सच से बच रही है सरकार?






सरकार के वादों और दावों से अलग हटकर अगर जमीनी सच्चाई को परखें तो इस बात में कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि देश में जिस गति से विकास की गाड़ी दौड़ रही है उसका सीधा व पूरा लाभ आम लोगों को नहीं मिल पा रहा है। खास तौर से रोजगार सृजन के मामले में तो यह जाॅबलेस ग्रोथ ही दिखाई पड़ता है। लेकिन सरकार इस सच को स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं है। सरकार ने तो नोटबंदी के बाद की भयावह स्थितियों में भी आम जनता के दर्द को मानने या पहचानने से इनकार कर दिया था। लेकिन सत्य की एक फितरत होती है कि वह अनंत काल तक दबा-छिपा नहीं रह सकता है। समय के साथ सत्य सामने आ ही जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ है रोजगार के मामले को लेकर। सरकार के तमाम दावों की पोल अब पूरी तरह खुलती दिखाई पड़ रही है। सरकार के ढ़ोल की पोल खोलने का काम किया है राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (एनएससी) के दो गैर आधिकारिक सदस्यों कार्यकारी अध्यक्ष पी सी मोहनन और जे वी मीनाक्षी ने अपने पद से त्यागपत्र देकर। बताया जाता है कि आयोग के इन दोनों सदस्यों ने श्रम बल सर्वेक्षण परिणामों और जीडीपी की बैक सीरीज को जारी करने सहित आयोग के कामकाज पर चिंताएं व्यक्त करते हुए इस्तीफा दिया है। मोहनन और मीनाक्षी, जिनका कार्यकाल जून 2020 में समाप्त होना था, उनके इस्तीफे की तात्कालिक वजह रही एनएसएसओ के घरेलू सर्वेक्षण की पहली सीरीज की रिपोर्ट जारी करने में देरी। इसे 2017-18 का पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएसओ) कहा जाता है। एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रही जो पिछले 45 वर्षों के दौरान उच्चतम स्तर है। यानि वादा था हर साल 2 करोड़ नौकरियों का, पर सरकार ने नौकरियां खत्म करने का रिकॉर्ड बना दिया। हालांकि सरकार की ओर से इस्तीफे की इन वजहों को दबाने, छिपाने व झुठलाने की भरसक कोशिश की गई। इसी के तहत एनएससी द्वारा अपनी ओर से सफाई पेश करने के क्रम में जारी किये गए औपचारिक विज्ञप्ति में बताया गया कि पिछले कुछ महीनों में आयोग की किसी भी बैठक में सदस्यों द्वारा इस प्रकार की चिंताएं व्यक्त नहीं की गई थी। हालांकि यह एनएसी की थोथी दलील ही है वर्ना जिस विज्ञप्ति में इन दोनों सदस्यों के इस्तीफे की कथित असली वजहों का खंडन किया गया उसमें ही रोजगार के आंकड़े को लेकर गोलमोल बातें करते हुए वास्तविकता को उलझाने और झुठलाने की कोशिश हर्गिज नहीं की जाती। मसलन बताया गया कि मीडिया में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के जरिए मंत्रालय द्वारा कराए गए श्रम बल सर्वेक्षण के संदर्भ में कुछ चिंताएं उठाई गई है जिन्हें आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) को रोजगार और बेरोजगारी के बारे में श्रम बल के वार्षिक अनुमान के साथ शहरी इलाकों के लिए तिमाही अनुमान प्राप्त करने के लिए तैयार किया गया है। एनएसएसओ जुलाई, 2017 से दिसंबर, 2018 की अवधि के लिए तिमाही आंकड़े तैयार कर रहा है और रिपोर्ट उसके बाद जारी की जाएगी। यानि सीधी भाषा में समझने की कोशिश करें तो यही पता चलता है कि बीते 45 सालों की तुलना में नोटबंदी के बाद बेरोजगारी में सबसे अधिक उछाल आया है और इसने साढ़े चार दशक के सभी रिकार्डों को ध्वस्त कर दिया है। इस तथ्य को जानता तो एनएसी भी है क्योंकि यह रिपोर्ट उसके द्वारा कराए गए सर्वे के आधार पर ही सामने आने की बात कही जा रही है। लेकिन मजाल है कि वह या सांख्यकीय विभाग अथवा भारत सरकार इस सत्य को सीधे तौर पर स्वीकार कर ले। यही वजह है कि बीते सालों के आंकड़ों के साथ तुलनात्मक प्रस्तुति करने से परहेज बरता जा रहा है और अभी इसे तमाम लीपापोती के दौर से गुजारा जा रहा है। तभी तो कहा गया है कि भारत के मजबूत जनसांख्यिकीय अंश और करीब 93 प्रतिशत अनौपचारिक कार्यबल को ध्यान में रखते हुए, यह महत्वपूर्ण है कि प्रशासनिक सांख्यिकी के जरिए रोजगार के उपायों में सुधार किया जाए और आवधिक सर्वेक्षणों द्वारा उसे पूर्ण किया गया। इस दिशा में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने बड़ी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं जैसे कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ), कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) योजना और राष्ट्रीय पेंशन योजना (एनपीएस) में शामिल कर नए ग्राहकोंध्सदस्यों के अनुमानों को लाना शुरू किया। इन योजनाओं में शामिल नए सदस्य औपचारिक रूप देने की दिशा में बढ़ रहे कार्यबल की संख्या में बारे में एक अच्छा पैमाना है। लेकिन आयोग अथवा सरकार की ओर से कुछ भी क्यों ना कहा जाए मगर इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता है कि देश में रोजगार सृजन के अवसर लगातार कम हुए हैं और बेरोजगारी बढ़ी है। यहां तक कि खेती को मुनाफे का धंधा बनाने की तमाम कोशिशों में बावजूद कृषि क्षेत्र में भी रोजगार के अवसर नहीं बन पा रहे हैं और युवा वर्ग इससे कटता जा रहा है। यह बात रिपोर्ट के लीक हिस्से से हुए खुलासे में भी सामने आई है कि बेरोजगारी गांवों में भी बढ़ी है और शहरों में भी। पढ़े-लिखे तबके में भी बढ़ी है और अनपढ़ों व अकुशलों में भी। यानि हर साल दो करोड़ रोजगार सृजन के माध्यम से अच्छे दिन आने का जो भरोसा दिलाया गया था उस मोर्चे पर तो सरकार पूरी तरह विफल ही रही है। लेकिन इससे भी अधिक दुखद बात यह है कि इस मोर्चे पर हासिल विफलता के आंकड़ों की सच्चाई को यथारूप में स्वीकार करना भी गवारा नहीं किया जा रहा है। तभी तो कांग्रेस ने नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों का हवाला देते हुए यह दावा किया है कि बेरोजगारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज्यादा होने से जुड़े आंकड़े सरकार छिपा रही है और इसी वजह से राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो स्वतन्त्र सदस्यों को इस्तीफा देना पड़ा। ये इस्तीफे इस बात को लेकर कई सवाल पैदा करते हैं कि सरकार असहज करने वाले आर्थिक आंकड़ों को लेकर कैसा बरताव करती है। एनएससी एक स्वायत्त संस्था है जिसका गठन 2006 में किया गया था। उसका काम है सांख्यिकी से जुड़े मामलों में नीतियां तैयार करना, प्राथमिकता तय करना और मानक निर्धारित करना। एनएससी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान (एनएसएसओ) द्वारा तैयार की गई सांख्यिकीय रिपोर्ट को भी स्वीकृत करता है। एनएससी में अब केवल दो ही कार्यकारी सदस्य रह गए हैं जबकि इसमें सात सदस्यों की व्यवस्था है। इन इस्तीफों से भी पहले दो सदस्यों के पद खाली थे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इन इस्तीफों के बाद अब एनएससी प्रभावी तौर पर एक निष्क्रिय संस्थान में तब्दील हो गया है। वह भी सिर्फ इसलिये ताकि सरकार को आंकड़ों के मामले में असहजता का सामना ना करना पड़े।