सामाजिक तनाव बढ़ाने वाली असहमति सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं- नायडू

उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने वैचारिक असहमति के नाम पर आतंकवाद और कट्टरता के सहारे सामाजिक तनाव फैलाने की बढ़ती प्रवृति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि 'विघटनकारी असहमति' किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती। नायडू ने सोमवार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन में अपने सम्बोधन में कहा कि असहमति के लोकतांत्रिक अधिकार को ढाल बनाकर आतंकवाद और कट्टरता को बढ़ावा देने वाली ताकतें वैश्विक शांति के लिए खतरा बन गई हैं। शांति की पहल करने वाले भारत सहित अन्य देश इस खतरे से जूझ रहे हैं। इसलिए समय आ गया है जब विश्व समुदाय इस मुद्दे पर एकजुट होकर गम्भीरता से सोचे। नायडू ने कहा कि आयोग की स्थापना की रजत जयंती के अवसर पर आयोजित यह सम्मेलन इस दिशा में विचार मंथन का महत्वपूर्ण माध्यम बन सकता है। उन्होंने सम्मेलन में हिस्सा ले रहे, विभिन्न देशों के कानूनविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से इस समस्या के समाधान की ठोस कार्ययोजना पर मंथन करने का आह्वान किया। नायडू ने कहा कि सभी के सुख और कल्याण का दुनिया को संदेश देने वाले देश भारत ने मानवाधिकारों की पेरिस उद्घोषणा 1992 के अनुरूप महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों, उपेक्षित और अल्पसंख्यकों सहित समाज के सभी वर्गों के नागरिक अधिकारों के संरक्षण हेतु सार्थक प्रयास किए हैं। इनकी आज साफ़ झलक पंचायती स्तर पर महिला आरक्षण और विधायिकाओं में हर वर्ग के उचित प्रतिनिधित्व के रूप में दिखती है। हालाँकि उपराष्ट्रपति ने मानवाधिकारों की बहाली प्रक्रिया में सम्यक निगरानी और संतुलन की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि आतंकवाद और कट्टरपंथी हिंसा प्रभावित सीमावर्ती एवं अन्य राज्यों में मानवाधिकारों के दुरुपयोग पर निगरानी जरूरी है। नायडू ने कहा कि कुछ लोगों को लगता है कि वैचारिक असहमति के नाम पर निर्दोष लोगों को मारने और सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करने का उन्हें अधिकार है। लोकतंत्र में विरोधी मत होना जरूरी है लेकिन इसके नाम पर किसी को मारने का हक किसी को नहीं होता। उन्होंने कहा कि कट्टरपंथी निर्दोष मासूमों को मारते हैं और फिर इनके विरुद्ध करवाई करने पर अगले दिन मानवाधिकार का दावा किया जाता है।