अंक मिलने लायक सवाल पूछे जाते हैं, तभी तो इतिहास, समाजशास्त्र और अंग्रेजी जैसे विषयों में भी बच्चों को 99 फीसदी से ज्यादा अंक मिलते हैं। इतने अंक लाने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि बच्चा पाठ्यपुस्तक के अध्यायों को समझने में अपना वक्त बर्बाद करने के बजाय संभावित सवालों के सही जवाब कंठस्थ करने में जुट जाए। यह काम उसने ठीक से कर लिया तो परीक्षा में पूछे गए सवालों पर उसे सोचना नहीं पड़ेगा, धड़ाधड़ अधिक से अधिक सवालों के जवाब वह उत्तर पुस्तिकाओं पर उगल आएगा। इस पद्धति का नुकसान यह है कि आपको पता नहीं होता कि आपके सर्वश्रेष्ठ घोषित बच्चों में भी सोचने, समझने, विश्लेषण करने और अपने स्वतंत्र नतीजे निकालने की क्षमता है या नहीं? यही कारण है कि परीक्षाओं में अव्वल रहने वाले विद्यार्थी जीवन संग्राम में हारते रहे हैं, कोई बिल्कुल नई समस्या उनके सामने आने पर वे उसका मुकाबला करने में अक्षम्य साबित हुए है।


शिक्षा प्रणाली की इस बड़ी विसंगति पर सीबीएसई का जागरूक होना शुभ संकेत है। इस विषयक उसके सम्मुख आये प्रस्ताव अभी शुरुआती अवस्था में है, चर्चा के लिए यह अभी कैबिनेट के सामने भी नहीं आया है, लेकिन बताया जा रहा है कि इसका जोर रट्टा मारने के बजाय समझने और समझाने के सामर्थ्य का जायजा लेने पर है। अगर यह बात सही है तो इस दिशा में जल्द से जल्द आगे बढ़ना चाहिए। यह प्रासंगिक है कि सीबीएसई बोर्ड की परीक्षा के पैटर्न को बदलने की तैयारी कर रहा है। परीक्षा के पैटर्न में 2020 से बदलाव देखने को मिल सकता है। नए पैटर्न से विद्यार्थी की विश्लेषणात्मक क्षमताओं की जांच हो सकेगी और इससे विषयों को रटने की प्रक्रिया पर रोक भी लगेगी। हाल ही में 10वीं बोर्ड के नतीजे आए। इनमें 1,31,493 विद्यार्थियों को 90 प्रतिशत से ज्यादा तो 27,476 विद्यार्थियों को 95 प्रतिशत से ज्यादा अंक प्राप्त हुए हैं। वहीं, रिजल्ट के तुरंत बाद उम्मीद से कम नंबर आने पर तीन बच्चों ने आत्महत्या कर ली थी।


आखिर बोर्ड की परीक्षाओं में विद्यार्थियों को इतने नंबर क्यों मिल रहे हैं? और नंबरों की इस अंधी दौड़ ने क्या विद्यार्थियों और अभिभावकों पर अतिरिक्त दबाव नहीं डाल दिया? नंबरों की इस मार-काट वाली प्रतिस्पर्धा ने हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली पर ही सवाल खड़े कर दिए है।। अंकों की प्रतिस्पर्धा से जो समस्याएं खड़ी हुई है उनमें मुख्य है कि जिन बच्चों के ज्यादा नंबर नहीं आते हैं या 70-75 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे भी अपने भविष्य को लेकर दुविधा में क्यों रहते हैं? कम अंक लाने वाले बच्चे तो तनाव एवं कुंठाग्रस्त होंगे ही, लेकिन जिन बच्चों के अधिक नंबर आए हैं, उन्हें भी भविष्य में दिक्कत हो सकती है। अब उनसे हमेशा बेहतर परफॉर्म करने की उम्मीद रहेगी। अगर वे भविष्य में अच्छा परफॉर्म नहीं करते हैं तो वे और ज्यादा तनाव एवं कुंठाग्रस्त होंगे। मनोवैज्ञानिक रूप से ऐसे बच्चे ज्यादा परेशान होंगे। सीबीएसई वर्तमान प्रणाली में कल्पना, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और सोच-विचार के लिए जगह ही नहीं है। जरूरत है शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की। अंकों की दौड़ को नियंत्रित करने की। इस विश्वास को बल देने की कि जिनके ज्यादा अंक नहीं आ पाते हैं, उनकी प्रॉपर काउंसिलिंग करके बताना चाहिए कि कम अंक के बावजूद वे कैसे उपयोगी जीवन जी सकते हैं। प्रतिभा का पैमाना केवल नंबर नहीं हो। बच्चों की प्रतिभा को सही ढंग से आंकने के लिए हमें एक नियोजित शिक्षा प्रणाली को लागू करना होगा। अभिभावकों की बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अंकों को लेकर चिन्तीत होने के बजाय बच्चों को केवल ।


अच्छी पढ़ाई करने को प्रोत्साहित करें। सीबीएसई अपने पेपर पैटर्न में बदलाव करने की तैयारी कर चुकी है, इससे विषयों को रटने की प्रक्रिया पर रोक भी लगेगी। उसने नियमों में बदलाव के लिए मानव संसाधन मंत्रालय को एक प्रस्ताव भी भेजा है। इस प्रस्ताव के अनुसार प्रश्न पत्र इस तरह तैयार किये जायेंगे जिससे विद्यार्थी की विश्लेषणात्मक क्षमताओं को बल मिल सकेगा। उसकी क्रिटिकल थिंकिंग योग्यता को टेस्ट करने पर ज्यादा फोकस रहेगा। समग्र विकास के लिए उत्तरदायी मस्तिष्कीय कोशों को सक्रिय कर सके, ऐसे प्रशिक्षण की आवश्यकता है। ऐसा प्रशिक्षण नहीं जिससे नियमों को रटा दिया जाए, परीक्षा ली जाए और अगली कक्षा में पहुंचकर विद्यार्थी उसे भूल जाए।