विपक्ष के समक्ष मुद्दों का अकाल






लोकसभा चुनाव का बिगुल बच चुका है। सेनाएं मैदान में उतर चुकी हैं। अंतिम व निर्णायक टकराव का दौर करीब है। ऐसे में अपेक्षित था कि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच भारी घमासान होता। मुद्दों पर टकराव होता जिसमें विपक्ष को हमलावर होना चाहिये था और सरकार को सफाई देने से फुर्सत नहीं होती। लेकिन तस्वीर बिल्कुल ही उलट है। स्थिति यह है कि मोदी सरकार के पांच साल के कार्यकाल में विपक्ष कोई ऐसा मुद्दा नहीं तलाश पाया जिसे तूल देकर वह सरकार को नीचा दिखाने में कामयाब हो पाता। नतीजन वही घिसी-पिटी बातें कही जा रही हैं जिनको हर चुनाव में परंपरागत तौर पर दोहराया जाता है। मसलन सरकार को हर मोर्चे पर विफल बताना, गरीबों के हितों की दुहाई देना, बेरोजगारी के मसले को तूल देना और देशहित में सत्ता परिवर्तन को आवश्यक बताना। लेकिन सवाल है कि किसी भी आरोप को सिद्ध करने के लिये अगर विपक्ष के पास कोई ठोस प्रमाण होता तो उसके आरोपों पर लोगों को गंभीरता से विचार करने के लिये विवश भी होना पड़ सकता था। मगर विपक्ष के पास कोई ऐसा तथ्यात्मक प्रमाण नहीं है जिससे सरकार पर किसी भी मामले में सीधे तौर पर उंगली उठाई जा सके। उस पर तुर्रा यह कि बीते पांच सालों के कामकाज का अगर पूर्ववर्ती सरकारों के कामकाज से तुलनात्मक अध्ययन करें तो इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि हर मोर्चे पर यह सरकार किसी भी पूर्ववर्ती से कहीं बेहतर साबित हुई है। खास तौर से आम लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित करनेवाले महंगाई के मोर्चे पर इस सरकार की सफलता वाकई काबिले तारीफ है। जो महंगाई दर पिछली संप्रग सरकार के कार्यकाल में दहाई के अंक तक पहुंच चुकी थी वह लगातार इकाई के अंक में बनी हुई है और चार फीसदी से आगे नहीं बढ़ पाई है। सुविधाओं की बात करें तो सड़क व जलमार्ग से लेकर रेलमार्ग तक में उम्मीद से कहीं अधिक काम हुआ है। विदेश नीति के मामले में तो इस सरकार का कोई सानी ही नहीं है जिसने ना सिर्फ सत्ता संभालने के साथ ही योग को समूचे विश्व में औपचारिक व प्रामाणिक तौर पर स्थान दिलाया बल्कि आज की तारीख में किसी भी देश की इतनी जुर्रत नहीं है कि वह भारत के बारे में अनाप-शनाप बोल सके या इसे आंखें दिखा सके। यहां तक कि विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति यानि अमेरिका को भी भारत ने जलवायु परिवर्तन से लेकर आर्थिक मोर्चे तक पर खुलकर आंखें दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसी प्रकार सुरक्षा के मसले पर देखें तो सरहद पार के दुश्मनों को जिस ठसक से सबक सिखाने की पहल हुई है उसकी पिछली सरकारों के कार्यकाल में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर भी आतंकवाद को कश्मीर घाटी में समेटने से लेकर नक्सलवाद का समूल नाश करने की दिशा में जिस प्रामाणिकता के साथ कार्रवाई हुई है उसी का नतीजा है कि पूरे देश में बीते पांच सालों में पूरी तरह अमन-चैन का माहौल है। रहा सवाल सांप्रदायिक मसलों का तो इस मोर्चे पर भी ‘सबका साथ सबका विकास’ के मूल मंत्र पर ही अमल किया गया है। तभी तो उज्वला योजना से लेकर जनधन योजना और मुद्रा योजना सरीखी तमाम महात्वाकांक्षी योजनाओं में अल्पसंख्यक समुदाय को उसकी आबादी के अनुपात से कहीं अधिक लाभ हासिल हुआ है। ऐसे में स्वाभाविक है कि सरकार के पास गिनाने के लिये अपना काम भी है और भविष्य को लेकर अपनी स्पष्ट दिशा भी है। रही सही कसर पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल में हुए घपले-घोटाले के मामले पूरा कर देते हैं जिस पर विपक्ष चर्चा करने के लिये भी तैयार नहीं हो सकता है। यहां तक कि राफेल खरीद के जिस मसले को तूल देकर ‘चैकीदार चोर है’ का हल्का व सस्ता नारा बुलंद करने की कोशिश की जा रही है उसकी हकीकत सर्वोच्च न्यायालय भी बयान कर चुका है और आम लोगों को भी पता चल चुका है कि इन तिलों में तेल नहीं है। ऐसे में विपक्ष के सामने मुद्दों का भारी संकट खड़ा होना स्वाभाविक ही है। अगर विपक्ष को सत्ता में वापसी की जरा भी उम्मीद होती तो शरद पवार कतई चुनाव लड़ने से इनकार नहीं करते और प्रियंका गांधी को मैदान में उतारने से कांग्रेस भी हर्गिज नहीं हिचकती। बल्कि आलम तो यह है कि हालिया दिनों तक भाजपा को आंखे दिखाने वाले शिवसेना, अपना दल और सुहेलदेव भासपा सरीखे दल भी अब भाजपा-भाजपा भजते दिख रहे हैं। जबकि विपक्ष में कहीं एका की संभावना नहीं दिख रही है। ना तो दिल्ली में आप के साथ कांग्रेस का गठजोड़ हो सका और ना ही उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के गठबंधन में उसको शामिल करने की जहमत उठाई गई। तमाम विपक्षी दलों ने कांग्रेस को उसके अपने हाल पर छोड़ देना ही बेहतर समझा है। लेकिन कांग्रेस की ओर से एक अलग धारा की राजनीति करने की कोशिश अवश्य की जा रही है जिसकी बानगी गुजरात में देखने को मिली है। छह दशक बाद गुजरात में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक आयोजित करने के अपने निहितार्थ भी हैं और वहां से निकल रहे संदेश का अलग महत्व भी है। कांग्रेस की कोशिश खुद को सबसे सशक्त विकल्प के तौर पर देश के समक्ष प्रस्तुत करने की है। कांग्रेस जिस तरीके से चुनाव लड़ रही है उसमें कहीं से यह प्रतीत नहीं हो रहा कि उसकी कोशिश सत्ता पर कब्जा जमाने की है। बल्कि कांग्रेस की पूरी कोशिश यही दिख रही है कि बीते लोकसभा चुनाव में उसे जिस शर्मनाक शिकस्त को स्वीकार करने के लिये मजबूर होना पड़ा और उसे इतनी सीटें भी नहीं मिल सकीं कि लोकसभा में विपक्ष के नेता के पद पर दावा किया जा सके उस तस्वीर में बदलाव किया जा सके। कांग्रेस इस बार वास्तव में प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रही है जिसमें अगर उसे अपने बीते चुनाव के प्रदर्शन से अधिक सीटें मिल जाएं और बाकी विपक्षी दलों को न्यूनतम सीटों पर सिमटने के लिये मजबूर होना पड़े तो यही कांग्रेस की बहुत बड़ी जीत होगी। इसी प्रयास में भाजपा विरोधी मतदाताओं को यह संदेश देने का प्रयास किया जा रहा है कि जो संघ से असहजता महसूस कर रहे हों वे गांधी के नाम पर कांग्रेस के साथ जुड़ जाएं। जो भाजपा को हराना चाहते हों वे कांग्रेस के अलावा किसी अन्य को वोट ना दें। यानि विपक्ष के पास कोई सकारात्मक रणनीति ही नहीं है और पूरी कोशिश नकारात्मक वोटों से सकारात्मक सियासी ऊर्जा हासिल करने की है।