सशक्त सफलता

सशक्त सफलता प्रधानमंत्री मोदी ने नाले के गैस से चूल्हा जलाने की कहानी सुनाई तो उनका बहुत मजाक बनाया गया। लेकिन अब यह तस्दीक हो चुकी है कि ऐसा किया। जा रहा है। यह कोई मजाकिया बात नहीं है। यह ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता दिशा में तकनीक की आवश्यकता की ओर इशारा है और इस ओर प्रधानमंत्री की नजरें गड़ी होने का सीधा सा मतलब यही है कि अब भारत की पहली प्राथमिकता ऊर्जा के लिये विदेशों पर निर्भरता की विवशता से निजात पाना है। इस दिशा में आज एक बड़ी सशक्त सफलता की गाथा लिखी है हमारे नागरिक उड्डयन क्षेत्र ने जहां पहली बार बायोफ्यूल से विमान उड़कर स्पाइजेट ने बॉम्बार्डियर क्यू400 द्वारा 20 सवारियों के साथ देहरादून से राजधानी दिल्ली के बीच के 25 मिनट के स्वर्णिम सफर के सपने को साकार किया है। इस तकनीक में भारत की सफलता कितनी बड़ी है इसका सहज अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बायोफ्यूल से उड़ान का सपना तो पूरी दुनियां के देश काफी लंबे समय से देखते आ रहे हैं लेकिन इस दिशा में पहली सफल उद्मन इस साल की शुरूआत में ही सफल हो पायी जब दुनिया की पहली बायोफ्यूल फ्लाइट ने लॉस एंजेलिस से मेलबर्न के लिए उड़ान भरी थी। बीते सात महीनों में इस तकनीक के माध्यम से जहाज उड़ाने में केवल कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे विकसित देशों को ही कामयाबी मिल पायी है। और अब भारत भी उन चुनिंदा देशों के ग्रुप में शामिल हो चुका है जो बायोफ्यूल से जहाज उड़ाने की दिशा में सफलतापूर्वक अपना कदम आगे बढ़ा चुका है। आज की उड़ान में जो ईंधन इस्तेमाल हुआ उसमें 75 प्रतिशत एविएशन टर्बाइन फ्यूल (एटीएफ) और 25 प्रतिशत बायोफ्यूल का मिश्रण था। आज की उड़ान में इस्तेमाल किये गये जट्रोफा फसल से बने बायोफ्यूल का विकास भारत में ही हुआ है और अब इस प्रयोग ने बायोफ्यूल के लिये संभावनाओं के असीमित आकाश का दरवाजा खोल दिया है। भारतीय तकनीक से केवल जयेफा से ही नहीं बल्कि सब्जी के तेलों, रिसाइकल ग्रीस, काई और जानवरों की चर्बी सरीखी उन तमाम प्राकृतिक चीजों से भी बायोफ्यूल बनाया जा सकता है जिनमें तैलीय गुण होता है और वसा की मात्रा मौजूद रहती है। स्वाभाविक है कि इस प्रायोगिक उड़ान की सफलता के बाद अब भारत के कदम रूकनेवाले नहीं हैं बल्कि इस दिशा में और अधिक तेजी से काम आगे बढ़या जाएगा। आज की उड़ान में इस्तेमाल हुए ईंधन में 25 फीसदी मिश्रण बायोफ्यूल का था लेकिन इस अनुपात को अधिकमत सीमा तक ले जाने की दिशा में काम शुरू हो चुका है। लेकिन सवाल है कि आखिर भारत को युद्धस्तर पर इस तकनीक को अपनाने के लिये क्यों विवश होना पड़ा है। वर्ना पेट्रोलियम पदार्थों में इथेनॉल के मिश्रण को बढ़ावा देने की नीति भले ही काफी पहले से अमल में लायी जाती रही हो लेकिन इस दिशा में अधिक गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत इससे पहले कभी नहीं समझी गई। लेकिन अब जो हालात हैं उसमें पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भरता के कारण विश्व व्यवस्था की ओर से थोपी व लादी गई समस्याओं के सामने सिर झुकाए रखने का मतलब होगा विकास व तरक्की की गति से समझौता करना। हालांकि भारत ने विश्व भर को कच्चे तेल की आपूर्ति करनेवाले देशों के संगठन ओपेक को पहले ही यह चेतावनी दे दी थी कि वे अपने रवैये में सुधार लाएं और मुनाफे के लिये मनमानी नीतियों पर अमल करने से परहेज बरतें। दरअसल आज भारत को पेट्रोलियम पदार्थों का ठोस विकल्प अपनाने के लिये उन ओपेक देशों के नीतियों ने ही विवश किया है जिन्होंने मुनाफे के लिये उत्पादन में कटौती कर दी ताकि मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन बनाने के लिये कच्चे तेल की कीमतें बढ़ती-चढ़ती रहे । दरअसल ओपेक प्रमुख पेट्रोलियम उत्पादक 15 देशों का संगठन है जो औसतन प्रतिदिन लगभग तीन करोड़ बैरल कच्चे तेल का उत्पादन करते हैं। वर्ष 1960 में ओपेक का गठन कर तेल उत्पादक देश ये सोच कर साझा मंच पर आए कि वो आपूर्ति पर नियंत्रण बना कर मनमुताबिक कीमतें तय कर पाएंगे। वर्ष 2000 में ओपेक ने 22 से 28डॉलर प्रति बैरल का न्यूनतम भाव तय किया था ताकि इस स्तर पर कीमतों के रहने पर तेल के स्वाभाविक उत्पादन में कमी-बेसी नहीं की जाएगी। तय हुआ था कि कच्चे तेल की कीमत 22 डॉलर से नीचे जाने पर सदस्य देश उत्पादन में कटौती करेंगे और 28 डॉलर प्रति बैरल की कीमत पर आने के बाद उत्पादन बढ़ाया जाएगा। लेकिन यह व्यवस्था अधिक दिनों तक नहीं चल सकी और वर्ष 2005 में ओपेक ने मल्य तय करने की परंपरा से ही तौबा कर ली और केवल उत्पादन पर अपना एकाधिकार सुनिश्चित करना ही बेहतर समझा। लेकिन बाद के दिनों में कच्चे तेल की कीमतें न्यूनतम स्तर पर ही। रहीं और आपूर्ति की तुलना में निरंकुश उत्पादन की होड़ लगी रही। नतीजन तमाम तेल उत्पादक देशों का घाटा बढ़ने लगा और आखिरकार ओपेक के अलावा अन्य तेल उत्पादक देशों ने भी ओपेक प्लस के नाम से एक मंच साझा कर वर्ष 2017 से उत्पादन में 18 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती करने संबंधी एक समझौता लिया। नतीजन कच्चे तेल की कीमतें लगातार बढ़ने लगीं और वह 27 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल। तक पहुंच गई। इस बीच हाल के कुछ महीनों में वेनेजुएला, लीबिया और अंगोला ने तेल आपूर्ति में लगभग 28 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की। है। जिसके कारण कच्चे तेल की कीमतें विश्व बाजार में आसमान छू रही हैं। उस पर वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था के जमीदोज होने और ईरान पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगा दिये जाने के बाद तेल के खेल में चारों तरफ आग ही आग की स्थिति दिख रही है। इन हालातों में भारत के लिये बेहद आवश्यक हो गया है कि वह वैकल्कि ऊर्जा श्रोतों पर गंभीरता से ध्यान दे और पेट्रोलियम पर अपनी निर्भरता को यथासंभव कम करे। इसके लिये भारत ने बकायदा इसी साल अपनी नैशनल पॉलिसी फॉर बायोफ्यूल भी तैयार की है जिसके मुताबिक अगले चार सालों में एथेनॉल के उत्पाद को तीन गुना तक बढ़ने का लक्ष्य रखा गया है। इसके अलावा बायोफ्यूल और बायोगैस के अलावा सौर ऊर्जा पर भी ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है और अपनी ऊर्जा जरूरतों को घरेलू संसाधनों से पूरा करने की कोशिश की जा रही है। ऐसा होने पर निश्चित ही भारत के किसानों को सीधा लाभ होगा और प्रदूषण के स्तर में भी कमी आएगी। साथ ही विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी और ऊर्जा में आत्मनिर्भरता से सशक्त भारत की तस्वीर उभर कर सामने आएगी।