जनकल्याण के महानायक भगवान परशुराम


                  (बाल मुकुन्द ओझा)


भगवान परशुराम का पौराणिक कथाओं और धर्म में एक महत्त्वपूर्ण स्थान पर हैं पराक्रम के प्रतीक परशुराम का जन्म 6 उच्च ग्रहों के योग में हुआ, इसलिए वह तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी महापुरुष बने। मान्यता है अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान परशुराम ने धरती पर अवतार लिया था। इस दिन विष्णु जी के अवतार परशुराम का धरती पर जन्म हुआ था, इसी वजह से अक्षय तृतीया को परशुराम के जन्मदिवस के रूप में भी मनाया जाता है। 


भगवान परशुराम का आदर्श चरित्र देश में आज भी प्रासंगिक है। भक्ति और शक्ति के प्रतीक परशुराम का चरित्र सत्ताधीशों को त्याग, जन कल्याण और उत्तम आचरण की शिक्षा देता है। वह शोषित पीड़ित जनमानस को उसकी शक्ति और सामर्थ्य का अहसास दिलाता है। शासकीय दमन के विरूद्ध क्रांति का शंखनाद है। सर्वहारा वर्ग के लिए अपने न्यायोचित अधिकार प्राप्त करने की प्रेरणा है। वह राजशक्ति पर लोकशक्ति का विजयघोष है। जनता पर अत्याचार रोकने के लिये उन्होंने हिंसा का सहारा लिया और 21 बार इसका प्रायश्चित कर जीती हुई सारी धरती दान कर स्वयं ही देश निकाला लेकर महेंद्र पर्वत पर चले गए। बताया जाता है भगवान परशुराम ने जनकल्याण के लिए अपने समय में नदियों की दिशा बदल दी थी। उन्होंने अपने बल से आर्यों के शत्रुओं का भी नाश किया था। भगवान परशुराम को भागवत पुराण में सोलहवां अवतार माना गया है। अपनी घोर तपस्या के बल पर अन्याय और अत्याचार का खात्मा करने में वे सफल रहे। उन्होंने अधर्मियों, अन्यायियों व अत्याचारियों के खिलाफ शस्त्र उठाए।
परशु प्रतीक है पराक्रम का। राम पर्याय है सत्य और सदाचार का। इस प्रकार परशुराम का अर्थ हुआ पराक्रम के कारक और सत्य के धारक। परशुराम दरअसल राम के रूप में सत्य के संस्करण हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था। उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी । वेद पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था । सहस्त्रार्जुन का वध करके उन्होंने अराजकता समाप्त की तथा नैतिकता और न्याय का मार्गप्रशस्त किया।
परशुराम का सम्बन्ध त्रेता युग से है। भगवान विष्णु के छठे आवेश अवतार परशुराम का जन्म 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर में भृगु ऋषि के कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका था।
गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार परशुराम केवल क्रोधी प्रवृत्ति के ही नहीं थे, बल्कि उनमें सम्मान भावना भी थी। सीता स्वयंवर में वास्तविकता जानने पर उन्होंने श्री राम का भक्ति भाव के साथ अभिनंदन किया। परशुराम के क्रोध का सामना तो गणपति को भी करना पड़ा था। मंगलमूर्ति ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया था। रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार किया जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। अश्वत्थामा, हनुमान और विभीषण की भांति परशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है कि वे चिरंजीवि हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित है वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। परशुराम योग, वेद व नीति शास्त्र में निष्णात थे।
परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस मे कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पीछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे।
परशुराम भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे और उन्हें शिव जी से एक फरसा वरदान के रूप में प्राप्त था यही कारण है की उनका नाम परशुराम है। शिवजी ने उन्हें युद्ध कौशल सिखाया। जब वे छोटे थे तभी से एक गहन शिक्षार्थी थे और सदैव अपने पिता ऋषि जमदग्नी की आज्ञा मानते थे।