बड़बोलेपन और हेकड़ी की दोहरी मार







सात चरणों में हो रहे लोकसभा चुनाव में चार चरणों का मतदान समाप्त हो चुका है। ऐसे में अब जो तस्वीर उभर रही है उसमें सबसे चिंताजनक स्थिति कांग्रेस की ही है। हालांकि अभी से यह कहना तो बेहद कठिन है कि आगामी 23 मई को किसकी किस्मत खुलेगी और किसका डब्बा गोल होगा। लेकिन इतना तो अभी से स्पष्ट नजर आ रहा है कि सत्तारूढ़ भाजपा का कितना भी नुकसान हो अथवा गैर भाजपाई दलों को कितना ही लाभ क्यों ना मिले लेकिन इस सबमें कांग्रेस का हित सधता हुआ कहीं से नहीं दिख रहा है। बेशक विधानसभा चुनाव में राजस्थान व मध्य प्रदेश में खींच-तान कर और छत्तीसगढ़ में खम ठोंक कर भाजपा का गढ़ फतह करने के बाद अब कांग्रेस के लिये वहां लोकसभा चुनाव में भी बेहतर संभावनाएं हो सकती हैं लेकिन इसके बदले पश्चिम बंगाल से लेकर पूरे दक्षिणी इलाके में ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर में भी कांग्रेस के लिये नुकसान की जो संभावना दिख रही है उसके बाद यह कहना बेहद मुश्किल है कि इस बार के चुनाव में किस हद तक उसकी स्थिति सुधर पाएगी। सच तो यह है कि कांग्रेस के शीर्ष रणनीतिकार भी मौजूदा चुनाव में यह आस छोड़ चुके हैं कि इस बार पार्टी अपने दम पर सरकार बनाने में कामयाब हो पाएगी। हकीकत यही है कि इस दफा कांग्रेस की कोशिश केवल पिछली बार से अधिक सीटों पर कब्जा जमाने और सबसे बड़े गैर-भाजपाई दल के तौर पर उभरने की है। हालांकि कांग्रेस भले ही सरकार बनाने का सपना भी ना देख रही हो लेकिन दोबारा केन्द्र में अपनी सरकार बनाने के इरादे से चुनाव मैदान में खम ठोंक रही भाजपा किसी भी सूरत में कांग्रेस के अलावा किसी अन्य को अपने मुकाबले में खड़ा दिखाने के लिये कतई तैयार नहीं है। यही कारण है कि पूरे देश में अगर सूबाई स्तर पर देखें तो भले ही महज आधे दर्जन राज्यों में ही भाजपा को कांग्रेस की सीधी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है लेकिन कांग्रेस को अपने सीधे मुकाबले में रखने के नतीजे में राष्ट्रीय स्तर पर हासिल होनेवाले फायदे को देखते हुए सत्तारूढ़ भाजपा ने ऐसा माहौल बना दिया है मानो अगर भाजपा के विरोध में वोट किया गया तो अगली सरकार का नेतृत्व राहुल गांधी के हाथों में चला चाएगा। यानि भाजपा ने सीधे तौर पर राहुल के सत्तारूढ़ होने का भय दिखा कर नरेन्द्र मोदी के पक्ष में मतदाताओं की गोलबंदी करने की रणनीति अपनाई हुई है। भाजपा को पूरा विश्वास है कि मतदाताओं का जो वर्ग नरेन्द्र मोदी का धुर विरोधी है वह भी राहुल को उनके विकल्प के तौर पर कतई स्वीकार नहीं कर सकता है और अगर राहुल के सत्तारूढ़ होने की रत्ती भर भी संभावना दिखी तो विरोधी खेमे के परंपरागत मतदाताओं का भी मोदी के पक्ष में मतदान करना तय है। आलम यह है कि कल तक मोदी की अगुवाई वाली भाजपा के मजबूत होने का भय दिखाकर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की रणनीति अपनाई जाती थी लेकिन आज की तारीख में राहुल की अगुवाई वाली कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने का भय दिखा कर मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद करने की कूटनीति पर अमल किया जा रहा है। वास्तव में देखा जाये तो देश में तकरीबन 55 साल पार्लियामेंट से लेकर पंचायत स्तर तक एकछत्र राज करनेवाली कांग्रेस की ऐसी हालत के लिये कोई और नहीं बल्कि उसकी अपनी रीति-नीति ही जिम्मेवार है जिसके तहत अव्वल तो उसने अपनी बातों की विश्वसनीयता खो दी है और दूसरे अपने इतिहास के सबसे दुखद, नाकाम व निराशाजनक दौर से गुजरने के बावजूद उसकी हेकड़ी में कोई कमी नहीं आई है। यह कांग्रेस की हेकड़ी ही तो थी जिसके कारण दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के साथ उसका गठजोड़ नहीं हो सका। वर्ना आप ने मांगा ही क्या था? हरियाणा में लोकसभा की सिर्फ एक सीट। जबकि बदले में वह ना सिर्फ दिल्ली की सात में से तीन लोकसभा सीटें देने के लिये तैयार थी बल्कि हरियाणा से लेकर चंडीगढ़ तक में उसके लिये चुनाव प्रचार करने का भी वादा कर रही थी। लेकिन कांग्रेस ने अव्वल तो उसे बातचीत के लिये बुलाना भी जरूरी नहीं समझा और दूसरे बिना कुछ दिये वह उससे दिल्ली की तीन सीटें मांग रही थी। अब ऐसी कांग्रेस को आप का नेतृत्व सौगात में तीन सीट कैसे दे सकती थी जिसे विधानसभा में शून्य पर सिमटना पड़ा हो और स्थानीय निकायों में भी जिसे जनता खारिज कर चुकी हो। हेकड़ी के अलावा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की बातों का हल्कापन भी पार्टी की विश्वसनीयता का गुड़ गोबर कर रहा है। मसलन सुप्रीम कोर्ट के हवाले से राफेल खरीद के मामले में चैकीदार को चोर बताने की गलतबयानी के लिये उन्हें अदालत में औपचारिक तौर पर दो बार खेद जताना पड़ा और अब खुल कर माफी मांगनी पड़ी है। इसी प्रकार जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बताकर उसके सरलीकरण का वायदा करनेवाले राहुल की गलत बयानी सबको पता है कि जीएसटी काउंसिल में कांग्रेस की सहमति लेकर ही अब तक हर फैसला लागू किया गया है। सेना के शौर्य पर सवाल उठाकर सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगना भी कांग्रेस को भारी पड़ा है और किसानों की कर्जमाफी का वायदा इमानदारी से नहीं निभाना भी उसके लिये नुकसानदायक हो रहा है। यानि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का बड़बोलापन और पार्टी की हेकड़ी भरी नीति के कारण अब स्थिति यह है कि बीते चुनाव के मुकाबले भाजपा को इस बार नुकसान होने की बात तो सभी मान रहे हैं लेकिन यह मानने के लिये कोई तैयार नहीं है कि भाजपा के नुकसान से कांग्रेस को कोई सीधा फायदा मिल पाएगा। कांग्रेस की ऐसी ही छवि का नतीजा है कि भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोकने के मकसद से यूपी में बने सपा, बसपा व रालोद के गठबंधन में उसे जगह मिल पाई और ना ही आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू या पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से उसे सहारा मिल पाया। बल्कि जिन दलों ने कांग्रेस को अपने साथ जोड़कर सूबाई स्तर पर गठबंधन करने की पहल की वे भी चुनाव परिणाम सामने आने के पूर्व ही अपने इस फैसले के लिये पछताते दिख रहे हैं। जहां एक ओर कर्नाटक में जद-एस का शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस को कोसने से परहेज नहीं बरत रहा है वहीं दूसरी ओर बिहार में अब तक महागठबंधन की सिर्फ एक ही संयुक्त रैली आयोजित हो पाई है। महाराष्ट्र में राकांपा सुप्रीमो शरद पवार ने अभी से ऐलान कर दिया है कि भाजपा की हार के बाद कांग्रेस की अगुवाई में केन्द्र की सरकार हर्गिज गठित नहीं हो सकती। ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बीते लोकसभा चुनाव में मिली शर्मनाक ऐतिहासिक शिकस्त के बाद भी रीति, नीति व बातचीत में बदलाव नहीं करने का इस बार कांग्रेस को किस हद तक खामियाजा भुगतना पड़ता है।