चुनावी उत्तेजना की पराकाष्ठा







चुनाव के दौरान सियासत की गर्मी का उफान पर होना स्वाभाविक ही है। यह गर्मी कई बार सिर चढ़कर बोलने लगती है जिसमें कोई देवी-देवताओं पर अभद्र टिप्पणी कर बैठता है तो कोई अपने विरोधी के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल करने से नहीं चुकता। चुनाव की इसी उत्तेजना की आड़ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में ली जब उन्हें राफेल विमान खरीद के मामले में सुप्रीम कोर्ट की बातों को तोड़-मरोड़कर जनता के बीच प्रस्तुत करते हुए चैकीदार को चोर बताने वाले झूठे बयान के लिये दोषी पाया गया। इसी चुनावी उत्तेजना की आड़ साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने भी ली है जब मुंबई एटीएस के प्रमुख शहीद हेमंत करकरे की मौत को लेकर दिये गये बयान के कारण राजनीतिक दलों से लेकर समाज के सभी वर्गों की ओर से भारी आलोचना का सामना करना पड़ा। यानि चुनावी उत्तेजना में जुबान भी फिसलती है और दिमाग भी बहक जाता है। यह इस उत्तेजना का ही प्रभाव है कि कोई अपनी ही पार्टी की महिला नेता को सौ टका टंच माल करार दे देता है तो कोई विरोधी पक्ष की महिला नेत्री को छमिया बता देता है। इस उत्तेजना से बच पाना अक्सर बड़े-बड़ों के लिये भी बेहद मुश्किल होता है। लेकिन मामला तब अधिक गंभीर हो जाता है जब ऐसी बातें बड़े नेताओं की जुबान से सुनाई पड़ती हैं। उपेन्द्र कुशवाहा माता सीता पर टिप्पणी कर बैठते हैं तो गिरिराज सिंह एक पूरे संप्रदाय को निशाने पर ले लेते हैं। तेजस्वी यादव विरोधी का काॅलर पकड़ने की बात कह बैठते हैं तो नितिन गडकरी से लेकर शिवराज सिंह चैहान सरीखे नेतागण प्रशासनिक अधिकारियों को धमकाने और तू-तड़ाक की भाषा में ललकारने से परहेज नहीं बरतते हैं। ऐसे माहौल में आजम खान और ममता बनर्जी सरीखे फायर ब्रांड नेताओं की बातों का तो जिक्र ही क्या करना जो सामान्य परिस्थितियों में भी अक्सर सार्वजनिक मंच से अभद्र टिप्पणी करने के लिये कुख्यात हैं। हालांकि कुछ नेताओं की जुबान से अपशब्द तो नहीं निकलता लेकिन वे गलतबयानी अवश्य कर बैठते हैं। ऐसे नेताओं के सिरमौर तो खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही हैं जो अपनी गलत बयानी के लिये अलग से ही पहचाने जाते हैं। अब एक बार फिर पीएम मोदी ( ने वाराणसी में ऐसा दावा कर दिया है जिसको लेकर उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। वाराणसी से अपना नामांकन दाखिल करने से पूर्व पार्टी के बूथ कार्यकर्ताओं की एक सभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने दावा किया कि इस बार देश में 'प्रो इन्कम्बेंसी वेव'  यानि सत्ता के पक्ष में लहर देखी जा रहा है और देश के इतिहास का यह इस तरह का पहला चुनाव है। पीएम मोदी ने कहा, ''इतिहास का पहला मौका है कि इस तरह का चुनाव लड़ा जा रहा है। हमारे देश में इतने चुनाव हुए हैं, लेकिन इस बार को चुनाव होने के बाद राजनीतिक पंडितों को अपनी माथापच्ची करनी पडेगी कि आजादी के बाद इतने चुनावों में अब तक ऐसा कभी नहीं दिखा। इस बार देश  पहली बार प्रो इन्कम्बेंसी वेव यानि सत्ता के पक्ष में लहर देख रहा है। देश में पहली बार सत्ता के पक्ष में लहर चल रही है। देश में अब तक जितने चुनाव हुए हैं उनमें ऐसा पहली बार है कि देश में प्रो-इन्कम्बेंसी वेव यानि सत्ता के पक्ष में लहर देखी जा रही है।'' अगर यह बात किसी अन्य नेता ने कही होती तो इसकी बहुत अधिक विवेचना करने की जरूरत नहीं पड़ती और ना ही इसको लेकर कहीं से कोई सवाल खड़ा होता। चुंकि  बात कही है खुद प्रधानमंत्री ने तो बेहद स्वाभाविक है कि इस बात को लेकर बात तो दूर तक चलेगी ही।  यह सवाल तो उठेगा ही कि क्या वाकई ऐसा है कि देश में पहली बार प्रो इन्कम्बेंसी वेव यानि सत्ता के पक्ष में लहर देखी जा रही है, क्या देश में इससे पहले हुए चुनावों में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में कभी लहर नहीं चली? अगर पुराने चुनावों के आंकड़ों को खंगालें तो ऐसा कतई नहीं है। बल्कि सत्ता के पक्ष में पहले भी खूब लहर रही है और इस कदर उफान पर रही है जिसके बारे में सोच कर आज भी विपक्ष के होश उड़ जाएं। मसलन आजाद के बाद शुरूआती चुनावों में तो चुनाव दर चुनाव लगातार सत्ता पक्ष के समर्थन में ही लोगों का रूझान दिखाई पड़ा और इसी का नतीजा रहा कि सन 1951-52 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस के हिस्से में 44.99 फीसदी वोट के साथ 364 सीटें ही आई थीं वहीं 1957 में हुए दूसरे चुनाव में प्रबल प्रो कंवेंसी वेव का ऐसा उफान दिखाई पड़ा जिसमें कांग्रेस के वोट बढ़कर 47.80 फीसदी हो गए और उसे 371 सीटें मिलीं। यह प्रो-इन्कम्बेंसी वेव यानि सत्ता के पक्ष में लहर की कहा जाएगा कि पहले आम चुनाव के मुकाबले दूसरे आम चुनाव में कांग्रेस के वोट में भी 2.81 फीसदी का इजाफा हुआ और संसद में उसकी सीटों की तादाद में सात सीटों की वृद्धि हुई। इसके बाद भी कई चुनावों में प्रो-इन्कम्बेंसी वेव यानि सत्ता के पक्ष में लहर का माहौल देखा गया। सन 1967 में सत्ता में रहते हुए 40.80 फीसदी वोटों के साथ कांग्रेस को 283 सीटें मिली थीं और वह सत्ता में थी। सन 1971 में 'गरीबी हटाओ' के नारे के साथ इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 43.71 फीसदी वोटों के साथ 342 सीटें जीतीं थीं। उस ऐतिहासिक चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस के वोट में 2.91 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया था और सीटों की तादाद में भी 59 की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी। यह तो बात हुई केन्द्र की सरकार बनाने के लिये हुए आम चुनावों की। अगर विधानसभा चुनावों के आंकड़ों को भी खंगालना आरंभ करें तो ओडिशा से लेकर बंगाल तक और यूपी से लेकर बिहार तक ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्यों में कई बार ऐसे माहौल में चुनाव हो चुका है जिसे सीधे तौर पर प्रो-इन्कम्बेंसी वेव यानि सत्ता के पक्ष में लहर का नाम देना ही बेहतर होगा। उसके मुकाबले अगर इस बार के चुनाव की बात करें तो सत्ता के पक्ष में इतनी ही तेज लहर होती तो भाजपा को अपने 102 मौजूदा सांसदों को टिकट से वंचित करने की रणनीति अपनाने के लिये विवश नहीं होना पड़ता। हालांकि यह सही है कि देश में कोई एंटी इन्कम्बेंसी वेव यानि सत्ता विरोधी लहर का माहौल नहीं दिख रहा है लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं निकाला जा सकता कि कोई बड़ी लहर सत्ता के समर्थन में चल रही है। बल्कि सच तो यह है कि इस बार का चुनाव किसी लहर पर नहीं बल्कि यथार्थ पर हो रहा है जिसमें मतदाताओं की चुप्पी ने इस सवाल को बहुत बड़ा बना दिया है कि आखिर चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा।