सिरदर्दी बनी अमेरिका की दादागीरी






इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि समूचा विश्व इन दिनों अमेरिका द्वारा ही संचालित हो रहा है। कहने को भले ही दुनिया के सभी देश संप्रभु हैं और अपनी राह पर अपने मनमुताबिक तरीके से चलने के लिये स्वतंत्र हैं। लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो अमेरिका की नाराजगी मोल लेकर अपनी संप्रभुता को बरकरार रखना किसी भी देश के लिये मुश्किल ही नहीं बल्कि काफी हद तक नामुमकिन है। इसका सबसे ताजा तरीन उदाहरण ईरान के प्रसंग में सामने आया है जिसमें अमेरिका ने एकतरफा तरीके से ईरान के साथ परमाणु संधि तोड़ ली है और विश्व के सभी देशों को यह नासेटिस जारी कर दिया है कि वे भी ईरान के साथ अपने व्यापारिक संबंध पूरी तरह समाप्त कर लें। अमेरिका के इस फरमान से पूरे विश्व में अकुलाहट और कुलबुलाहट का माहौल अवश्य है लेकिन कोई भी देश सिरे से इस नोटिस की नाफरमानी करने का ऐलान करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। भारत भी नहीं और चीन भी नहीं। दरअसल अमेरिका इन दिनों को आर्थिक और राजनयिक रूप से अलग थलग करने के प्रयास कर रहा है। इसी सिलसिले में उसने सभी मुल्कों को फरमान जारी कर दिया है वे ईरान से कच्चे तेल का आयात करना बंद कर दें। हालांकि ईरान के साथ संबंध विच्छेद करने के लिये भारत सहित अन्य देशों को नवम्बर 2018 में 180 दिनों की छूट अवश्य प्रदान की गई थी। लेकिन यह अवधि आगामी 2 मई को समाप्त हो रही है। अब भारत के साथ समस्या है कि वैश्विक राजनीति और अपने हितों के मद्देनजर वह ईरान की कीमत पर अमेरिका की नाराजगी मोल लेने क दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता। यदि भारत ने अमेरिका द्वारा ईरान पर लादे गए प्रतिबन्धों का उल्लंघन करने की पहल की तो उसे भी कुछ प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ेगा जिसमें भारतीय कम्पनियों और संस्थानों को अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग ट्रांसफर प्रणाली- स्विफ्ट का उपयोग करने से रोक दिया जाएगा और उनकी अमेरिका स्थित सम्पत्तियों को भी कब्जे में लिया जा सकता है। इसलिए, भारतीय कम्पनियां ईरान के साथ व्यापार करने से बच रही हैं। लेकिन ईरान से तेल की खरीद बंद करने पर ऊर्जा की आपूर्ति के अतिरिक्त भारत-ईरान सम्बंध भी प्रभावित होंगे। ईरान भारत को अफगानिस्तान तथा मध्य एशिया में महत्वपूर्ण प्रवेशद्वार उपलब्ध कराता है जो कि पाकिस्तान ने बाधित कर रखा है। हालांकि मौजूदा अमेरिकी प्रतिबन्धों से चाबहार बन्दरगाह परियोजना पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन भारत द्वारा अमेरिक फरमान का सम्मान किये जाने के बाद भारत के हितों के लिए महत्वपूर्ण इस परियोजना में ईरान अपनी रूचि कम कर सकता है। लेकिन इस परियोजना के बदले में अमेरिका की बात मान लेना भारत के लिये कूटनीतिक तौर पर सही फैसला होगा क्योंकि तमाम मंचों पर अमेरिका खुल कर भारत का सहयोग कर रहा है और इसने हमें नाटो के सदस्य देशों सरीखा विशेष मित्र का दर्जा दिया हुआ है। खास तौर से चीन व पाकिस्तान के अलावा रक्षा व आतंकवाद के मामले में अमेरिका ने जिस तरह से सीमाएं तोड़कर भारत की मदद की हैं उसे हर्गिज भुलाया नहीं जा सकता है। इसके बावजूद ईरान से केवल इस कारण संबंध तोड़ लेना भी तो उचित नहीं होगा क्योंकि अमेरिका ऐसा चाह रहा है। यही वजह है कि भारत का विदेश मंत्रालय इस मुद्दे पर लगातार अमेरिका के साथ बातचीत कर रहा है। अमेरिकी अधिकारियों के साथ लगातार वार्ता की जा रही है और भारत छूट जारी रखने की दिशा में भी सतत प्रयासरत है। लेकिन अमेरिका के कड़े व निर्णायक रूख को देखते हुए उसके साथ वार्ता के साथ साथ भारत ईरानी तेल के अन्य विकल्पों पर भी विचार कर रहा है। पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक अन्य देशों से कच्चे तेल की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने के ठोस उपाय किए गए हैं। इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन- आईओसी ने बताया है कि तेल शोधक कम्पनियां अनेक माध्यमों से कच्चा तेल आयात करती हैं और पिछले कुछ महीनों से वे आपूर्ति के अन्य विकल्पों पर काम कर रही हैं। दूसरी ओर सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात- यूएई तथा अन्य ओपेक यानि पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन के देशों ने भारत को आश्वासन दिया है कि वे ईरान से आयात बंद होने के बाद होने वाली कमी को पूरा करेंगे। इन आश्वासनों के बावजूद, समस्या यह भी है कि कच्चे तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों में वृद्धि हो रही है और वह इस समय छः महीने के उच्चतम स्तर पर है। तेल के मूल्यों में वृद्धि से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार और चालू खाता घाटे पर दबाव पड़ेगा और इससे मुद्रास्फीति भी बढ़ेगी क्योंकि उपभोक्ताओं को बढ़ी हुई कीमतें चुकानी होंगी। लिहाजा इस समस्या से उबरने के लिये भारत पश्चिम एशिया में अपने सहयोगियों से उन्हीं शर्तों पर तेल खरीदने के प्रयास कर रहा है जिन पर वह ईरान से तेल खरीदता है। भारत अल्पकालिक खरीद के स्थान पर वार्षिक अनुबंध द्वारा तेल खरीदने की कोशिशों में लगा है क्योंकि यह सस्ता साधन है। आंकड़े बताते हैं कि चीन के बाद भारत ही ईरान से सर्वाधिक तेल खरीदता है। भारत अपने कुल आयात का 11 प्रतिशत भाग ईरान से लेता है। इसकी भुगतान प्रक्रिया भी भारत के अनुकूल है जिसके अंतर्गत भारत तेल का मूल्य भारतीय रुपये में अदा करता है जो कि एक भारतीय बैंक के एक एस्क्रौ खाते में जमा किया जाता है। यह धन ईरान द्वारा औषधि तथा खाद्य सामग्री जैसी आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी में उपयोग किया जाता है। हालांकि अमेरिका ने कहा है कि ईरान इस खाते में पड़ी धनराशि का उपयोग कर सकता है लेकिन भारत इसमें और राशि जमा नहीं कर सकेगा। यानि अमेरिका ने एकतरफा तौर पर भारत को मजबूर कर दिया है वह ईरान से तेल का आयात बंद कर दे। लेकिन इसके लिये समुचित विकल्प की तलाश भारत को खुद ही करनी होगी। इसमें अमेरिका की ओर से कोई मदद नहीं मिलेगी। ऐसे में आवश्यकता है कि अमेरिका जिस तरह से दादागीरी पर आमादा है उसकी आग में अपना दामन जलने से बचाने का प्रयास करने के साथ ही ईरान से तेल खरीद में छूट हासिल करने का प्रयास जारी रखा जाए और अमेरिका को बताया जाए कि हम उसके खिलाफ नहीं हैं लेकिन मानवता के नाते ईरान के साथ भारत के सदियों पुराने जुड़ाव का सम्मान भी बरकरार रखा जाए। बेशक इसके एवज में अगर अमेरिका इतनी छूट दे कि तेल की कीमत के बदले ईरान को सीधा ही अनाज, दवाएं या अन्य जीवनोपयोगी वस्तुओं के तौर पर तेल की कीमत अदा किया जा सके तो इससे सबके हितों की रक्षा हो पाएगी और अमेरिका के फरमान का सम्मान भी बरकरार रह जाएगा।