रंग पकड़ती दबाव की कूटनीति






पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान इन दिनों दिस तरह से भारत के साथ संबंधों को सुधारने के लिये उतावलापन दिखा रहे हैं उसके पीछे की उनकी मंशा, योजना या मजबूरी के कई आयाम हो सकते हैं लेकिन इसके लिये वे जिन शब्दों का चयन कर रहे हैं उस पर हर तरफ से पड़ रहे दबाव का रंग स्पष्ट झलक रहा है। वर्ना इस बात की तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी कि पाकिस्तान का कोई प्रधानमंत्री कभी इस बात को स्वीकार करेगा कि उसकी जमीन पर संरक्षित व संचालित हो रहा आतंकवाद अब उसे स्वीकार्य नहीं है क्योंकि इसका उसे भी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। साथ ही इमरान का यह मानना भी महत्वपूर्ण है कि कश्मीर मसले का हल जंग के मैदान से नहीं निकल सकता बल्कि अमन की राह बातचीत के माध्यम से ही निकलेगी। इतना ही नहीं बल्कि हाफिज सईद और दाउद इब्राहिम को विरासत में मिली समस्या बताना भी यही इशारा कर रहा है कि कहीं ना कहीं अब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भी अपने क्रिकेटर दोस्त शाहिद अफरीदी की उस बात से पूरी तरह इत्तफाक रखते हैं कि जो मुल्क अपने-आप को नहीं संभाल सकता वह कश्मीर को क्या खाक संभाल पाएगा। यानि समग्रता में देखें तो पाकिस्तान ने वह राह पकड़ने का इरादा दर्शाना शुरू कर दिया है जिसकी भारत व अमेरिका सरीखे देश उससे अपेक्षा करते हैं। लेकिन सवाल है कथनी और करनी के अंतर का। वैसे भी इमरान ने अपने कार्यकाल के शुरूआत से ही जिस तरह के फैसले किये हैं और जिस दिशा में अपने मुल्क को आगे बढ़ाने की पहल की है उसमें साफगोई कम और नौटंकी ही ज्यादा दिखाई पड़ती है। यह नौटंकी दिखावा करके दुनिया को भरमाने के लिये नहीं है तो उन्होंने करतारपुर काॅरिडोर के शिलान्यास समारोह में खलिस्तानी चरमपंथियों में गिने जानेवाले गोपाल चावला को शामिल होने की इजाजत कैसे और क्यों दी? क्यों उन्होंने करतारपुर पर दोस्ती का पैगाम देने के बाद बदले में कश्मीर का मसला हल किये जाने की मांग को सर्वोच्च प्राथमिकता दी? क्यों उन्होंने अब तक हाफिज सईद को अमेरिका या भारत के हवाले करने अथवा उसे उसके करतूतों की सजा दिलाने की दिशा में कोई पहलकदमी नहीं की है? क्यों उन्होंने अब तक यही नहीं माना है कि विरासत में मिली दाउद इब्राहिम की सिरदर्दी को पाकिस्तान में पनाह मिली हुई है और अब उसे भारत के हवाले कर दिया जाएगा। सच पूछा जाए तो ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब नहीं मिलने के कारण ही भारत को अपनी मौजूदा पाकिस्तान नीति में रत्ती भर भी बदलाव करने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है। बल्कि इसे इस तरीके से भी समझा जा सकता है कि कहीं ना कहीं भारत द्वारा बनाए गए कूटनीतिक दबाव व बहिष्कार की नीति पर किये जा रहे अमल का ही नतीजा है कि दिखावे की खातिर ही सही मगर कम से कम पाकिस्तान को ऐसी बातें कहने के लिये विवश होना पड़ रहा है जिस पर अमल किये जाने की उससे अपेक्षा है। यह दबाव केवल भारत का ही नहीं है बल्कि पाकिस्तान पर हर तरफ से जोरदार दबाव पड़ रहा है। सबसे बड़ा दबाव उसकी अपनी अर्थव्यवस्था का है जिसे संभालने के लिये उसे विश्व बिरादरी से मोटी रकम भी चाहिये और पुराने कर्जों की माफी की भी दरकार है। लेकिन आतंकवाद के संरक्षक के तौर पर बेनकाब हो जाने के बाद अब ना तो उसे आईएमएफ की ओर से नया कर्ज मिल पा रहा है और ना ही पहले की तरह अमेरिका से खैरात मिल रही है। उल्टा पुराने कर्जों का ब्याज अदा करने के लिये उसे चीन से मोटे ब्याज दर पर नया कर्ज लेना पड़ा है जिसकी अपने दम पर अदायगी कर पाना उसके बूते की बात ही नहीं है। ऐसे में आतंकवाद को संरक्षण देने की जो कीमत उसे चुकानी पड़ रही है उसे बर्दाश्त कर पाना उसके लिये कतई संभव नहीं है। लिहाजा अब जरूरत है उसे अपनी छवि बदलने की ताकि विश्व बिरादरी में उसकी स्वीकार्यता बढ़ सके। इसके लिये उसे सबसे पहले भारत से संबंध सुधारना होगा क्योंकि भारत ही इकलौता देश है जिसके साथ संबंध सुधार कर वह अपनी मौजूदा दुर्दशा से मुक्ति पा सकता है। वर्ना चीन के साथ नजदीकी बढ़ाने का नतीजा उसे बेहतर समझ में आने लगा है जो अपनी विस्तारवादी नीतियों को अमली जामा पहनाते हुए पाकिस्तान को अपना जरखरीद उपनिवेश बनाने की राह पर लगातार आगे बढ़ रहा है। ऐसे में पाकिस्तान के पास भारत के साथ संबंध सुधारने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। लेकिन भारत की ओर से हर मामले में टका सा जवाब मिलने के बाद अब पाकिस्तान की मजबूरी हो गयी है कि वह अपनी पुरानी गलतियों को दुरूस्त करे। यह केवल कहने से नहीं होगा। कहने और सुनने का मौका तो पाकिस्तान ने काफी पहले ही गंवा दिया है। रहा सवाल इमरान की उस बात का कि तमाम समस्याएं उन्हें विरासत में मिली हैं तो विरासत में तो उन्हें पाकिस्तान की सत्ता भी मिली है। सत्ता के साथ जुड़ी समस्याएं तो उन्हें संभालनी ही होंगी। वैसे भी बात इमरान के साथ किसी के व्यक्तिगत रिश्तों की नहीं है बल्कि मसला दो मुल्कों का है। आज इमरान है तो उनसे अपेक्षा की जा रही है कि वे वहां के हालातों को दुरूस्त करें और कल वहां की जनता किसी और को चुनेगी तो उससे यही अपेक्षा होगी। इमरान के लिये कोई अलग नीति कैसे बनाई जा सकती है। नीति तो पाकिस्तान को लेकर ही बनेगी और उसकी दिशा बीते वक्त के अनुभवों और वर्तमान की हकीकतों के आधार पर ही तय होगी। लिहाजा अगर वे बीती गलतियों को सुधारना चाहते हैं और नई इबारत लिखना चाहते हैं तो अपेक्षित है कि वे वर्तमान में कथनी के सहारे बरगलाने की कोशिश ना करें बल्कि करनी से विश्वास बहाली का इमानदार प्रयास करें। वर्ना हर तरह से पाकिस्तान का बहिष्कार किये जाने के अलावा भारत के पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। अगर वे इस मुगालते में हैं कि भारत में चुनाव के बाद बननेवाली सरकार कोई नई पाकिस्तान नीति बनाएगी तो इसे उनकी नासमझी ही मानी जाएगी क्योंकि विदेश नीति पूरे देश की आम सहमति से तय होती है और सरकार किसी की भी क्यों ना बने नीतियों में बदलाव चेहरा बदलने से नहीं हो सकता। वह तभी होगा जब इमरान भारत के प्रति पाकिस्तान की नीति को सुधारेंगे और बदमाशी व खुराफाती से तौबा करेंगे।