सियासत की सकारात्मक दिशा






राजनीति अगर आम लोगों से जुड़ जाए और उसे आम लोगों की भावनाओं व संवेदनाओं का एहसास हो जाए तो उसकी दिशा किस कदर सकारात्मक हो सकती है इसकी बानगी मौजूदा लोकसभा चुनाव में अब स्पष्ट तौर पर दिखने लगी है। बेशक सियासी स्वार्थसिद्धि के लिये ही आम लोगों के हितों की चिंता करने की होड़ क्यों ना शुरू हुई हो लेकिन यह होड़ सकारात्मक भी है और संवेदनशील व स्वागत योग्य भी। पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार के अंतरिम बजट में सीमांत किसानों के लिये सालाना छह हजार रूपये का बोनस दिये जाने की व्यवस्था की जिसकी पहली किश्त किसानों के खातों में भेजी भी जा चुकी है और अब मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने देश के गरीब व वंचित तबके के प्रति अपनी सहानुभूति व जिम्मेवारी का प्रदर्शन करते हुए एलान किया है कि अगर उसे केन्द्र में सरकार बनाने का मौका मिला तो वह देश के पांच करोड़ परिवारों के उन 25 करोड़ लोगों को न्यूनतम आमदनी योजना का लाभ देगी जिनकी आय 12 हजार रूपया मासिक से कम है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न्यूनतम आय सुनिश्चित करने की योजना का वायदा करते हुए कहा कि जिनकी आय 12 हजार से कम है उन्हें अधिकतम छह हजार मासिक और अधिकतम 72 हजार रूपया सालाना देकर सरकार द्वारा कमी की भरपाई कराई जाएगी। हालांकि राहुल की घोषणा के बाद सत्तारूढ़ भाजपा को मिर्ची लगनी स्वाभाविक ही थी। लिहाजा राहुल के ऐलान की हवा निकालने के लिये केन्द्रीय वित्तमंत्री अरूण जेटली सामने आए और उन्होंने इसे इंदिरा गांधी द्वारा दिये गये ‘गरीबी हटाओ’ के नारे सरीखा ही ब्लफ करार देते हुए विस्तार से बताया कि मौजूदा मोदी सरकार उन परिवारों को सालाना एक लाख छह हजार आठ सौ रूपये़ का लाभ दे रही है जिन्हें राहुल सालाना 72 हजार रूपया देकर चुनावी लाभ के लिये लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। जेटली के मुताबिक मौजूदा वक्त में सरकार विभिन्न योजनाओं के तहत देश के आम लोगों को 5.34 लाख करोड़ का लाभ दे रही है जिसमें विभिन्न मंत्रालयों की योजनाओं के अलावा, खाद्य सुरक्षा योजना, आयुष्मान योजना और प्रधानमंत्री किसान बोनस योजना से लेकर आवास व शौचालय योजना का मद भी शामिल है। जेटली ने राहुल द्वारा की गई घोषणा को ढ़कोसला करार देते हुए मोदी सरकार की योजनाएं गिनाईं और राहुल ने मोदी सरकार की योजनाओं से आगे बढ़कर न्यूनतम आय गारंटी योजना का वायदा किया है। ऐसे में अब चुनाव का रूख इस बहस की ओर मुड़ गया है कि किसकी सरकार बनवाने में आम लोगों को सीधा व अधिकतम फायदा हासिल होगा। इस लिहाज से देखा जाये तो निश्चित ही आंकड़ों में मोदी सरकार की योजनाओं में आम लोगों पर खर्च हो रही धनराशि उस रकम से कहीं अधिक है जो राहुल ने न्यूनतम आय गारंटी के तहत गरीबों को उपलब्ध कराने का वायदा किया है। लेकिन विचारणीय है कि मोदी सरकार जिन आंकड़ों को गिनाकर राहुल के वायदे को ढ़कोसला साबित करने की कोशिश कर रही है उसका सीधे तौर पर कितना लाभ आम लोगों को मिल पा  रही है। इस कसौटी पर परखें तो सरकार बेशक बहुत अधिक खर्च कर रही हो लेकिन आम लोगों के हाथ में सीधे तौर पर वह रकम कतई नहीं पहुंच रही है जिसे सीधे गरीबों के खाते में डालने का वायदा राहुल ने किया है। सरकार की योजनाओं में धांधली और घपलेबाजी की मौजूदगी से भी इनकार नहीं किया जा सकता और इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अगर आम लोगों को, गरीबों को व किसानों को सरकार की योजनाओं का पूरा लाभ मिल रहा होता तो आज भी देश के विभिन्न हिस्सों से भूख के कारण मौत की खबरें नहीं आ रही होतीं अथवा कर्ज में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के समाचार हर्गिज नहीं आते। यानि सरकार ने समग्र विकास की अवधारणा के तहत लोगों के हित के लिये जो योजनाएं बनाई हुई हैं उसके दायरे से आम लोगों का बहुत बड़ा तबका आज भी बाहर ही है। ऐसे में अगर राहुल की घोषणा सीधे तौर पर आम लोगों को प्रभावित करें और भाजपा को भी अपने आगामी घोषणा पत्र में आम लोगों को सीधे तौर पर लाभ पहुंचानेवाली योजनाओं का वायदा करने के लिये विवश होना पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। वैसे भी इस बार के अंतरिम बजट में सीमांत किसानों को सीधे तौर पर तीन चरणों में छह हजार का बोनस देकर मोदी सरकार ने आम लोगों को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचाने की नीति पर अमल आरंभ कर दिया है। बेशक दोनों ही पार्टियां चुनावी लाभ के लिये और आम लोगों को लुभाने के लिये ही ऐसी घोषणाएं करने पर मजबूर हो रही हैं लेकिन इसमें सीधा फायदा आम लोगों का ही है। साथ ही बहस की धारा बेमानी मसलों से हटकर सकारात्मक मुद्दों की ओर मुड़ी है जिसमें आम लोगों का हित ही छिपा हुआ है। बेशक कोई भी सरकार मंगल ग्रह से पैसा लाकर आम लोगों के खाते में कतई जमा नहीं करेगी। लेकिन यह कहना भी उचित नहीं होगा कि देश की आमदनी इस लायक नहीं है कि देश के लोगों को न्यूनतम आय की गारंटी भी ना दी जा सके। वैसे भी सरकार की ओर से राहुल के वायदे ही हवा निकालने के लिये सामने आये अरूण जेटली ने स्वीकार किया है कि एक ओर संगठित क्षेत्र के कामगारों को न्यूनतम 12 हजार से कहीं अधिक वेतन मिल रहा है वहीं सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो जाने के बाद अब सरकारी नौकरियों में न्यूनतम वेतन 18 हजार रूपया प्रतिमाह हो चुका है। ऐसे में अगर समाज से सबसे निर्धन व वंचित तबके को सीधा लाभ देने की ओर राजनीतिक दलों का विचार मुड़ा है तो निश्चित ही यह स्वागतयोग्य है। खास तौर से इसमें यह कहना सबसे महत्वपूर्ण है कि इस योजना से सरकार के खजाने पर कोई बड़ा बोझ नहीं पड़ेगा। यानि सरकार की तमाम उन बेमानी योजनाओं को अगर बंद कर दिया जाए जिसका वजूद कागजों में ही मजबूत दिखाई पड़ता है और उसका लाभ उन लोगों को नहीं मिल पा रहा है जिन्हें इसकी सर्वाधिक जरूरत है तो निश्चित ही उस बचत की रकम से आम लोगों के जीवन में खुशहाली लाई जा सकती है।