माल्या का प्रस्ताव मानने में हर्ज नहीं

विजय माल्या ने अपनी देनदारियां चुकाने के लिए जो प्रस्ताव पेश किया है, उस पर सकारात्मक ढंग से विचार करें तो बेहतर है। देश से भागकर लंदन में जा बैठे विजय माल्या अब कह रहे हैं कि वे भारत लौटकर बैंकों, कारोबारियों व कर्मचारियों का सारा बकाया चुकाना चाहते हैं, यदि उन्हें उचित व व्यवस्थित ढंग से यह करने दिया जाए। माल्या का यह भी कहना है कि उन्होंने इस बाबत अप्रैल 2016 में प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिखी थी। प्रधानमंत्री चाहते तो इस बारे में वित्त मंत्री से कह सकते थे कि वे देखें कि क्या ऐसी कोई व्यवस्था बनाई जा सकती है, जहां माल्या के कर्जा का निपटारा हो जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जहां तक मुझे लगता है कि माल्या इसलिए लंदन नहीं भागे, क्योंकि वह कर्ज चुकाने से बचना चाहते थे। बल्कि वे इसलिए भागे क्योंकि उन्हें यह भय सताने लगा था कि उन्हें गिरफ्तार कर जेल की किसी गंदी-सी कालकोठरी में कैद कर दिया जाएगा। ऐसा तो हमारे यहां होता भी है, जहां किसी को दोष सिद्ध होने से पहले ही जेल में ठंस दिया जाता है। बहरहाल, माल्या ने जो प्रस्ताव दिया है, उसे सरकार को ठुकराना नहीं चाहिए। ऐसे इंतजाम किए जा सकते हैं, जहां पर माल्या भारत लौटकर अपने किसी आवास में ठहरें और अपने कर्जा समेत बाकी देनदारियों का निपटारा करें, जैसा कि सप्रीम कोर्ट द्वारा सहारा समूह के सुब्रत रॉय के लिए किया गया। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ सब्रत रॉय को जमानत देते हए यह रियायत दी कि वे जेल से बाहर रहकर अपनी देनदारियों को चुकाने का इंतजाम करें। सुब्रत रॉय से हजारों करोड़ रुपए की वसूली का यह काम सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रहा है। मसलन, अप्रैल 2017 को जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली एक बेंच ने सब्रत रॉय से कहा कि वे दो चेकों के जरिए सेबी को 15 जून, 2017 तक


तिहाड़ जेल भेज देंगे। ऐसा ही कुछ माल्या के साथ भी तो किया जा सकता था। मुझे लगता है कि शासन बड़े-बड़े डिफॉल्टरों में अपेक्षाकृत छोटे डिफॉल्टर पर शिकंजा कसते हुए एस्सार, रिलायंस एडीएजी, अडानी, जीएमआर, जीवीके और अन्य ऐसे समूहों के भारीभरकम एनपीए से ध्यान भटकाने की कोशिश कर रहा है। यहां तक कि सरकारी बैंक कुछ रियायतों के साथ डिफॉल्टिंग खातों को बंद करने की पेशकश भी कर रहे हैं, कुछ उसी तरह जिसकी विजय माल्या फिलहाल बात कर रहे हैं। वास्तव में भारीभरकम एनपीए के लिए जिम्मेदार अनिल अंबानी, गौतम अडानी और अनिल अग्रवाल जैसी दिग्गज कारोबारी शख्सियतों के मुकाबले माल्या छोटी मछली हैं। लेकिन आज माल्या बुरी तरह फंसे फिर रहे हैं। जैसा कि उन्होंने प्रधानमंत्री को अप्रैल 2016 में लिखे पत्र में जिक्र भी किया। इस पत्र में उन्होंने लिखा- राजनेताओं और मीडिया ने मुझ पर इस तरह आरोप लगाए, जैसे किंगफिशर एयरलाइंस को दिए गए 9000 करोड़ रुपए के कर्ज को मैंने चुरा लिया और भाग गया। कुछ कर्जदाता बैंकों ने भी मुझे जानबूझकर कर्ज न इनमें से किसने सुब्रत का नमक नहीं खाया या चुनावों के लिए अथवा बुरे वक्त में थोड़ा-बहुत चंदा नहीं लिया। कुछ ने तो अच्छे दौर में भी ऐसा करने से परहेज नहीं किया होगा। माल्या के बारे में हम कुछ बातें दुरुस्त कर लें। आम धारणा यही है कि माल्या ने देश-विदेश में अपनी विलासितापूर्ण शाहखर्च जीवनशैली की खातिर बैंकों से 9000 करोड़ रुपयों का कर्ज लिया और जब कर्जा का बोझ अत्यधिक हो गया तथा चुकाने का कोई जरिया नजर नहीं आया, तो वह विदेश भाग गए। लेकिन हम एक चीज भूल जाते हैं कि माल्या तो किंगफिशर एयरलाइंस की स्थापना से बहुत पहले से ही ऐसा विलासितापूर्ण जीवन जीते रहे हैं और उनका काफी पैसा इधर- उधर फैला था। उनका काफी सारा पैसा तब


बढ़ते लाल धब्बों को देख लाल झंडी दिखा देता, तो यह प्रवाह रुक जाता। माल्या ने किंगफिशर एयरलाइंस को चलायमान रखने के लिए बैंकों का दोहन नहीं किया, बल्कि अपने नियंत्रण वाली यूनाइटेड ब्रेवरेज और यूनाइटेड स्पिरिट जैसी कंपनियों का दोहन किया, ताकि इसे उबारा जा सके। जब किसी कारोबार में घाटा होता है, तो इसका स्वतः मतलब यह नहीं होता कि पैसा चुरा लिया गया है। अक्सर इसका यह भी मतलब होता है कि इसमें कमाई से ज्यादा खर्चा हो गया। इसका मतलब है कि कर्मचारियों को अंतिम वर्ष को छोड़कर बराबर भुगतान किया गया, ज्यादातर ऐसे वक्त जब इसके विमानों ने उड़ान नहीं भरी, तेल कंपनियों को उनके द्वारा सप्लाई किए गए एयर टरबाइन ईंधन के लिए भुगतान मिला, विमान लीज पर देने वाली कंपनियों को भुगतान किया गया, विमानों में खान-पान की सामग्री की आपूर्ति करने वाले केटरर्स का भी भुगतान किया गया, एयरपोर्टस को भी विमानों की लैंडिंग व पार्किंग के लिए भुगतान किया गया और ज्यादातर वक्त इससे संबंधित करों व उपकरों का भी बराबर भुगतान किया गया। इस पूरी अवधि के दौरान किंगफिशर एयरलाइंस को इतने भी यात्री नहीं मिले जिससे इसकी लागत की भी पूर्ति हो जाए। या ऐसा भी हुआ कि इसने कमाई से ज्यादा खर्चा किया। इसके साथ-साथ हम यह भी न भूलें कि उसी अवधि के दौरान एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस ने कुल मिलाकर 43000 करोड़ रुपए गंवाए, जबकि माल्या की इस परियोजना में गंवाई रकम तो 4000 करोड़ रुपए है। समस्या यह है कि हमने इस व्यवस्था में कछ ज्यादा ही निवेश कर रखा है। यदि बैंक सख्ती पर उतर आएं तो दस में से छह कारोबारी घरानों को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ जाएगा या उन्हें समाप्त करना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका पुनर्गठन हो जाएगा। रिलायसं इंडस्ट्रीज, टाटा समूह और आदित्य बिरला को अगर छोड दें तो बाकी तमाम बड़े कारोबारी घराने बोझ तले दबे हैं। यदि हम इसमें उथल-पुथल की कोशिश करें तो इनमें से कई गंभीर मुश्किलों में फंस जाएंगे।