मंदिर पर मंथन

मंदिर पर मंथन इन दिनों एक बार फिर मंदिर का मसला सतह पर आता दिख रहा है। जहां एक ओर भाजपा के कई बड़े नेता शीघ्र ही अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर के निर्माण का भरोसा देते हुए दिखाई पड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय में दायर मामले का निपटारा भी अगले कुछ महीनों में हो जाने की उम्मीद प्रबल दिख रही है। वैसे भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में इस बात को तो सभी जजों ने एकमत से मान लिया था कि विवादित जमीन ही भगवान राम की जन्मभूमि है। हालांकि विवादित जमीन के जन्मभूमि होने का पूरा साक्ष्य व प्रमाण मिलजाने के बाद भी उच्च न्यायालय ने पूरी जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया और रामलला के हिस्से में जमीन का एक-तिहाई टुकड़ा ही आया। बाकी दो तिहाई जमीन अन्य पक्षकारों के हिस्से में चली गई। इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई और अब वहां से स्पष्ट फैसला आने की उम्मीद प्रबल दिख रही है। लेकिन राम मंदिर विवाद का तार्किक अंजाम तक पहुंचना राजनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण है और इस मामले को तूल देकर भाजपा द्वारा मतदाताओं का ध्रुवीकरण किया जाना भी तय ही है। लिहाजा इसकी काट के लिये सपा के मुखिया अखिलेश यादव ने भी अलग से एक विष्णु भगवान का मंदिर बनवाने का ऐलान कर दिया है। यानि मंदिर के मसले की आंच को मंदिर से ही बुझाने के इस कदम का धार्मिक कम और सियासी मायने-मतलब ही ज्यादा है। साथ ही बाबरी विध्वंस के दौर में कारसेवकों पर गोलियां चलवाकर सपा के शीर्षतम नेता मुलायम सिंह यादव जिस तरह से मुस्लिम तुष्टिकरणवादी धर्मनिरपेक्षता के महारथी बनकर उभरे थे उस फसल को रौंदने की हिम्मत अखिलेश की भी नहीं हो रही है। वर्ना कायदे। से अगर उन्हें मंदिर बनवाने में दिलचस्पी ही दिखानी थी तो वे कह सकते थे कि अगर सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित जमीन पर राम मंदिर बनाने का आदेश दिया तो रामलला को टाट से निकाल कर भव्य मंदिर में स्थापित करने में वे कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। लेकिन उन्हें बेहतर पता है कि सप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अगर उन्होंने मंदिर विरोध की राह नहीं पकड़े रखी तो सूबे का 18 फीसदी अल्पसंख्यक मतदाता उनसे छिटक जाएगा और मुलायम ने पूरी जिन्दगी की मेहनत से जो माय यानि मुस्लिम यादव समीकरण बनाया है वह पूरी तरह बिखर जाएगा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी बाबरी ढांचे के प्रति सहानुभूति दिखाना उन्हें बहुसंख्यक विरोधी छवि में ढाल सकता है। इसी वजह से उन्होंने पहले ही ऐलान कर दिया है कि कंबोडिया के विश्व प्रसिद्ध अंकोरवाट मन्दिर की तर्ज पर वे उत्तर प्रदेश में एक भव्य विष्णु मंदिर बनवाएंगे। यानि अलग से विष्णु मंदिर बनवाने की बात कहना और अयोध्या में राम जन्मस्थान के मसले से दरी बनाए रखना यह बताने के। लिये काफी है कि पूर्व समाजवादी नेता अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी को नमाजवादी पार्टी का जो नाम दिया है वह कतई गलत नहीं है। बात। सिर्फ समाजवादी की ही क्यों करें, मंदिर मसले का निर्णायक निपटारा होने का वक्त करीब आता देखकर तकरीबन सभी राजनीतिक दलों के सुर इसी वजह से तो बदलने लगे हैं कि कहीं भाजपा ही अकेली हिन्दू हितैषी पार्टी के रूप में ना उभर जाए। तभी तो इन दिनों हिन्दू समाज से करीबी व जुड़ाव दिखाने की होड़ सी मच गई है। राहुल यादव भी भरी सभा में अपने जनेऊ का प्रदर्शन कर खुद को ब्राह्मण बता रहे हैं और लालू के लाल तेजप्रताप कांवड़ लेकर भोलेनाथ को जल चढ़ा रहे हैं। छिटक जाएगा और मुलायम ने पूरी जिन्दगी की मेहनत से जो माय यानि मुस्लिम यादव समीकरण बनाया है वह पूरी तरह बिखर जाएगा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी बाबरी ढांचे के प्रति सहानुभूति दिखाना उन्हें बहुसंख्यक विरोधी छवि में ढाल सकता है। इसी वजह से उन्होंने पहले ही ऐलान कर दिया है कि कंबोडिया के विश्व प्रसिद्ध अंकोरवाट मन्दिर की तर्ज पर वे उत्तर प्रदेश में एक भव्य विष्णु मंदिर बनवाएंगे। यानि अलग से विष्णु मंदिर बनवाने की बात कहना और अयोध्या में राम जन्मस्थान के मसले से दरी बनाए रखना यह बताने के। लिये काफी है कि पूर्व समाजवादी नेता अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी को नमाजवादी पार्टी का जो नाम दिया है वह कतई गलत नहीं है। बात। सिर्फ समाजवादी की ही क्यों करें, मंदिर मसले का निर्णायक निपटारा होने का वक्त करीब आता देखकर तकरीबन सभी राजनीतिक दलों के सुर इसी वजह से तो बदलने लगे हैं कि कहीं भाजपा ही अकेली हिन्दू हितैषी पार्टी के रूप में ना उभर जाए। तभी तो इन दिनों हिन्दू समाज से करीबी व जुड़ाव दिखाने की होड़ सी मच गई है। राहुल यादव भी भरी सभा में अपने जनेऊ का प्रदर्शन कर खुद को ब्राह्मण बता रहे हैं और लालू के लाल तेजप्रताप कांवड़ लेकर भोलेनाथ को जल चढ़ा रहे हैं। वर्ना अगर माहौल पहले जैसा होता तो बकरीद के मौके पर सिर पर जालीदार टोपी और कांधे पर हरा गमछा डाल कर गले मिलते नेताओं की तस्वीर ही अखबारों के पहले पन्ने पर छपती। सड़कें व गलियां बकरीद की बधाई की होर्डिंग और पोस्टरों से अटी-पटी दिखतीं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं दिखा। बल्कि बकरीद की सियासी दावतें भी बहुत सीमित तादाद में हुई। अलबत्ता रक्षाबंधन पर जरूर सियासी उछलकूद दिख रही है। यानि बीते दिनों में धर्मनिरपेक्षता का जो पैमाना मुस्लिम तुष्टिकरण था वह अब बदल गया है। हालांकि अल्पसंख्यकों के वोटों का मोह किसी से छूटा नहीं है लेकिन बहुसंख्यक विरोधी दिखने का हौसला भी अब किसी में नहीं है। लेकिन सवाल है कि क्या खुद को हिन्दू दिखाकर वे राजनीतिक दल बहुसंख्यक समाज का भरोसा इतनी आसानी से जीत पाएंगे। और उससे भी बड़ी बात यह है कि जिस अयोध्या विवाद का हल करीब आता देख बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण रोकने के लिये हर तरफ दिखावा और ढोंग किया जा रहा है वह मसला सिर्फ धर्म और आस्था का ही है? कतई नहीं। राम मंदिर विवाद धर्म से बढ़कर राष्ट्रवाद का मसला है। आततायी मुगलों ने जिस तरह से इस्लाम की जड़े मजबूत करने के लिये हिन्दुओं पर अत्याचार किये और मंदिरों को लूटा व तोड़ा उसे तो समय के साथ भुला दिया गया लेकिन राम जन्मभूमि पर स्थित मंदिर की नींव पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया जाना देश के स्वाभिमान को रौंदने जैसा हो गया जिसकी टीस सदियों से चुभ रही थी। उसी टीस का प्राकट्य हुआ बाबरी ढांचा ध्वस्त किये जाने के मामले में। तभी तो ढांचा गिराये जाने तक जो जनभावना का ज्वार दिख रहा था उसका आक्रोश बाद में मंद पड़ गया और मंदिर निर्माण की वैसी जिद कभी नहीं दिखी जैसी बाबरी ढांचे को गिराने के लिये थी। यानि बाबरी प्रतीक था मुगलिया सल्तनत के कुकृत्यों का और भारत की गुलामी का। लेकिन मंदिर का मामला आस्था से जुड़ा है जिसके लिये आक्रोश का कोई भाव ही नहीं है हिन्दू समाज में। लेकिन इस गूढ़ बात को समझे बगैर सियासी पार्टियां मंदिर पर मंथन करने और मंदिर-मंदिर खेलकर हिन्दू समाज में अपनी पैठ बढ़ाने का जो प्रयास कर रही हैं उसका शायद ही कोई लाभ इन्हें मिल पाएगा। अगर वाकई अखिलेश को विष्णु भगवान का मंदिर बनाकर हिन्दू समाज का विश्वास जीतना है तो इसका एक ही तरीका है कि वे ऐलान कर दें उनके द्वारा प्रस्तावित मंदिर मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर बनेगा। लेकिन मसला है कि दिखावे की राजनीति में दिलेरी की तलाश करना भी तो बेवकूफाना ही है।