पैंतरेबाजी का नया दौर






इस बार का पूरा चुनावी परिदृश्य हर लिहाज से पूरी तरह गड्डमगड दिखाई पड़ रहा है। किसी भी मामले में तस्वीर साफ ही नहीं हो रही है। ना तो चुनावी मुद्दों के मामले में कोई साफ तस्वीर उभर पा रही है और ना ही नेतृत्व के मसले पर। ना यह पता चल पा रहा है कि कौन किसको हराने के लिये चुनाव लड़ रहा है और ना ही इस बात की खबर लग पा रही है कि कौन किसकी जीत सुनिश्चित करने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है। हालांकि इतना तो तय है कि भाजपा विरोधियों के बीच जिस तरह की पैंतरेबाजी चल रही है उससे भाजपा की राहें आसान होने की उम्मीद काफी प्रबल हो गयी है। लेकिन यह पैंतरेबाजी जितना भाजपा को फायदा पहुंचाता हुआ नहीं दिख रहा है उससे कहीं अधिक विरोधियों को इसका नुकसान होने की संभावना दिख रही है। मसलन बिहार में महागठबंधन के कारण भाजपा की बढ़त पर अंकुश लगने की संभावना प्रबल दिख रही है और इसी बात को भांपते हुए भाजपा ने भी अपने सहयोगी दलों को औकात से अधिक सीटें देकर अपने पाले में बनाए रखने की पहल की है। वर्ना जिस भाजपा को बीते चुनाव में 22 सीटों पर जीत मिली थी वह इस बार महज सत्रह सीटों पर ही लड़ने के लिये हामी क्यों भरती। लेकिन जिस महागठबंधन के भौकाल ने बिहार में भाजपा के कुनबे की जान सांसत में डाली हुई है उस पर एक बार फिर अनिश्चितता के बादल मंडराते दिख रहे हैं। जीतनराम मांझी पहले से ही नाराज चल रहे हैं और अब कांग्रेस व राजद में भी नए सिरे से खींचतान की पैंतरेबाजी शुरू हो गई है। इसी प्रकार यूपी में भी अभी तक यह तय नहीं हो पाया कि कांग्रेस विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनेगी या नहीं। कभी नीम-नीम कभी शहद-शहद की तर्ज पर वहां सीटों को लेकर बात बनने-बिगड़ने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। सच पूछा जाये तो इस बार के चुनाव को लेकर सतही तौर पर दूर से देखने पर बेशक तमाम मुख्य बातें स्पष्ट नजर आ रही हैं। मसलन भाजपा की अगुवाई में राजग का पूरा कुनबा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है जबकि उनको सीधी टक्कर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मिल रही है। इसके अलावा सत्ता पक्ष की कोशिश है कि इस बार की चुनावी धारा को विकास और राष्ट्रवाद के दो किनारों के बीच से बहाई जाए और इसमें विपक्ष की पुरानी विफलताओं और उस पर लगे आरोपों का रंग दिल खोल कर घोला जाए ताकि चुनावी भवसागर को आसानी से पार करके सत्ता के शिखर पर अपनी पकड़ को पहले से भी अधिक मजबूत किया जा सके। दूसरी ओर विरोधियों की ख्वाहिश है कि चाहे जैसे भी हो मगर इस बार कतई भाजपा को दोबारा सरकार बनाने का मौका ना मिल सके। इसके लिये प्रधानमंत्री मोदी पर निजी हमला करना पड़े या सरकार की रीति-नीति पर सच्चे-झूठे सवालिया निशान लगाने पड़ें या फिर आम लोगों को बैठे-बिठाए नकद आमदनी उपलब्ध कराने का लालच देना पड़े। किसी भी तिकड़म से मौजूदा सियासी तस्वीर में तब्दीली लाने के लिये तमाम विपक्षी दल बुरी तरह आतुर हैं। नेतृत्व के मसले पर भी विपक्षियों के बीच आम राय है कि भाजपा-विरोधी खेमे के किसी भी नेता को चुनाव के बाद नेतृत्व की कमान थमाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है। चाहे एपी को आगे करना पड़े, आरजी को आगे लाना पड़े या एमबी या सीएन को या फिर किसी अन्य को। वह मसला चुनाव के बाद आपस में मिल बैठकर हल कर लेने का भरोसा हर किसी को है। अभी इस पचड़े को सुलझाने में उलझना किसी को गवारा नहीं है। फिलहाल तो बस सभी को इस दिशा में अपनी ऊर्जा झोंकनी है कि किसी भी तरह से मोदी को दोबारा सरकार बनाने का मौका ना मिल सके। यानि इतना तो तय है कि लक्ष्य सबका साझा है। लिहाजा अपेक्षित तो यह था कि साझे लक्ष्य को हासिल करने के लिये साझा प्रयास भी किया जाता। लेकिन बात आ गई नाक की। वैसे भी यूपी और पश्चिम बंगाल सरीखे सूबों में नाक की लड़ाई ही सबसे बड़ी होती है। अगर लड़ाई अस्तित्व की हो तब भी नाक बचाने को ही सबसे अधिक प्राथमिकता दी जाती है। अस्तित्व बचे ना बचे, कोई परवाह नहीं। नाक को नुकसान नहीं होना चाहिये और मूंछ नीची नहीं होनी चाहिये। तभी तो आजादी के बाद से लगातार सबसे अधिक प्रधानमंत्री देकर देश की राजनीति का नेतृत्व करनेवाले सूबे उत्तर प्रदेश में नाक का पेंच ऐसा फंसा कि मोदी विरोधियों ने साझा लक्ष्य को किनारे डालकर अपनी नाक ऊंची रखने की राह पकड़ ली। हालांकि सपा, बसपा और रालोद की इस तिकड़ी ने कांग्रेस के लिये अमेठी और रायबरेली की सीट अवश्य छोड़ दी ताकि कांग्रेस की नाक बची रहने की परंपरा कायम रहे। लेकिन इस पूरे टकराव में मामला यह साफ नहीं हो रहा है कि मोदी विरोधी पार्टियों की प्राथमिकता साझा लक्ष्य हासिल करना है अथवा एक-दूसरे को निपटाना। देश को सबसे अधिक सांसद देने और केन्द्र की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाले सूबे में नाक की लड़ाई ने वाकई पूरी तस्वीर को गड्डमगड करके रख दिया है। वैसे भी बीते आम चुनाव में महज 32 फीसदी वोट पाकर अगर भाजपा को बहुमत के जादूई आंकड़े से दस सीटें अधिक जीतकर मोदी की अगुवाई में केन्द्र में मजबूत सरकार बनाने का अवसर मिला तो उसकी वजह 68 फीसदी विरोधी वोटों का बिखराव ही था। ऐसे में अगर इस बार भी वोटों का बिखराव नहीं रूक सका तो भाजपा की दोबारा सत्ता में वापसी काफभ् हद तक तय ही है। वास्तव में देखा जाये तो डोकलाम में हुए आतंकी हमले का बालाकोट में बदला लिये जाने के बाद से देश की सियासी तस्वीर और मोदी सरकार की स्वीकार्यता में जादूई बदलाव आया है। उस पर तुर्रा यह कि चैकीदार चोर है के कांग्रेस के नारे के जवाब में जिस तरह से भाजपा ने मैं भी चैकीदार कैंपेन शुरू किया है उसकी आंधी का अकेले मुकाबला करना किसी भी विरोधी दल के लिये संभव ही नहीं है। लिहाजा अब यह विरोधियों को ही तय करना है कि आपस में नाक की लड़ाई लड़कर एक दूसरे को निपटा देना है या एकजुट होकर भाजपा को जोरदार टक्कर देने की व्युह रचना करनी है।