तीसरी ताकतों का तिकड़म

तीसरी ताकतों का तिकड़म आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर जो हवा बन रही है उसमें तीसरी ताकतों के लिये मौसम बेहद अनुकूल रहने की संभावना को कतई नकारा नहीं जा सकता है। खास तौर से कांग्रेस को विकल्प के तौर पर स्वीकार करने को लेकर मतदाताओं में दिख रही हिचक और भाजपा से समाज के कुछ तबकों की निराशा को देखते हुए इस बात की प्रबल संभावना है कि इस बार निर्णायक संसद गठित हो पाना संभव ना हो सके। यानि किसी एक दल या गठबंधन को अपने दम पर पर्ण बहुमत हासिल हो पाने की क्षीण। होती दिख रही संभावनाओं ने उन दलों के लिये संभावनाओं के नए द्वार खोल दिये हैं जिनके पास सूबाई स्तर पर मजबूत परंपरागत वोट बैंक है। और जो कांग्रेस और भाजपा के साथ समानांतर दूरी बनाए हुए हैं। ऐसे दलों में सबसे अधिक प्रभावशाली भूमिका में उभरने की संभावना उस बसपा की है जो कागजी तौर पर बेहद कमजोर दिखाई पड़ रही है और जिसकी झोली सफलता के नाम पर पूरी तरह खाली है। सच पूछ जाए तो सतही नजरिये से बसपा के पास इस बार गंवाने के लिये कुछ भी नहीं बचा है। लोकसभा में पिछली बार ही बसपा का परी तरह सफाया हो गया था। रही। सही कसर यूपी के विधानसभा के नतीजों ने पूरी कर दी जिसमें बसपा के टिकट पर महज 19 विधायक ही जीत दर्ज करा सके। यानि अब अपने मौजूदा विधायकों की तादाद के दम पर बसपा राज्यसभा की एक भी सीट नहीं जीत सकती। लेकिन संसद या विधानसभा में पार्टी की उपस्थिति को ही उसकी वास्तविक स्थिति और हैसियत का प्रतिबिंब मान लेना और उसके आधार पर भविष्य के लिये उसकी संभावनाओं को सिरे से खारिज कर देना निहायत ही गलत होगा। सच तो यह है कि जमीन पर बसपा की स्थिति उतनी प्रतिकूल नहीं है जितनी संसद या विधानसभा में दिख रही है। अगर आंकड़ों की जुबानी बसपा की जमीनी स्थिति को समझने का प्रयास करें तो बीते लोकसभा चुनाव में उसने भले ही एक भी सीट ना जीती हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर चार फीसदी से अधिक और यूपी में भी बीस फीसदी से अधिक वोट हासिल करके जनाधार के मामले में वह देश की तीसरी सबसे ताकतवर पार्टी के तौर पर सामने आई। इसी प्रकार यूपी विधानसभा के लिये पिछले साल हुए चुनाव में भी बसपा के खाते में सवा बाईस फीसदी वोट आए। यानि इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद बसपा का परंपरागत वोटबैंक लगातार उसके साथ पूरी तरह जुड़ा हुआ है लिहाजा पार्टी को शून्य या समाप्त मान लेना कतई उचित नहीं होगा। ऐसे में बसपा के पास दो विकल्प हैं। पहला विकल्प यह है कि वह महा-गठजोड़ में शामिल होकर संसद में अपना अस्तित्व दोबारा कायम करने की लड़ाई लड़े और कांग्रेस की कृपा पर आश्रित होकर रहे। इसमें अव्वल तो उसे मनमुताबिक सीटें नहीं मिल पाएंगी और दूसरे राष्ट्रीय राजनीति में राहुल गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस को मजबूती देने में सहभागी बनना होगा। इसमें बसपा को बाकी सूबों में चुनाव लड़ने के लिये कितनी सीटें मिल पाएंगी यह कहना बेहद कठिन है। और उन सीटों के दम पर वह खुद को कितना मजबूत कर पाएगी यह भी संदेहों के घेरे में है। लेकिन इससे अलग हटकर बसपा के पास एक दूसरा विकल्प यह है कि वह कांग्रेस और भाजपा के साथ समानांतर दूरी बनाकर चुनाव लड़े और चुनावी नतीजा आने के बाद यह तय करे कि किस ओर झुकना या मुड़ना उसके लिये अधिकतम लाभदायक रहेगा। फिलहाल बसपा ने इस दूसरे विकल्प को आजमाने की ही राह पकड़ी है ताकि अपनी ताकत को तौलने और जमीनी स्तर पर मौजूद जनभावना का ठोस आकलन करने के बाद ही लोकसभा चुनाव के लिये निर्णायक रणनीति बनाई जाए। इसी वजह से पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसने कांग्रेस से किनारा करके अपनी अलग राह पकड़ी है। खास तौर से उसे संभावना टटोलनी है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां उसने तीसरी ताकत के तौर पर उभरने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अब तमाम संभावनाएं इस बात पर टिकी हैं। कि जमीनी स्तर पर भाजपा की मजबूती यथावत बरकरार है अथवा मतदाता विकल्प की तलाश में हैं। अगर विकल्प की तलाश के प्रति मतदाताओं का रूझान सामने आया तो कांग्रेस और भाजपा के साथ समानांतर दूरी कायम करके चलना ही बसपा के लिये मुनासिब होगा। वैसे भी मतदाताओं द्वारा विकल्प की तलाश किया जाना तीसरी ताकतों के लिये बेहद शुभ संकेत होगा क्योंकि इससे लोकसभा चुनाव में खंडित जनादेश आने की संभावना प्रबल हो जाएगी। हालांकि बसपा इकलौती पार्टी नहीं है। जो खंडित जनादेश का सपना देख रही है और केन्द्र में मजबूर सरकार बनने की दुआ कर रही है। बल्कि एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों से लेकर टीडीपी तक की ख्वाहिश यही है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेसनीत संप्रग और भाजपानीत राजग में से जो भी आगे निकले उसका सफर अधिकतम डेढ़-सौ से दौ-सौ सीटों के बीच ही ठहर जाए। ऐसी सूरत में तीसरी ताकतों को आगे आने का सुनहरा मौका मिलेगा और उसका सफर अधिकतम डेढ़-सौ से दौ-सौ सीटों के बीच ही ठहर जाए। ऐसी सूरत में तीसरी ताकतों को आगे आने का सुनहरा मौका मिलेगा और उसमें भी जिसकी जितनी संख्या भारी होगी उसकी उतनी ही प्रबल दावेदारी होगी सत्ता की मलाई में अधिकतम हिस्सेदारी की। इसी सोच के तहत कांग्रेस और भाजपा से अलग हटकर कई धाराएं अपनी दिशा तलाश रही हैं जिसमें मायावती से लेकर ममता बनर्जी और शरद पवार का नाम मुख्य रूप से शामिल है। चूंकि मायावती के पास फिलहाल खोने के लिये कुछ। भी नहीं बचा है लिहाजा उनके पास मौका है कि असीमित संभावनाओं के चुनावी महासागर में बिना किसी सहारे के छलांग लगाएं और सुनहरे भविष्य का मोती तलाशने का प्रयास करें। वैसे भी मौजूदा राजनीतिक हालातों में बसपा के पास दोबारा सोशल इंजीनियरिंग की उस रणनीति को आजमाने का मौका है जिसके दम पर उसने 2007 में यूपी में अपनी पूर्ण बहुमत की। सरकार बनाई थी। हालांकि इसमें इस बात का जोखिम तो है कि विपक्ष में बिखराव का भाजपा को फायदा मिल जाए लेकिन जिस तरह से सपा मेंफूट पड़ी है और कांग्रेस के प्रति जनता में स्वीकार्यता का अभाव दिख रहा है उसके मद्देनजर देश को सबसे अधिक सांसद देने वाले सूबे में अगर बसपा अपने दम पर जोखिम उठाने का फैसला करे तो यह उसके लिये असीमित संभावनाओं का द्वार भी खोल सकता है।