आकांक्षाओं और उम्मीदों का चुनाव






प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कई बार यह दोहरा चुके हैं कि वर्ष 2014 का चुनाव आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये हुआ था जबकि इस बार का आम चुनाव अपेक्षाओं, आकांक्षाओं और उम्मीदों की पूर्ति के लिये हो रहा है। मोदी की यह बात भले ही आम लोगों से जुड़ी हो लेकिन गहराई से परखें तो इस बार का चुनाव हर किसी के लिये वाकई अपेक्षाओं और उम्मीदों का चुनाव ही है। हालांकि हर चुनाव कुछ उम्मीदों से ही जुड़ा होता है और अपेक्षाओं की पूर्ति के लिये ही लड़ा जाता है। लेकिन इस बार का चुनाव इस मामले में पहले के चुनावों से अलग है कि इस समय तमाम राजनीतिक दल भावी परिणामों से डरे लेकिन उम्मीदों से भरे दिखाई पड़ रहे हैं। राजनीतिक दलों में भय और उम्मीद का एक साथ संचार करने का काम मतदाताओं ने ही किया है। अब तक तीन चरणों का मतदान समाप्त हो जाने के बाद जो रूझान दिख रहा है उसमें सभी दलों को अपने लिये उम्मीदें भी दिखाई पड़ रही है और नाकामी का डर भी सता रहा है। दरअसल मतदान को लेकर जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उसमें यह साफ है कि देश के औसतन 35 से 40 फीसदी मतदाताओं से इस बार चुनाव से दूरी बनाई हुई है। हालांकि यह अलग चर्चा का विषय हो सकता है कि मतदान केन्द्र तक आने से परहेज बरत रहे मतदाताओं का वर्ग ऐसा क्यों कर रहा है और इससे किसको फायदा और किसको नुकसान होने की अधिक संभावना है। लेकिन इस स्थिति को लेकर हर दल सहमा भी हुआ है और उम्मीदों से भरा हुआ भी दिख रहा है। बात अगर भाजपा की करें तो उसे यह स्थिति अपने लिये बेहद अनुकूल दिखाई पड़ रही है और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का भरोसा इस बात को लेकर मजबूत होता दिख रहा है कि भले ही पार्टी को अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा जुटाने में कामयाबी ना मिल सके लेकिन गठबंधन के घटक व कुछ बाहरी समर्थकों के दम पर वह अपनी सरकार बनाने में एक बार फिर अवश्य कामयाब हो जाएंगे। हालांकि मतदाताओं का वोटिंग के प्रति कम उत्साह भाजपा के लिये भी चिंता का विषय बना हुआ है और उसे इस बात का डर सता रहा है कि कहीं उसके परंपरागत वोटर ही निश्चिंत होकर घर में ना बैठ गए हों। लेकिन तमाम आंकड़ों और समीकरणों को देखते हुए भाजपा को उम्मीद है कि इस बार भले ही बहुमत से कुछ सीटें कम रह जाएं लेकिन सरकार तो उसकी ही बनेगी। दूसरी ओर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भी इस बार पूरी तरह उम्मीदों से भरी दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस के शीर्ष रणनीतिकार इस बात की तो चिंता ही नहीं कर रहे हैं कि अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा कैसे हासिल किया जाए। बल्कि कांग्रेस की तो कोशिश ही यही है कि किसी भी तरह भाजपा को 200 से कम सीटों पर रोक दिया जाए। इसके लिये कांग्रेस ने दो सूत्रीय फार्मूला बनाया हुआ है जिसके तहत एक ओर तो जिन सीटों पर उसकी अपनी दावेदारी मजबूत है वहां पूरे दम-खम से जीत दर्ज कराने की रणनीति के तहत चुनाव लड़ रही है लेकिन जिन सीटों पर भाजपा को किसी अन्य दल से टक्कर मिल रही है वहां कांग्रेस की कोशिश केवल भाजपा के वोटबैंक में सेंध लगाने की है। ताकि भाजपा को टक्कर दे रहे विरोधी को अपनी जीत दर्ज कराने में सहूलियत हो सके। यही रणनीति उसने तमाम प्रदेशों में अपनाई हुई है। कांग्रेस के शीर्ष रणनीतिकारों की मानें तो अगर पार्टी किसी भी तरह 150. सीटें जीतने में भी कामयाब हो गई हो तो उसे संप्रग की सरकार बनाने से कोई ताकत नहीं रोक पाएगी। लेकिन अगर अपनी सीटों में कुछ कमी रह गई तब भी जिस तरह से क्षेत्रीय दलों ने विभिन्न सूबों में गठबंधन कायम करके कम से कम सीटों पर लड़ने की राह पकड़ी है उसे देखते हुए विपक्ष में सबसे बड़े दल के तौर पर कांग्रेस का उभर कर सामने आना तय ही है। ऐसी सूरत में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि कांग्रेस के अपने खाते में कितनी सीटें हैं। बल्कि सबसे बड़ा गैर भाजपाई दल होने के नाते सत्ता पर उसकी स्वाभाविक दावेदारी होगी। दूसरी ओर विपक्ष के अन्य क्षेत्रीय दलों को भी इस बात से कतई फर्क पड़ता हुआ नहीं दिख रहा है कि उनके खाते में कितनी सीटें आ रही हैं बल्कि उनकी पहली प्रथमिकता भाजपा को घेर कर हराने की है। लिहाजा जहां कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दलों का गठबंधन है वहां भी और जहां ये कांग्रेस से किनारा करके चुनाव लड़ रहे हैं वहां भी इस बात की अंदरूनी तौर पर सैद्धांतिक सहमति बनी हुई है कि किसी भी हालत में गैरभाजपाई ताकतों का किसी भी सीट पर कतई टकराव ना होने पाए। इसके लिये पर्दे के पीछे सामंजस्य और सहमति की रणनीति तैयार करके चुनाव लड़ा जा रहा है। यानि उम्मीद से भरा हुआ विपक्ष भी है और सत्तापक्ष भी। लेकिन इन दोनों में एक बड़ा अंतर यह है कि अगर भाजपा को सत्ता में वापसी करनी है तो उसे अपने दम पर कम से कम ढ़ाई सौ सीटें जीतनी ही होगी। लेकिन विपक्ष के किसी भी दल के लिये ऐसा कोई मसला सामने नहीं है। उनको सिर्फ बेहतर परिणाम देने की चिंता करनी है और भाजपा को 200 सीटों के भीतर समेटने में कामयाबी हासिल करनी है। यानि कठिन चुनौती भाजपा के सामने ही है। लेकिन जिस तरह से भाजपा को अपने लिये इस बार स्थितियां पूरी तरह अनुकूल दिखाई पड़ रही है और राजग के बैनर को चुनाव से पहले ही दुरूस्त कर लिया गया है उसे देखते हुए इतना तो तय है कि बेशक तमाम विपक्षी एकजुट क्यों ना हो रहे हों लेकिन भाजपा की उम्मीदों का आसमान चमक रहा है।