गरीबी का टूटता फंदा

पैसा बेशक खुदा नहीं है लेकिन खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं है। यह कहा था छत्तीसगढ़ के एक राजनेता दिलीप सिंह जुदेव ने। ऐसा कहने के बाद वे बड़े पैमाने पर आलोचना का शिकार भी हुए। लेकिन उनकी कही बात को अगर व्यावहारिकता के आईने में देखें तो उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा था। सच तो यही है कि इस संसार में हर चीज का विकल्प उपलब्ध है लेकिन पैसे का कोई विकल्प नहीं है। खास तौर से समाज के उस वर्ग के लिये तो पैसा खुदा के बराबर है जिसे रोज कुआं खोदना होता है अपनी और अपने अपनों की भूख-प्यास मिटाने के लिये। उस वर्ग का काम एक दिन के लिये खुदा के बिना तो चल जाएगा लेकिन पैसे के बिना नहीं चल पाएगा क्योंकि पैसा आने पर ही वह अपने परिवार का पेट भरने के लिये आटा-नमक का जुगाड़ कर पाएगा। उस वर्ग को कोई मतलब नहीं है कि सरकार किसकी बन रही है और देश पर किसका शासन है। उसे तो चांद में भी रोटी ही दिखाई देती है। कहने को यह सब सुनने में बेहद कड़वा लग सकता है लेकिन यह हमारे आस पास के समाज की वह हकीकत है कि जिसकी ओर से सभ्य व संभ्रांत समाज ने हमेशा आंखें मूंदे रखी है। नतीजन ऐसे वर्ग के लोगों की तादाद लगातार बढ़ती गई और यह देश की कुल आबादी के बीस फीसदी से भी ज्यादा हो गई। समाज में अमीर औश्र गरीब के बीच बढ़ती खाई ने अमीरों को लगातार अमीर बनाया जबकि निर्धन के लिये उसकी गरीबी अभिशाप बनी रही। वह गरीबी ऐसे दुष्चक्र की तरह उसे घेरे रही कि वह चाह कर भी उससे बाहर नहीं आ सका। चुंकि पैसा नहीं था इसलिये वह अपने बच्चों को तालीम नहीं दे सका। समाज की मुख्यधारा से कटे हुए ये लोग ना तो अपनी सेहत पर समुचित खर्च करने में सक्षम थे और ना ही खान-पान पर। रहने को घर नहीं और सोने को बिस्तर नहीं। जहां जगह मिली वहीं रात काट ली। रखने या बचाने की बात दूर रही बल्कि रोजाना दो जून का खाना भी नसीब हो जाए तो वही भाग्य की बात। आलम यह था कि महज 135 रूपया प्रतिदिन से भी कम की आमदनी में गुजारा करनेवाले लोगों की तादाद वर्ष 2011 में देश में 26 करोड़ तक पहुंच चुकी थी। यह आंकड़ा दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था और लगातार बढ़ती महंगाई के कारण अगर उनकी आमदनी में टके-दो टके का इजाफा भी हो जाता था तो हालात बदस्तूर बदतर ही बनते चले जा रहे थे। लेकिन सौभाग्य से वह तस्वीर अब काफी हद तक बदली है। इस बदली हुई तस्वीर की तस्दीक भारत सरकार के आंकड़े भी कर रहे हैं और आर्थिक रूप से समाज के सबसे निचले पायदान पर जीवन यापन करनेवाले लोगों की तादाद में कमी आने को लेकर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा जारी किये गये आंकड़ों ने भी यह उम्मीद जगाई है कि वाकई जमीनी स्तर पर बदलाव आ रहा है। खास तौर से वल्र्ड डाटा लैब और ग्लोबल डायमेंशनल पाॅवर्टी इन्डेक्स सरीखी प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत में अति निर्धन लोगों की तादाद में आई कमी के बारे में जो आंकड़े दिये गये हैं उसे कतई नकारा नहीं जा सकता है। आखिर यह बदली हुई तस्वीर का ही असर है कि गरीबी उन्मूलन की दिशा में भारत को मिल रही सफलताओं की सार्वजनिक तौर पर तारीफ करने में अमेरिका के राष्ट्रपति डाॅनल्ड ट्रंप से लेकर संयुक्त राष्ट्र भी कोताही नहीं बरत रहा है। वाकई यह बहुत ही सुकूनदायक तथ्य है कि प्रतिदिन 135 रूपया तक कमाने वाले लोगों की संख्या में बीते सात सालों में 21 करोड़ की कमी आई है और समाज के इन सबसे कम आयवर्ग के लोगों की तादाद वर्ष 2011 के 26 करोड़ से घटकर अब सिर्फ पांच करोड़ रह गई है। यानि जहां वर्ष 2011 तक 26 करोड़ लोगों को अधिकतम 135 रूपया रोजाना ही नसीब हो पा रहा था वहीं उनमें से 21 करोड़ लोगों के लिये आज की तारीख में यह न्यूनतम आया है। याद रहे कि यह वहीं आय है जिसे गरीबी की रेखा के नाम से जाना जाता है। इस लिहाज से देखें तो अब गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करनेवालों की तादाद देश में केवल पांच करोड़ ही रह गई है। रिपोर्ट में यह उम्मीद भी जताई गई है कि अगर विकास की मौजूदा रफ्तार बदस्तूर बरकरार रही तो वर्ष 2022 तक गरीबी रेखा के नीचे जीपन बसर करनेवालों की संख्या भारत में तीन करोड़ रह जाएगी और अगले दस सालों में कोई भी ऐसा भारतवासी नहीं बचेगा जिसे गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने के लिये मजबूर होना पड़े। आंकड़ों की मानें तो आज औसतन 44 लोग प्रति मिनट गरीबी रेखा से बाहर आ रहे हैं। यानि इस उपलब्धि को कम करके तो कतई नहीं आंका जा सकता है। लेकिन सवाल वही है कि आखिर गरीबी रेखा से एक पायदान ऊपर उठ जाना ही काफी है क्या? समाज में गैर-बराबरी का जो आलम है उसमें नब्बे फीसदी लोगों को देश के दस फीसदी संसाधनों पर गुजारा करना पड़ रहा है जबकि दस फीसदी लोगों का देश के नब्बे फीसदी संसाधनों पर कब्जा है। आखिर इस अंतर को जब तक पाटी नहीं जाता और संसाधनों का समुचित अनुपात में वितरण सुनिश्चित नहीं होता तब तक कैसे कह सकते हैं कि लोगों के जीवन में खुशहाली बढ़ रही है। आज भी विश्व में सबसे अधिक भूखे लोग भारत में ही रहते हैं। आज समाज जिस बदलाव के दौर से गुजर रहा है उसमें एक न्यूनतम आमदनी की बात तो तय हो रही है लेकिन अधिकतम पर कोई पाबंदी नहीं है। समाज की सबसे बड़ी आबादी में जो आर्थिक स्तर पर बराबरी का माहौल था वह कल तक मध्यम वर्ग कहलाता था जबकि उसके स्तर को अब संसाधनों के असंतुलित बंटवारे और रोजगार के घटते मौके ने निम्नवर्ग की ओर खिसकाना आरंभ कर दिया है। जबकि निम्न वर्ग का गरीबी रेखा से ऊपर उठना यह दर्शाता है कि वह बड़ी तेजी से मध्य आय वर्ग में शामिल होने की ओर अग्रसर है। ऐसे सूरतेहाल में अब जिम्मेवारी शासन की है कि वह मध्य वर्ग बदस्तूर दोहन-शोषण करके उच्च व निम्न वर्ग के लिये नीतियां तय करने की परंपरा में बदलाव करे और मध्यवर्ग के हितों को केन्द्र में रखकर नीतियां बनाए। वर्ना समाज में संतुलन की डोर कमजोर पड़ने के नतीजे में अराजकता की स्थिति उत्पन्न होने में देर नहीं लगेगी।