चिंता रमजान की या अपने दुकान की?







राजनीति में कब किस बात को लेकर बखेड़ा खड़ा हो जाए इसके बारे में कुछ भी कह पाना नामुमकिन होता है। बखेड़ा किसी महत्वपूर्ण मसले पर भी हो सकता है और बेमानी मसले पर भी। कई बार तो बेवकूफाना मसलों को लेकर भी बखेड़ा खड़ा हो जाता है। लेकिन सतही तौर पर जो मसले बेवकूफाना नजर आते हैं उनकी गहराई से पड़ताल की जाए तो उनको लेकर बखेड़ा खड़ा करने के पीछे का जो मकसद रहता है वह कतई बेवकूफाना या अहमकाना नहीं रहता। मिसाल के तौर पर अभी लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होने के बाद जो ताजा बखेड़ा खड़ा हुआ है वह सतही तौर पर तो बेवकूफाना ही कहा जाएगा। बखेड़ा इस बात को लेकर कि आखिर रमजान के महीने के दौरान मतदान क्यों कराया जा रहा है? लोकसभा चुनाव के लिये तय किये गये कार्यक्रम के बीच में ही रमजान का महीना पड़ने को लेकर अचानक ही सियासी बखेड़ा खड़ा हो गया है। जहां एक ओर टीएमसी व आप सरीखे कई विपक्षी दलों के नेताओं ने इस मामले को तूल देते हुए ना सिर्फ चुनाव आयोग की मंशा पर उंगली उठाने की कोशिश की है बल्कि रमजान के महीने में रोजेदारों को वोट के लिये लंबी कतारों में खड़े होने की समस्या का हवाला देते हुए चुनावी कार्यक्रम में बदलाव की मांग भी की है। वहीं दूसरी ओर सत्ताधारी भाजपा से लेकर सबसे बड़े मुस्लिम नेताओं में शुमार होनेवाले एआईएमआईएम सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी ने भी रमजान के दौरान मतदान के कार्यक्रम का खुल कर बचाव किया है। जहां एक ओर भाजपा का कहना है कि संभावित हार की हताशा के कारण इस तरह की बेसिर-पैर की बातें की जा रही हैं वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के सांसद ओवैसी की मानें तो जो लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं वे मुसलमानों को नहीं जानते हैं। ओवैसी का तो दावा है कि देश के मुसलमान रोजा भी रखेंगे और पूरे उत्साह के साथ मतदान में भी हिस्सा लेंगे। हालांकि इस बीच चुनाव आयोग ने इस मसले पर हो रहे विवाद को लेकर कहा है कि रमजान के दौरान पूरे महीने के लिये मतदान को टाला नहीं जा सकता है। चुनाव आयोग ने साफ किया है कि मतदान की तिथियां तय करते समय सिर्फ त्यौहारों का ही नहीं बल्कि शुक्रवार का भी ध्यान रखा गया है और उन दिनों में मतदान नहीं कराया जा रहा है। लेकिन मसला है कि बखेड़ा खड़ा करनेवाले चुनाव आयोग की बातें और दलीलें क्यों सुनें? उन्हें तो सिर्फ अपनी बात रखनी है। वह भी पूरे जोर-शोर से, चीख-चिल्लाकर। ताकि उनकी बातें समाज के उस तबके के कानों तक पहुंच जाए जिसे वे ऐसी बातें सुनाकर खुद को उसका सबसे बड़ा हितैषी व शुभचिंतक के तौर पर दर्शाना चाहते हैं। इस पूरे बखेड़े को खड़ा करने के लिये कई तथ्यों व दलीलों को भी आधार बनाया जा रहा है। मसलन कई मुस्लिम धर्मगुरूओं और विपक्षी दलों ने यह दलील दी है कि संभवतया पांच मई को रमजान का चांद देखा जाएगा और छह मई को पहला रोजा होगा। चुंकि रमजान के दौरान भयंकर गर्मी होगी ऐसे में रोजेदारों को वोट डालने के लिए घरों से निकलने में दिक्कत होगी जिससे वोट का प्रतिशत भी घटेगा। लिहाजा चुनाव आयोग को रोजेदारों को होनेवाली दिक्कतों का ख्याल रखते हुए मतदान की तिथियों में बदलाव कर देना चाहिये। जाहिर है कि ऐसी मांग महज दिखावे के लिये ही की जा रही है वर्ना अगर रमजान के महीने के दौरान मतदान करने में रोजेदारों को कोई दिक्कत होती या फिर रोजा रखकर मतदान करने के लिये कतार में खड़े हो पाना कोई मुश्किल काम होता तो कैराना लोकसभा के लिये हुए उपचुनाव में भाजपा को कतई हार का सामना नहीं करना पड़ता। लिहाजा तेज गर्मी के मौसम में रोजा रखकर मतदान करने को मुश्किल बतानेवालों को यह याद दिलाने की जरूरत है कि पिछले दिनों कैराना लोकसभा सीट के लिये हुए उपचुनाव का मतदान भी रमजान के महीने के दौरान ही हुआ था जिसमें तमाम रोजेदारों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सेदारी की थी और भाजपा को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। लिहाजा इस दलील को आगे रखकर अगर तयशुदा चुनावी कार्यक्रम में बदलाव की मांग की जाएगी तो इसे कैसे जायज कहा जा सकता है। वैसे भी चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव का जो कार्यक्रम घोषित किया है उस दौरान सिर्फ रमजान का महीना ही नहीं है बल्कि होली का त्यौहार भी है और चैत्र नवरात्र भी उसके बीच में ही है। निश्चित तौर पर चुनाव आयोग ने इस बात को पहले भी देखा है और उसके अनुसार ही चुनावी कार्यक्रम तय किया है। वैसे भी किसी बड़े त्यौहार के दिन मतदान का कार्यक्रम नहीं रखा गया है लेकिन रमजान या नवरात्र के दौरान मतदान नहीं कराने की कभी कोई परंपरा नहीं रही है। इन बातों को जानने के बावजूद अगर रोजेदारों को पेश आनेवाली काल्पनिक समस्याओं को तूल देकर रमजान के नाम पर राजनीति की कोशिश हो रही है तो यह तय समझा जाना चाहिये कि बखेड़ा रमजान के दौरान रोजेदार मुसलमान के लिये नहीं बल्कि सिर्फ अपनी दुकान के लिये खड़ा किया जा रहा है। यह दुकानदारी दोनों तरफ से हो रही है। बेशक शुरूआत रमजान के मसले को तूल देकर हुई हो लेकिन अब मांग चैत्र नवरात्र को लेकर भी उठ रही है। यानि समाज के दोनों पक्षों के मसीहा मैदान में आमने-सामने आ गए हैं। उनके हितों की लड़ाई लड़ने के लिये। हित भी ऐसा जिसके बारे में वास्तविक पक्षकार को पता ही नहीं है कि इसमें उसका कोई हित छिपा हुआ है। लेकिन बखेड़ा है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। लोगों को यह समझाना है कि लड़ाई उनके हित के लिये है। किसी को मुसलमान का हित दिख रहा है और किसी को हिन्दू का। लेकिन इन दोनों के बीच में छिपे अपने हित के बारे में कोई खुद से कैसे बता सकता है। लिहाजा इस बखेड़े के पीछे के मकसद को तो आम लोग खुद ही समझने की कोशिश करें तभी उसकी वास्तविकता समझ में आएगी। वर्ना मासूमों को बरगलाने के लिये ऐसे बखेड़े तो अभी रोजाना सामने आएंगे ही। आखिर मसला चुनाव का जो ठहरा।