कांग्रेस के उखड़ते कदम
सत्रहवीं लोकसभा चुनाव के आगाज के वक्त पूरे जोश में दिख रही कांग्रेस की हालत अंतिम दो चरणों का मतदान समाप्त होने से पूर्व ही इतनी खस्ता हो जाएगी इसके बारे में शायद ही किसी ने कल्पना भी की हो। आलम यह था कि 14 फरवरी को पुलवामा में सुरक्षा बलों के काफिले पर हुए आत्मघाती आतंकी हमले के बाद तक यह उम्मीद की जा रही थी कि इस बार के चुनाव में भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा और इसका सीधा फायदा कांग्रेस को ही मिलेगा। गणित यह लगाया जा रहा था कि भाजपा से आम लोगों का मोहभंग होने और मोदी सरकार के अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरे नहीं उतर पाने के कारण भाजपा विरोधी वोटों का राष्ट्रीय स्तर पर ध्रुवीकरण होने जा रहा है और चुंकि कश्मीर से कन्या कुमारी तक और अटक से कटक तक भाजपा के विकल्प के तौर पर उभरने की क्षमता सिर्फ कांग्रेस की ही है लिहाजा इस बार सबसे बड़े गैर भाजपाई दल के तौर पर कांग्रेस ही उभरेगी। हालांकि यह उम्मीद को कभी नहीं की गई कि बीते चुनाव में 44 सीटों पर सिमट जाने वाली कांग्रेस को इस बार अपने दम पर पूर्ण बहुमत का आंकड़ा हासिल हो जाएगा लेकिन यह अपेक्षा तो कांग्रेस के विरोधी भी कर रहे थे पिछली बार दहाई के अंक में सीटें जीतने के मुकाबले इस बार सौ से ज्यादा सीटें उसे अवश्य मिलेंगी। इस उम्मीद को बल मिल रहा था बीते साल के आखिरी दिनों में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों से जिसमें कांग्रेस ने भाजपा के छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान सरीखे अभेद्य दुर्ग में सेंध लगाकर जीत का परचम लहराने में कामयाबी हासिल कर ली थी। इस जीत से पैदा हुए उत्साह और आत्मविश्वास के साथ जब कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के मैदान में कदम रखा तो उसके बेहतर प्रदर्शन को लेकर कांग्रेसी ही नहीं बल्कि उसके विराधी भी आश्वस्त थे। उस पर कांग्रेस ने राफेल खरीद में घोटाले का आरोप लगाकर चैकीदार चोर है के नारे को जमीनी स्तर तक पहुंचा दिया था और बेरोजगारी से लेकर नोटबंदी और जीएसटी तक के मसले को मोदी सरकार की नाकामी के तौर पर प्रचारित करके मतदाताओं के समक्ष खुद को विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करना भी आरंभ कर दिया था। रही सही कसर गरीबों के लिये सालाना 72 हजार की न्यूनतम आय सुनिश्चित करने के वायदे ने पूरी कर दी और जब प्रियंका को पार्टी का महासचिव बनाकर पूर्वी यूपी का प्रभारी बना दिया गया तब तो माहौल ऐसा बन गया कि इस बार कांग्रेस इतनी सीटें अवश्य हासिल कर लेग जिससे गैर भाजपाई दलों को अपने साथ जोड़कर अपनी अगुवाई में संप्रग की तीसरी बार सरकार अवश्य बना लेगी। लेकिन चुनाव प्रचार की शुरूआत में लगातार बढ़ते लोकप्रियता के रथ पर सवार कांग्रेस की अब जो मौजूदा हालत दिख रही है वह ना सिर्फ बेहद दयनीय बल्कि गैर-भाजपाई ताकतों को हतोत्साहित करने वाली भी है। सात चरणों में हो रहे लोकसभा के चुनाव का पांचवां चरण गुजरने के साथ ही कांग्रेस की पूरी चुनावी रणनीति के धुर्रे बिखर गए हैं और जो तस्वीर दिखाई पड़ रही है उसमें ना तो अब कांग्रेस के पास कोई ऐसा नेता बचा है जिससे देश के आम मतदाताओं की संवेदना जुड़ सके और ना ही उसके पास कोई नीति दिखाई पड़ रही है और ना कोई ऐसा नारा सुनाई पड़ रहा है जिससे भाजपा की मोदी सरकार के समर्थकों को चिढ़ या खीझ भी हो। चैकीदार को चोर बताने के नारे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में लिखित तौर पर माफी मांगने के बाद अब कांग्रेस अध्यक्ष इस बात की गुहार लगा रहे हैं कि उनके खिलाफ आपराधिक मानहानि के मुकदमे को खारिज किया जाए। जिस प्रियंका को बड़ी उम्मीदों के साथ राजनति के मैदान में उतारा गया वे खुद ही स्वीकार कर रही हैं कि कांग्रेस की भूमिका सिर्फ वोटकटवा की ही है। कांग्रेस अध्यक्ष को यह भरोसा नहीं हो रहा है कि वे अमेठी की परंपरागत सीट पर इस बार अपनी जीत भी दर्ज करा पाएंगे या नहीं। उस पर तुर्रा यह कि सैम पित्रोदा सरीखे पार्टी के नेताओं की ओर से जो बयान आ रहे हैं उसने रही सही कसर भी पूरी कर दी है। कल तक सरकार को जवाब देने के लिये मजबूर करने का खम ठोंकने वाल कांग्रेस को आज अपनी सफाई देने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। वह भी तब जबकि दो चरणों का चुनाव अभी बाकी है लेकिन स्थिति यह है कांग्रेस का पूरा चुनाव अभियान पूरी तरह बिखर गया है। दूसरी ओर भाजपा ने जिस तरह से कांग्रेस की कमियों और खामियों को भुनाया है और अपने पूरे चुनाव अभियान को बालाकोट में हुए एयर स्ट्राइक के बाद पैदा हुई राष्ट्रवाद की लहर पर ही टिकाए रखा है उसका नतीजा है कि अब भाजपा के सामने इस बात की चुनौती ही नहीं बची है कि नतीजा उसके पक्ष में नहीं आया तो क्या होगा। आलम यह है कि कांग्रेस ने हताशा और निराशा में जिस तरह की कमजोरियों का प्रदर्शन किया है और गाली-गलौच की भाषा का इस्तेमाल करने से लेकर पुराने करतूतों को सही ठहराने के क्रम में भाजपा के बिछाए जाल में वह फंसती चली गई है उसीका नतीजा है कि दो चरणों का चुनाव शेष रहते हुए ही उसने एक तरह से देखा जाए तो मैदान भाजपा के हवाले कर दिया है। मोदी के खिलाफ कमजोर गेंद फेंकने का क्या नतीजा हो सकता है वह गुजरात में 'मौत का सौदागर' शब्द इस्तेमाल करके सोनिया गांधी और बीते लोकसभा चुनाव में 'नीच' शब्द का इस्तेमाल करके प्रियंका गांधी वाड्रा पहले ही भुगत चुकी हैं। इसके बावजूद अगर इस बार कांग्रेसियों ने मोदी के खिलाफ अब तक 58 गालियों का इस्तेमाल करने की पहल की है और सिख विरोधी दंगे को 'जो हुआ सो हुआ' कह कर उससे अपना पिंड छुड़ाने का प्रयास किया है तो निश्चित ही उन्होंने मोदी की मनमांगी मुराद ही पूरी की है। अब उनकी इन गलतियों को भुनाने में मोदी की अगुवाई में पूरा भाजपाई कुनबा शायद ही कोई गलती करे और इसके नतीजे में अगर आगामी चरणों के चुनाव में कांग्रेस को भारी जनविरोध का सामना करना पड़ जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।