विपक्ष की हताशा






लोकसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान संपन्न हो चुका है और दूसरे चरण के लिये प्रचार अभियान समाप्त होने जा रहे है। ऐसे में जिस तरह से विपक्ष की ओर अमर्यादित बयानबाजी की जा रही है और संवैधानिक संस्थाओं को निशाना बनाने का प्रयास किया जा रहा है उससे साफ है कि शुरूआती दो चरणों के रूझान से विपक्षी खेमा बुरी तरह हताश और निराश है। वर्ना मर्यादा की सीमा को लांघने की ऐसी कोशिश हर्गिज नहीं की जाती जो विपक्षी दलों व उसके नेताओं को मजाक का पात्र बना दे। दरअसल अभी तक की जो जमीनी रिपोर्ट सामने आई है उसके मुताबिक इस बार मतदाताओं ने पूरी तरह स्थापित मान्यताओं व परंपरागत समीकरणों को तोड़कर अलग तरीके से मतदान किया है। नतीजन राजनीतिक दलों के बीच भविष्य की सियासत को लेकर अनिश्चय का माहौल व वातावरण बन गया है जिसमें एक निहायत ही अनिश्चित ढ़र्रे की ओर चुनाव बढ़ चला है।

तमाम राजनीतिक दलों द्वारा अपनाई गई रणनीति, रचे गए प्रपंच और गढ़े गए समीकरणों के सही मायने में धुर्रे बिखर गए हैं। चुनाव पूर्व बनाई गई कोई भी रणनीति जमीनी स्तर पर अपना असर नहीं दिखा पा रही है। इसी का नतीजा है अब विपक्षी दलों को अपनी संभावित हार का अंदेशा अभी से सताने लगा है और वे अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं। तभी तो अभी से ईवीएम और चुनाव आयोग पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ने की शुरूआत भी हो गई और तमाम मर्यादाओं व अपेक्षाओं को भी तार-तार किया जा रहा है। कोई विरोधी पक्ष के महिला उम्मीदवार की बिकनी का रंग बताकर अपने परंपरागत मतदाताओं को एकजुट करने की कोशिश कर रहा है तो कोई ‘अली’ का नाम लेकर अपने समर्थकों का ध्रुवीकरण करने के प्रयासों में जुट गया है। यहां तक कि राफेल खरीद को लेकर झूठे व मनगढ़ंत आरोप लगाने से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को भी तोड़-मरोड़कर मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत करने से परहेज नहीं बरता जा रहा है ताकि ‘चौकीदार को चोर बताने की अपनी रणनीति पर डटे रहकर चुनाव परिणामों को अपने पक्ष में मोड़ा जा सके। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय से लेकर चुनाव आयोग व महिला आयोग तक ने राजनीतिक दलों व नेताओं द्वारा बदहवासी में दिये जा रहे बेशर्म व अमर्यादित बयानों का संज्ञान लेते हुए कार्रवाई शुरू कर दी है जिसमें किसी को चुनाव प्रचार करने से प्रतिबंधित किया जा रहा है तो किसी से उसके बयान को लेकर स्पष्टीकरण मांगा जा रहा है और किसी को जम कर लताड़ लगाई जा रही है। लेकिन इसके बावजूद विपक्षी दलों व उनके नेताओं में भावी परिणामों को लेकर पनप रही हताशा व निराशा के नतीजे में बढ़ रही आक्रामकता में कोई कमी आती दिखाई नहीं पड़ रही है।

निश्चित ही सब्र और संयम की डोर पर नेताओं की कमजोर पड़ती पकड़ के पीछे संभावित चुनाव परिणामों को लेकर जमीन से आ रही ऐसी जानकारियां ही हैं जो उनकी अपेक्षाओं व उम्मीदों के अनुरूप नहीं हैं। कुल 20 राज्यों की 91 लोकसभा सीटों पर पहले चरण के तहत हुए मतदान और 13 राज्यों की 97 सीटों पर दूसरे चरण के तहत होने जा रहे चुनाव के बारे में जमीन से आ रही खबरें किसी को भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं कर पा रही हैं। खास तौर से उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने सबकी नींद हराम करने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  राजधानी दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले चरण के तहत हुए आठ लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के मतदान में औसतन महज 63.69 फीसदी मतदान की खबरों ने भी बेचैनी बढ़ाई है और जिस परंपरागत वोटबैंक को जोड़ कर भाजपा को पटखनी देने और मोदी सरकार को पलट देने का समीकरण तैयार किया गया था उसको जमीन पर पूरी तरह कार्यान्वित कर पाने में हासिल हुई कथित विफलता ने भी हताशा और निराशा का माहौल बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। अव्वल तो सपा का परंपरागत वोट बैंक कहे जानेवाले यादवों द्वारा बसपा के पक्ष में मतदान नहीं किये जाने और बसपा के जातीय जनाधार का फायदा सपा व रालोद के उम्मीदवारों को नहीं मिल पाने की खबरों ने गठबंधन के घटक दलों को बुरी तरह परेशान कर दिया है। दूसरी ओर इस गठबंधन के कारण इन तीनों दलों के जो मतदाता ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं उनका भाजपा की ओर झुकाव बढ़ने की खबरों ने विपक्षी दलों के शीर्ष नेतृत्व के होश फाख्ता कर दिये हैं।

स्थिति यह है कि जिस सीट पर बसपा ने अपने उम्मीदवार को उतारा है वहां सपा के परंपरागत मतदाताओं का काफी बड़ा वर्ग भाजपा के पक्ष में खड़ा दिखाई दे रहा है और जो सीट सपा या रालोद के कोटे में चली गई है वहां बसपा के परंपरागत मतदाताओं का रूझान भाजपा के पक्ष में दिख रहा है। इन तीनों दलों के गठबंधन में जिस जातिगत समीकरण का लाभ उठाने की रणनति बनाई गई थी वह उम्मीद पूरी तरह धराशाई होती दिख रही है। विपक्षी दलों को उम्मीद थी कि मोदी सरकार के सख्त फैसलों से त्रस्त लोग और भाजपा के कट्टर विरोधी मतदाता अपने वोट को बिखरने नहीं देंगे। लेकिन नौबत ऐसी आ गई है कि बसपा के परंपरागत मतदाता सिर्फ अपनी पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में ही दिखाई पड़ रहे हैं जबकि सपा के जातीय तौर पर परंपरागत मतदाता माने जानेवालों की जरा भी संवेदना बसपा के पक्ष में नहीं दिख रही है। काफी हद तक यही स्थिति रालोद की भी है और कांग्रेस के अलग लड़ने से भाजपा विरोधी मतदाताओं के समक्ष एक विकल्प प्रस्तुत होने की जो आस लगाई जा रही थी उसमें भी निराशा की ही स्थिति दिख रही है। ऐसे में भाजपा के नजरिये से सकारात्मक बात यही है कि इस बार का चुनाव सीधे तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे को चुनने या नकारने के लिये हो रहा है जिसमें विकल्प के तौर पर कोई दूसरा चेहरा ही सामने नहीं है। लिहाजा मतदाताओं से स्वाभाविक तौर पर यही अपेक्षित है कि वे राष्ट्रीय राजनीति को जोड़-तोड़ व बेमेल गठजोड़ के अंधकार में ले जाने के बजाय साफ व स्पष्ट तौर पर सामने दिख रहे मजबूत सरकार के विकल्प के पक्ष में ही मतदान करेंगे।