महान भारत के निर्माण के लिए आयोज्य यह चुनावरूपी महायज्ञ आज ‘महाभारत’ बनता जा रहा है, मूल्यों और मानकों की स्थापना का यह उपक्रम किस तरह लोकतंत्र को खोखला करने का माध्यम बनता जा रहा है, यह गहन चिन्ता और चिन्तन का विषय है। विशेषतः आर्थिक विसंगतियों एवं विषमताओं को प्रश्रय देने का चुनावों में नंगा नाच होने लगा है और हर दल इसमें अपनी शक्ति का बढ़-चढ़कर प्रदर्शन कर रहे हंै। कुल सात चरणों में 19 मई तक होने वाले इस मतदान की निष्पक्षता और पवित्रता को कायम रखकर ही हम लोकतंत्र में नई प्राणऊर्जा का संचार कर सकेंगे।
सत्तर साल के प्रौढ़ लोकतन्त्र के लिये हमारी राजनीति एक त्रासदी बनती जा रही है, यह शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। राजनेता सत्ता के लिये सब कुछ करने लगा और इसी होड़ में राजनीति के आदर्श ही भूल गया, यही कारण है देश की फिजाओं में विषमताओं और विसंगतियों का जहर घुला हुआ है और कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। ऐसा लगता है कि आदमी केवल मृत्यु से ही नहीं, जीवन से भी डरने लगा है, भयभीत होने लगा है। ठीक उसी प्रकार भय केवल गरीबी में ही नहीं, अमीरी में भी है। यह भय है राजनीतिक भ्रष्टाचारियों से, अपराध को मंडित करने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से।
चुनाव आचार संहिता इस बात की इजाजत नहीं देती कि राजनेता एवं राजनीतिक दल धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करके एवं जनता की धार्मिक भावनाएं भड़का कर उनका ध्यान अहम सामाजिक व आर्थिक मुद्दों से हटाने में महारथ हासिल करके अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे। इसका ताजा उदाहरण बसपा नेता सुश्री मायावती और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। मायावती पहले देवबन्द में मुसलमानों से अपना वोट बंटने न देने की अपील कर आयीं और इसके अगले दिन ही योगीजी ने सहारनपुर में जाकर कह दिया कि उनके पास ‘अली’ है तो हमारे पास ‘बजरंग बली’ हैं।
इन चुनावों में आर्थिक अनियमितताओं एवं विसंगतियों नयी स्थितियां भी ईजाद हुई है। बात केवल राजनीति चंदे की नहीं है, बल्कि चुनावों में उपयोग के लिये गैरकानूनी ढ़ंग से एकत्र की गयी राशि और विदेशों से मिलने वाले चंदों की भी है। आज सवाल बहुत बड़ा है और वह है भारत की राजनीति को प्रत्यक्ष विदेशी प्रभाव से बचाना। आम आदमी पार्टी ने जिन कथित अनिवासी भारतीयों से चंदा इकट्ठा करके भारत की राजनीतिक व्यवस्था में ‘हवाला कारोबार’ का दरवाजा खोला है वह हमारी समूची चुनाव प्रणाली के लिए आने वाले समय में चुनौती बन सकता है। जिस तरह वर्तमान सरकार ने विदेशी कंपनियों के लिये दरवाजे खोले हैं उसका भारत की अर्थव्यवस्था पर तो असर पड़ ही रहा है साथ ही साथ इसका असर राजनीति पर पड़े बिना किसी सूरत में नहीं रह सकता है।
क्या कभी सत्तापक्ष या विपक्ष से जुडे़ लोगों ने या नये उभरने वाले राजनीतिक ेेेेदावेदारों ने, और आदर्श की बातें करने वाले लोगों ने, अपनी करनी से ऐसा कोई अहसास दिया है कि उन्हें सीमित निहित स्वार्थों से ऊपर उठा हुआ राजनेता समझा जाए? यहां नेताओं के नाम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं न ही राजनीतिक दल महत्वपूर्ण है, महत्वपूर्ण है यह तथ्य कि इस तरह का कूपमण्डूकी नेतृत्व कुल मिलाकर देश की राजनीति को छिछला ही बना रहा है। सकारात्मक राजनीति के लिए जिस तरह की नैतिक निष्ठा की आवश्यकता होती है, और इसके लिए राजनेताओं में जिस तरह की परिपक्वता की अपेक्षा होती है, उसका अभाव एक पीड़ादायक स्थिति का ही निर्माण कर रहा है। और हम हैं कि ऐसे नेताओं के निर्माण में लगे हैं!
चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत मानी जाती है, पर आज चुनाव लोकतंत्र का मखौल बन चुके हैं। चुनावों में वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल पड़ते हैं। इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चैराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चैराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं।
महाभारत की लड़ाई में सिर्फ कौरव-पांडव ही प्रभावित नहीं हुए थे। उस युद्ध की चिंगारियां दूर-दूर तक पहुंची थीं। साफ दिख रहा है कि इस चुनावी महाभारत में भी कथित अराजक राजनीतिक एवं आर्थिक ताकतें अपना असर दिखाने की कोशिश कर रही है,जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। इन स्थितियों में अब ऐसी कोशिश जरूरी है जिसमें ‘महान भारत’ के नाम पर ‘महाभारत’ की नई कथा लिखने वालों के मंतव्यों और मनसूबों को पहचाना जाए। अर्जुन की एकाग्रता वाले नेता चाहिए भारत को, जरूरी होने पर गलत आचरण के लिए सर्वोच्च नेतृत्व पर वार करना भी गलत नहीं है। बात चाहे फिर राहुलजी की हो या मोदीजी की, यहां बात चाहे मुलायम-माया की हो या केजरीवाल की।
यह सही है कि आज देश में ऐसे दलों की भी कमी नहीं है, जो नीति नहीं, व्यक्ति की महत्वाकांक्षा के आधार पर बने हैं, लेकिन नीतियों की बात ऐसे दल भी करते हैं। जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए कथनी और करनी की असमानता चिंता का विषय होना चाहिए। हालांकि पिछले सात दशकों में हमारे राजनीतिक दलों ने नीतियों-आदर्शों के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत नहीं किए हैं, जो जनतांत्रिक व्यवस्था के मजबूत और स्वस्थ होने का संकेत देते हों, फिर भी यह अपेक्षा तो हमेशा रही है कि नीतियां और नैतिकता कहीं-न-कहीं हमारी राजनीति की दिशा तय करने में कोई भूमिका निभाएंगी। भले ही यह खुशफहमी थी, पर थी। अब तो ऐसी खुशफहमी पालने का मौका भी नहीं दिख रहा। लेकिन यह सवाल पूछने का मौका आज है कि नीतियां हमारी राजनीति का आधार कब बनेंगी? सवाल यह भी पूछा जाना जरूरी है कि अवसरवादिता को राजनीति में अपराध कब माना जाएगा?
यह अपने आप में एक विडम्बना ही है कि सिद्धांतों और नीतियों पर आधारित राजनीति की बात करना आज एक अजूबा लगता है। हमारी राजनीति के पिछले कुछ दशकों का इतिहास लगातार होते पतन की कथा है। यह सही है कि व्यक्ति के विचार कभी बदल भी सकते हैं, पर रोज कपड़ों की तरह विचार बदलने को किस आधार पर सही कहा जा सकता है? सच तो यह है कि आज हमारी राजनीति में सही और गलत की परिभाषा ही बदल गई है- वह सब सही हो जाता है जिससे राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति होती हो और वह सब गलत हो जाता है जो आम आदमी के हितों से जुड़ा होता है, यह कैसा लोकतंत्र बन रहा है, जिसमें ‘लोक’ ही लुप्त होता जा रहा है?
जब एक अकेले व्यक्ति का जीवन भी मूल्यों के बिना नहीं बन सकता, तब एक राष्ट्र मूल्यहीनता में कैसे शक्तिशाली बन सकता है? अनुशासन के बिना एक परिवार एक दिन भी व्यवस्थित और संगठित नहीं रह सकता तब संगठित देश की कल्पना अनुशासन के बिना कैसे की जा सकती है? इन चुनावों का संदेश सरकार और कर्णधारों के लिये होना चाहिए कि शासन संचालन में एक रात में ‘ओवर नाईट’ ही बहुत कुछ किया जा सकता है। अन्यथा ‘जैसा चलता है--चलने दो’ की नेताओं की मानसिकता और कमजोर नीति ने जनता की तकलीफें ही बढ़ाई हैं। ऐसे सोच वाले सत्तालोलुपों को पीड़ित व्यक्ति का दर्द नहीं दिखता, भला उन्हें खोखला होता राष्ट्र कैसे दिखेगा?