अब विलंब केहि कारण कीजे?






पुलवामा में सुरक्षा बलों के काफिले पर हुए आत्मघाती हमले की वारदात को अब पूरा एक पखवाड़ा होने जा रहा  है। इतने दिनों में सरकार ने आतंकी हमले से उपजे आक्रोश का इजहार करते हुए कई कदम उठाए जिसमें पाकिस्तान पर आर्थिक प्रतिबंध लागू करना और कश्मीर घाटी में आतंकियों पर काल बन कर टूट पड़ना भी शामिल है। साथ ही वैश्विक स्तर पर भी भारत को बड़ी कूटनीतिक कामयाबी मिली है जिसके तहत पाकिस्तान पूरी तरह अलग-थलग पड़ गया है और दक्षिण कोरिया से लेकर चीन सरीखे उन देशों को भी लोकलाज के कारण भारत के पक्ष को जायज बताने के लिये विवश होना पड़ा है जिनके दम पर पाक का नेतृत्व विश्व राजनीति की दिशा मोड़ने के सपने देखा करता है।  भारत की सबसे बड़ी जीत संयुक्त राष्ट्र में हुई जहां सुरक्षा परिषद ने ना सिर्फ औपचारिक तौर पर पुलवामा हमले को लेकर निंदा प्रस्ताव पारित किया बल्कि आतंकवाद के खिलाफ सभी देशों से भारत का सहयोग करने की अपील भी की गई। लेकिन सवाल है कि आखिर इस सबका हासिल क्या है? क्या इतने से ही संतुष्ट हो जाया जाए और अपने दिल को तसल्ली दे दी जाए कि हमने पुलवामा हमले का बदला ले लिया। क्या यही उपलब्ध्यिां भारत का लक्ष्य हैं? अगर गहराई से परखें तो जिस तरह से भारत का राजनीतिक नेतृत्व लगातार पुलवामा हमले का पूरा हिसाब चुकाने की बात कह रहा है उससे इतना तो साफ है कि अभी वह लक्ष्य हासिल नहीं हुआ है जो भारत के हर खासो-आम को सुकून और तसल्ली दे सके। लेकिन जिस दिशा में हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने पहलकदमी की है उससे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि फिलहाल इस बात को लेकर पूरी तरह अनिर्णय की ही स्थिति है कि आखिर पुलवामा का बदला किस हद तक जाकर लिया जाए। पाकिस्तान ने भारत पर युद्धोन्माद का जो आरोप लगाया है उसका भारत की ओर से प्रतिकार किया जा चुका है और औपचारिक तौर पर यह बताया जा चुका है कि हमारी लड़ाई आतंकवाद से है, पाकिस्तान से नहीं। निश्चित ही यह बयान बेहद सारगर्भित भी है और इस सवाल को उलझानेवाला भी कि आखिर भारत चाहता क्या है। बेशक हमारे प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक यह बता चुके हों कि इस बार भारत चुप नहीं बैठेगा और पुलवामा के मामले को पहले की घटनाओं की तरह बर्दाश्त करके शांत नहीं हुआ जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी ने तो देश को बदला लिये जाने का विश्वास दिलाते हुए सार्वजनिक सभा में यहां तक कह दिया कि सेना के सामथ्र्य, सरकार की इच्छाशक्ति और मां भवानी के आशिर्वाद पर विश्वास रखा जाए कि इस बार पूरा हिसाब चुकता किया जाएगा। लेकिन लगे हाथों प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को यह प्रस्ताव देकर मामले को और उलझा दिया कि वे अपने वचन को पूरा करके दिखाएं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर प्रधानमंत्री चाहते क्या हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिका अथवा चीन के दबाव में आकर सरकार ने पाकिस्तान से पुलवामा हमले का सीधा, स्पष्ट और प्रत्यक्ष बदला लेने का इरादा छोड़ दिया है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के उस बयान से इस आशंका को बल मिल रहा है जिसमें उन्होंने यह तो माना था कि भारत कुछ बड़ा करने सोच रहा है लेकिन उन्होंने विश्व समुदाय को यह भी विश्वास दिलाया था कि वे लगातार भारत और पाक के संपर्क में है और इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि दोनों देशों को समझा-बुझा कर मामला शांत किया जाए। अगर यह आशंका सच साबित होती है तो निश्चित ही बेहद दुखद और निराशाजनक होगा। वैसे भी आतंक के खिलाफ लड़ाई की जो बात भारत की ओर से कही जा रही है वह तो लंबे समय से हम लड़ ही रहे हैं। कश्मीर में सेना को खुली छूट पहले से ही हासिल है और सरहद के भीतर आतंक का खात्मा करने का अभियान भी काफी पहले से चल रहा है जिसमें सैकड़ों आतंकी मारे जा चुके हैं। इसके अलावा सरहद पार के अतंकियों के लांचिंग पैड पर सर्जिकल स्ट्राइक भी पहले ही किया जा चुका है। लिहाजा इन सब बातों को अगर इस बार के बदले में गिनाया जाएगा तो यह निश्चित ही निराशाजनक होगा। इस बार तो सरहद के उस पार से आतंक का समूल नाश करने की ठोस कार्रवाई की दिल थाम कर पूरा देश प्रतीक्षा कर रहा है। निश्चित ही इसके लिये भारत को पाकिस्तान से टकराना ही होगा क्योंकि वह हर्गिज अपनी जमीन पर कार्रवाई करने की छूट भारत को नहीं दे सकता है। वह भी तब जबकि पाकिस्तान की ओर से अभी तक किसी भी बड़े नेता ने पुलवामा हमले की निंदा भी नहीं की है तो कैसे माना जाए कि उस बात में कोई सच्चाई है जिसके तहत इमरान खान भारत से एक आखिरी मोहलत मांगते दिखाई पड़ रहे हैं। निश्चित तौर पर पाकिस्तान की कोशिश तो यही रहेगी कि हर बार की तरह इस बार भी दिखावे की कुछ कार्रवाई करके भारत के गुस्से को शांत कर दिया जाए। लेकिन सवाल है कि इस दिखावे की कार्रवाई की हकीकत से ना सिर्फ पूरा विश्व बल्कि भारत का बच्चा-बच्चा भी अच्छी तरह अवगत है। ऐसे में जरूरत है किसी बड़ी और निर्णायक कार्रवाई की ताकि आतंक के नासूर से हमेशा के लिये निजात हासिल हो जाए। यह लक्ष्य बहुत बड़ा है लेकिन इस बार समूचा विश्व भारत के साथ है। खास तौर से पाकिस्तान का पड़ोसी इरान और अफगानिस्तान भी इस बात के इंतजार में है कि भारत की ओर से कोई पहल हो तो वे उसमें सहयोगी की भूमिका निभाएं। लेकिन इच्छाशक्ति तो भारत के राजनीतिक नेतृत्व को ही दिखानी होगी। हमारी लड़ाई में कोई दूसरा सिर्फ मददगार ही हो सकता है। हमारे बदले कोई दूसरा हमारी जंग नहीं लड़ेगा। इस हकीकत को भी समझना होगा कि इस बार भारत के हर खासो-आम की मोदी सरकार से बहुत उम्मीदें हैं। उन उम्मीदों को पूरा करने के लिये मोदी सरकार के पास समय भी आम चुनाव तक का ही है। अगर चुनाव से पहले वाकई कुछ बड़ा, ठोस व निर्णायक होता हुआ दिखा जिससे दिल को तसल्ली और सुकून मिले तो निश्चित ही मोदी सरकार की दोबारा सत्ता में वापसी को कोई ताकत नहीं रोक पाएगी। लेकिन अगर इसके उलट हुआ तो नतीजा भी उलट ही आएगा।