सहज सामान्य न्याय की जरूरत






जरूरी नहीं कि एक जैसे मामले को लेकर जांच व इंसाफ की प्रक्रिया हर किसी के लिये एक जैसी ही हो। अमूमन यह निर्भर करता है व्यक्ति की हैसियत, औकात और रसूख पर। आम आदमी के लिये तो कानून इतना सख्त है कि किसी महिला की मर्जी के बिना उसे छेड़ने या छूने की बात तो दूर रही बल्कि नजर भरके देखने की जुर्रत भी नहीं की जा सकती। ऐसा करने पर आपराधिक मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है और जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है। लेकिन दूसरी ओर मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के खिलाफ अगर कोई महिला यौन उत्पीड़न का भी इल्जाम लगाती है तो सत्ता से लेकर व्यवस्था तक की संवेदना न्यायाधीश के पक्ष में दिखाई पड़ती है। केन्द्रीय वित्तमंत्री उनके पक्ष में लंबा-चैड़ा आलेख लिखते हैं। बार काउंसिल उनके समर्थन में लामबंदी का अहद लेती है। अजीबोगरीब तर्क गढ़े जाते हैं। यह बताने की कोशिश की जाती है कि ऐसा इल्जाम लगाने के पीछे बड़ी-बड़ी ताकतों की साजिश छिपी हुई जो देश की पूरी न्याय व्यवस्था की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को मटियामेट करने पर आमादा है। तर्क दिया जाता है कि पीड़िता पर पहले ही कई मुकदमे दायर हो चुके हैं और काम में कोताही और लापरवाही के कारण उसे नौकरी से निकाला जा चुका है। कभी मामले को पुराना बताया जाता है तो कभी यह दलील दी जाती है कि चुंकि इस मामले को ऐसी वेबसाइटों ने उठाया है जो प्रधानमंत्री मोदी का विरोध करने के लिये कुख्यात है लिहाजा इस मामले को भी इसी नजरिये से देखा जाये। मामले के सामने आने की टाइमिंग पर भी सवाल उठाया जा रहा है और यह बताने की कोशिश की जा रही है कि चुंकि प्रधान न्यायाधीश की अदालत में कई बड़े व महत्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई होनी है लिहाजा उन को आरोपों के कठघरे में खड़ा करके उन्हें न्याय व्यवस्था से दूर करने के लिये यह इल्जाम लगाया गया है। दलील यह भी दी गई कि न्यायाधीश के पास पूरे जीवन की कमाई के महज 6,80,000 रूपये ही बैंक खाते में हैं इसलिये इतने इमानादार आदमी के चरित्र पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। यानि समग्रता में देखें तो एक सामान्य से मामले को असामान्य बनाने का हर मुमकिन हथकंडा अपनाया जा रहा है। लेकिन सवाल है कि इस तरह के जितने भी तर्क दिये जा रहे हैं उससे मामला सुलझता दिख रहा है या उलझता जा रहा है? सच तो यह है कि सारी बातें अपनी जगह हैं जिसे अलग-अलग करके देखने की जरूरत है। मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय अपनी जगह है और न्याय की गुहार लगानेवाली प्रार्थिनी के स्वभाव और चरित्र की बातें अपनी जगह। प्रार्थिनी के कांधे का इस्तेमाल करके मुख्य न्यायाधीश पर निशाना साधने का प्रयास करने वालों की कथित साजिश अपनी जगह है और न्यायाधीश की इमानदारी अपनी जगह। इस सबका घालमेल करके समुचित कार्रवाई के बजाय सिर्फ बकैती के सहारे अगर किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश की जाएगी तो इसका कोई मायने या मतलब नहीं होगा। वैसे भी इस मामले में तर्कों व तथ्यों का घालमेल करने की कोई जरूरत नहीं है। माना कि मुख्य न्यायाधीश पर शोषण का इल्जाम लगानेवाली महिला पहले भी धोखाधड़ी के आरोपों में घिरी रही है और फिलहाल जमानत पर है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि उसके मौजूदा आरोपों को नकार दिया जाए। वह भी तब जबकि हमारा कानून किसी नगरवधू को उसकी सहमति के बिना ताड़ने-घूरने की भी इजाजत नहीं देता। अगर उसने कई मौजूदा व पूर्व न्यायाधीशों को पत्र लिखकर इंसाफ की गुहार लगाई है तो उसे इंसाफ से सिर्फ इसलिये तो महरूम नहीं किया जा सकता कि उस पर पहले से धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज है। रहा सवाल न्यायपालिका को कमजोर करने की साजिश का तो ऐसा इल्जाम लगानेवाले के पास अगर कोई तथ्य या प्रमाण है तो उसके आधार पर तत्काल मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिये। इस बात की गंभीरता से जांच होनी चाहिये कि कौन सी ताकतें हैं जो भारत की निष्पक्ष व देवतुल्य न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को दागदार करने का दुस्साहस कर रही है। ऐसी ताकतों के खिलाफ देशद्रोह की धाराओं के तहत कठोरतम कार्रवाई होनी चाहिये ताकि भविष्य में किसी की ऐसा करने के बारे में सोचने की भी हिम्मत ना हो। रहा सवाल मोदी सरकार और देश की स्थापित व्यवस्था के खिलाफ एजेंडे की पत्रकारिता करनेवाली चार वेबसाइटों द्वारा प्रार्थिनी की गुहार को सार्वजनिक किये जाने का तो अगर उन वेबसाइटों को अब तक प्रतिबंधित करने का कदम नहीं उठाया गया तो अब उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का क्या तुक है। इसी प्रकार इमानदारी को चरित्र का प्रमाण मानना भी बेतुका ही है। रहा सवाल इस पूरे प्रकरण से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा, विश्वसनीयता और कामकाज पर असर पड़ने का तो यह भी कोई मजबूत तर्क नहीं है क्योंकि जब पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मौजूदा न्यायाधीश की अगुवाई में चार न्यायाधीशों ने इतिहास में पहली बार सड़क पर आकर मीडिया के माध्यम से आरोपों की बौछार की थी तब अगर न्यायपालिका पर उसका असर नहीं हुआ तो मौजूदा मामला निजी तौर पर एक व्यक्ति के खिलाफ निजी स्तर पर सामने लाया गया है ना कि पूरी व्यव्यवस्था पर उंगली उठाई गई है। यानि समग्रता में देखें तो इसे सामान्य मामला समझ कर सामान्य तरीके से निस्तारित करके न्याय सुनिश्चित करना ही श्रेयस्कर होगा। वैसे भी न्यायपालिका की शुचिता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता की अगर मुख्य न्यायाधीश को और उनके कथित हितैषियों को इतनी ही चिंता है तो मौजूदा हालातों में बेहतर यही होगा कि वे खुद को तब तक के लिये व्यवस्था से अलग कर लें जब तक मामले में बेदाग साबित नहीं हो जाते। यह नहीं भूलना चाहिये कि जब लाभ के पद को लेकर विवाद हुआ तो कांग्रेस की शीर्षतम नेत्री सोनिया गांधी ने वर्ष 2006 में संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था और बाद में बेदाग साबित होकर उन्होंने दोबारा जनादेश लिया जिसमें चार लाख से भी अधिक वोटों के अंतर से वे विजयी हुईं। इससे पहले जैन हवाला मामले में जब भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम उछला तो उन्होंने भी संसद से इस्तीफा दे दिया था और तब तक दोबारा राजनीति में सक्रिय नहीं हुए जब तक बेदाग साबित नहीं हो गए। ऐसी परंपरा का ही एक बार फिर अनुसरण किये जाने की जरूरत है वर्ना निजी आरोपों को पूरी संस्था और व्यवस्था के खिलाफ साजिश बताना और अपने पर लगे आरोपों पर सुनवाई के लिये खुद ही न्यायाधीशों का नाम तय करना और पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कराने की दिशा में ठोस पहल करने के बजाय संवेदनापूर्ण बातें करना इस मामले को ऐसे अंजाम तक हर्गिज नहीं ले जा सकतीं जिससे निष्पक्षता व पारदर्शिता के साथ न्याय होता हुआ स्पष्ट दिखाई दे।