किताबी नैतिकता पर हावी होता जातिवादी दुराग्रह


हमारे देश में बनने वाली लगभग हर दूसरी फिल्म की कहानी के केन्द्र में एक प्रेम-प्रसंग होता है और कहानी को पर्दे पर उतारने में माहिर निर्देशक प्रेम-प्रसंगों के इर्द-गिर्द घूमने वाले नायक-नायिकाओं के चरित्र को इस प्रकार उकेरते हैं कि दर्शक के रूप में सिनेमाघरों में बैठे हम सब नायक-नायिकाओं की जाति-धर्म को भूलकर इन नायक-नायिकाओं के प्रेम की परिणति सिर्फ उनके विवाह या मिलन के रूप में ही चाहने लगते हैं। लगभग यही स्थिति भारतीय टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले अधिकांश धारावाहिकों की भी है, जहां अकबर से लेकर श्रीराम और श्रीकृष्ण तक को जोधा, सीता और राधा के नजरिए से प्रस्तुत करने की कोशिशें आये दिनों छोटे पर्दे का हिस्सा बनती हैं। लेकिन दोहरे मानदण्डों का पूरा प्रशिक्षण देने वाला हमारा समाज हम सबको बचपन से ही दोहरे चरित्र के साथ जीना सिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। स्मृतियों के दरवाजे पर हल्की सी दस्तक देने पर ही बचपन की वह बातें आसानी से याद आ जाती हैं जब प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के दौरान ही नैतिक शिक्षा की पुस्तक में पढ़ाया जाता था कि अपने से बड़ों का सम्मान करना चाहिये, हिंसा का त्याग करना चाहिये, सभी जीवधारियों से प्रेम करना चाहिये आदि। लेकिन स्कूल की चारदीवारी से निकलते ही समाज हमें एक दूसरा प्रशिक्षण देता था कि अपनी आयु से बड़े व्यक्तियों का सम्मान तो करना है, लेकिन जो व्यक्ति निम्न पदों पर कार्य करने वाले हों या जो सामाजिक ढांचे के तानेबाने के अनुसार निम्न जातियों से ताल्लुक रखते हों, वे उम्र में भले ही बड़े हों, लेकिन उनका सम्मान न भी किया जाये तो कोई बुराई नहीं है। एक प्रकार से ऊंच-नीच की एक बड़ी खाई के विषय में हम सबको अप्रत्यक्ष रूप से प्रशिक्षित कर दिया जाता है। कमाल की बात ये है कि शिक्षा का पर्याप्त प्रसार हो हाने के बाबजूद हम में से अधिकांश अपने व्यवहारिक जीवन में न तो विद्यालय और किताबों से मिले हुए तार्किक ज्ञान को ही प्राथमिकता पर रखते हैं और न ही मल्टीप्लेक्स में बैठकर पाॅपकाॅर्न के साथ बहाये गये उन आंसुओं को याद रखते हैं, जो नायक-नायिकाओं के विरह के फलस्वरूप हमने अपनी जेबें ढीली करके बहाये थे। 


चन्द अपवादों को छोड़ दिया जाये तो आज भी स्थितियां यह है कि शिक्षित परिवारों के व्यस्क युवाओं द्वारा भी स्वस्थ प्रेम सम्बन्धों के आधार पर अन्य जाति-धर्म के युवक-युवती से विवाह की इच्छा जाहिर करने पर इस प्रकार के प्रस्तावों को अमूमन अस्वीकार कर दिया जाता है और कई बार ये स्थितियां ऑनर  किलिंग जैसे मामलों तक का रूप ले लेती हैं। यदि हम अपने आसपास नजर दौड़ाएं  तो असानी से हमें इस तरह के कुछेक मामले देखने को मिल ही जाते हैं। विवाह और प्रेम प्रसंगों के मामलों को छोड़ भी दिया जाये तो भी समाज में ऊंच-नीच और साम्प्रदायिक-जातिगत पूर्वाग्रहों का प्रभाव इस स्तर तक है कि हाल ही मे उत्तराखण्ड के टिहरी जनपद में एक दलित युवक की हत्या मात्र इसलिए कर दी गई कि उसने एक विवाहोत्सव में कुर्सी पर बैठकर खाना खा लिया था। धर्मनिरपेक्षता का दावा ठोंकने वाले तमाम राजनीतिक दलों ने भी चुनावी माहौल में अपने प्रत्याशियों को साम्प्रदायिक-जातिगत समीकरणों के आधार पर टिकट बांटकर सम्प्रदाय और जाति की इस खाई को और भी बड़ा करने का ही काम किया है। स्थितियां यह हो चली हैं कि आज धर्म और जाति का कार्य न तो मानव व्यवहार का नियंत्रण रह गया है और न ही कार्य वितरण। बल्कि आज धर्म और जाति की विकृत अवधारणायें समाज में घृणा फैलाने वाले कारकों के रूप में कार्य कर रहे हैं। साम्प्रदायिक-जातिगत पूर्वाग्रहों के फलस्वरूप पनप रही नफरत के बीच बड़े सवाल यह हैं कि आखिर कब हम धर्म और जाति के यथार्थ रूप से समाज को परिचित करा पायेंगे और यह स्थिति पैदा कर पायेंगे कि स्कूलों और किताबों में पढ़ी जाने वाली नैतिकता को हम सब व्यवहारिक जीवन में भी आत्मसात कर पायें?