घाटी जाफरानी (कविता)





 


बढ़ी इस कदर समस्या,कोई भी हल ना पाऊँ,

मैं घाटी जाफरानी,खुद भी बहल ना पाऊँ  ।

नासूर बन गया है , मेरा  वजूद  क्यूँ  कर ,

यूँ जख्म बढ़ ना जाए,कि फिर सम्हल ना पाऊँ।

फूलों सा बदन है मेरा, राहों  बिछे  हैं  काँटे ,

कितने कदम बचाऊँ, फिर भी निकल ना पाऊँ।

क्यूँ दहशतों के साये, मेरे  ज़हन  में  समाए ,

अपने ही बाजुओं से,कहीं मैं फिसल ना जाऊँ।

मायूसियों की चादर,यूँ मुझपे ना फैल जाए ,

कोई कह दे किरण सुबह की,कि मैं अब निकल ना पाऊँ।

ये सियासतों की कालिख,यूँ पुत ना जाए मुझ पर,

फिर कोशिशों से कितनी,भी  मैं बदल ना पाऊँ।

कुछ तो करो ऐ हाकिम,अब और कितना झेलूँ ,

इस इंतजार ए आलम में,कहीं मैं जल ना जाऊँ।

मैं घाटी जाफरानी ,खुद ही बहल ना पाऊँ ,

बढ़ी इस कदर समस्या,कोई भी हल ना पाऊँ।