कराहते रिश्ते





मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है समाज में रहकर एक दूसरे के सुख दुःख में सम्मिलित होना मनुष्य का फर्ज है। भारतीय सँस्कृति यही सिखाती है।जब कोई मेहमान घर आता है तो मेहमान की अच्छे से आवभगत करना भारतीय सँस्कृति है।क्यों कि कहा भी गया है :अतिथि देवो भव। मानव जीवन आध्यात्मिकता एवम सामाजिकता पर आधारित है। चाहे जिस धर्म का ब्यक्ति घर आने पर उसका सम्मान किया जाता है।यही हमारी सँस्कृति है और  यही परम्पराएं आने वाली पीढ़ी से भी आशा की जाती है। समाज और परिवार में मानवीय रिश्तों का उतना ही  मूल्य है जितना कि एक मकान का निर्माण करने में मजबूत नींव का होता है। चाहे समाज हो या परिवार दोनों में अनुशाशन अति आवश्यक है ।तभी जीवन अच्छे से आगे बढ़ता है।बचपन से मिले  अच्छे संस्कार ही सभ्य समाज का अंग बनाते हैं जो ब्यक्ति संस्कारों का पालन नहीं करता वह नर होकर भी पशुता की श्रेणी में आ जाते हैं।क्योंकि यह संस्कार ही इन्द्रिय संयम का पाठ पढ़ाते हैं। आज समाज इक्कीसवीं सदी में पहुंच चुका है निश्चित तौर पर वैचारिक क्रांति की सदी है ।परंतु संचार साधनों की सुलभता ने जहाँ मानव को मानव से जोडकर रखा है वहीं पर रिश्तों को कमजोर भी किया है । क्यों कि किसी को किसी के पास जाने का समय नहीं है । नैतिक मूल्यों का पतन भी हुआ है। रिश्ते ब्यापार बनते जा रहे हैं।स्वार्थयुक्त सोंच मनुष्य को मनुष्य से दूर कर रही है। एकाकी परिवार का चलन संयुक्त परिवार का विघटन आने वाली पीढ़ी को सही मार्गदर्शन करने का समय ही नहीं दे पा रही है।जिससे बच्चे एवम युवा दिग्भ्रमित हो रहे हैं।सबसे ज्यादा दुखदायी प्रौढ़ावस्था हो रही है प्रौढ़ वर्ग  अपने आप को अकेला महसूस कर रहे हैं । उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है । मजबूरी में बृद्धाश्रम की ओर रहे उन्मुख हो रहे हैं या फिर जिल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर हैं ।मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है न अपनों के लिए समय है न ही परायों के लिए।यह स्थित अत्यंत दयनीय होती जा रही है ।भौतिकता की चकाचौंध ने मनुष्य का जीवन केवल धनोपार्जन तक सीमित कर दिया है जहाँ पर मानवीय रिश्तों के लिए कोई समय ही नहीं बचा ।