सांप्रदायिकता के डंडे में विकास का झंडा






भाजपा और उसकी मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लेकर संघ परिवार की तमाम शाखाएं जिस तरह से इन दिनों राम मंदिर मसले को तूल देने में जुटी हुई हैं उसे देखते हुए कई तरह के सवाल खड़े होने लगे हैं। पहला सबसे बड़ा सवाल है कि अगर चुनावी वर्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति अपनानी पड़ रही है तो आखिर बीते साढ़े चार सालों तक मोदी सरकार ने काम क्या किया? काम का सवाल उठेगा तो तुलना भी होगी और चर्चा होगी मोदी सरकार के कार्यकाल की कांग्रेस के कार्यकाल से। क्योंकि आमने सामने का मुकाबला आखिरकार भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होना है। यह बात कांग्रेस को शायद ही रास आए क्योंकि कांग्रेस ने पचास साल के कार्यकाल में कई क्षेत्रों में जितना काम नहीं किया उससे अधिक काम बीते साढ़े चार सालों में हो चुका है। बात चाहे आम लोगों का बैकों में खाता खुलवाने की करें या लोगों को रसोई गैस की सुविधा मुहैया कराने की। वंचित इलाकों को बिजली से जोड़ने और चैबीसों घंटे बिजली पाने का अधिकार पाने की दिशा में आगे बढ़ने की बात हो या आयुष्मान योजना के तहत पचास करोड़ लोगों को पांच लाख का स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराने की बात हो। खेती के लिये खाद की आवश्यकता से अधिक उपलब्धता सुनिश्चित कराने की बात हो या नदी मार्ग को परिवहन का मुख्य जरिया बनाने की बात हो। थोक के भाव में शिक्षण संस्थानों और तकनीकी शिक्षा के प्रचार प्रसार की बात हो या आम लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की। आर्थिक तौर पर विश्व का छठा सबसे मजबूत देश बनाने से लेकर खाद्यान्न व दलहन-तिलहन में देश की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने की बात हो। हर दिशा में देश ने जिस तेजी से तरक्की की राहों का सफर बीते साढ़े चार सालों में तय किया है उस अनुपात में कांग्रेस के पचास साल के शासनकाल में विकास की रफ्तार बेहद ही सुस्त रही। स्थिति यह है कि मोदी सरकार ने अपने शासनकाल में किसी ना किसी योजना से देश के बाईस करोड़ से अधिक परिवारों को सीधे तौर पर छुआ है। सच पूछा जाए तो प्रधानमंत्री मोदी से साढ़े चार साल के कामकाज का हिसाब मांगने वाले इस तथ्य को तुलना के तौर पर सामने नहीं रख रहे हैं कि इस देश में प्रधानमंत्री के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 16 वर्ष 286 दिन तक, इंदिरा गांधी ने 15 वर्ष और 360 दिन, राजीव गांधी ने 5 वर्ष 32 दिन प्रधानमंत्री के तौर पर देश पर प्रत्यक्ष तौर पर शासन किया और डाॅ मनमोहन सिंह जी ने 10 वर्ष 4 दिन तक शासन किया जिसे गांधी परिवार के परोक्ष शासन के तौर पर ही देखा जाना उचित होगा। इसके अलावा लालबहादुर शाष्त्री, गुलजारी लाल नंदा और नरसिम्हा राव के शासन को अलग भी कर दें तो गांधी-नेहरू परिवार ने देश पर तकरीबन 48 साल से अधिक शासन किया। लिहाजा अब उसी परिवार के राहुल गांधी अगर प्रधानमंत्री पद के लिये दावेदारी पेश कर रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती देने के लिये आगे आए हैं तो उन्हें अपने पूर्वजों के काम का हिसाब भी देना होगा और यह साबित करना होगा कि गांधी परिवार का काम मोदी से बेहतर था। जाहिर है कि यह कर पाना उनके लिये नामुमकिन है। नतीजन कांग्रेस को भी बेहतर लग रहा है कि मामला सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर ही मुड़े। तभी भाजपा को उकसाने के लिये गाय से लेकर मंदिर तक के मसले को छेड़ने और कुरेदने से कांग्रेसी परहेज नहीं बरत रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा और इसके साथियों व सहयोगियों की समस्या है कि हिन्दूवादी छवि के बिना इनके लिये पहचान का संकट हो जाता है और खास तौर से राम मंदिर के मसले को ये किसी भी सूरत में किसी अन्य के हाथों में नहीं जाने दे सकते हैं। इसलिये संघ प्रमुख से लेकर विहिप और भाजपा के कई नेता भी मंदिर मसले को हवा देने की जी-तोड़ कोशिशों में जुटे हैं। जबकि यह सबको पता है कि इस मसले पर संसद से कानून बनाना कतई संभव ही नहीं है। आखिर एक धर्मनिरपेक्ष देश की संसद से किसी खास धर्म का मंदिर बनवाने के लिये कानून कैसे पारित कराया जा सकता है। यह विचार ही ना तो सैद्धांतिक तौर पर सही है और ना ही व्यावहारिक तौर पर उचित। लेकिन मसला है कि अगर मसले को सुलगाने के लिये इस तरह की बातें ना करें तो मुद्दा हाथों से फिसलने का डर है। लिहाजा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के डंडे में विकास का झंडा लहराना भाजपा की विवशता है। इस विवशता का ही नतीजा है कि जिस मोदी सरकार ने तकरीबन 139 बड़ी योजनाओं के सहारे देश के साढ़े बाईस करोड़ परिवारों को सीधे तौर पर लाभान्वित किया है, जिसकी पार्टी के दस करोड़ से अधिक प्राथमिक सक्रिय सदस्य हैं और जिसने महज सत्रह करोड़ वोट पाकर ही बीते लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत से दस सीटें अधिक हासिल कर ली थीं उसे विकास और ध्रुवीकरण के मसले के बीच संतुलन बनाने के लिये विवश होना पड़ रहा है। हालांकि संतुलन की यह राह बेहद ही कठिन है क्योंकि पार्टी को बेहतर पता है कि हिन्दुत्व के मुद्दे को कितना ही धार क्यों ना दे दिया जाये लेकिन अकेले इसके दम पर केन्द्र की सत्ता में वापसी कर पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है। अगर ऐसा होना संभव होता तो बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा के अच्छे दिन आ गए होते अथवा मंदिर मसले के सबसे बड़े धुरंधर खिलाड़ी माने जानेवाले लालकृष्ण आडवाणी को जब 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया गया था तब ही भाजपा की सरकार बन चुकी होती। लेकिन ऐसा तब हुआ जब मोदी के रूप में भाजपा ने विकास औश्र अच्छे दिनों का तानाबाना बुना। मोदी ने पूरे लोकसभा चुनाव में एक बार भी ना तो हिन्दुत्व की कोई बात की और ना ही कभी जय श्रीराम का नारा बुलंद किया। यहां तक कि प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अब तक अयोध्या की धरती पर कदम रखना भी गवारा नहीं किया और अनवरत विकास के काम में जुटे रहे। ऐसे में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सियासत को धार देना भाजपा की मजबूरी ही है और हिन्दुत्व के डंडे में लगाकर विकास का झंडा लहराने के अलावा भाजपा के पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है।