क्या विभाजित होकर रहना हमारी नियति हो चुकी है?

आज भले ही हम अपनी-अपनी राजनैतिक आस्थाओं के अनुरूप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विभाजन का जिम्मेदार मान लें या उनको इस आरोप से दोषमुक्ति दे दें, लेकिन भारतीय समाज के लिये यह एक बहुत बड़ा प्रष्न है कि क्या विभिन्नता में एकता का मूलभाव रखने वाले भारतीय समाज में विभिन्न जाति और सम्प्रदायों के आधार पर विभाजित होकर रहना ही हमारी नियति हो चुकी है?


अभी लगभग एक वर्ष पूर्व ही देश के एक जाने माने लेखक और इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का एक लेख देश के एक प्रतिष्ठित समाचार-पत्र में प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को सबसे विभाजक भारतीय बताने का प्रयास किया था, हालांकि भाजपा द्वारा अपने वरिष्ठतम नेता पर की गई इस टिप्पणी पर किसी बड़े मंच से किसी भी प्रकार का कोई संगठित विरोध नहीं किया गया। जबकि बाद में इन्हीं लेखक-इतिहासकार को भाजपा ने अन्य तमाम मुद्दों पर घेरा था। आज पुनः भारतीय समाज के विभाजन का आरोप विश्व की जानी-मानी पत्रिका टाइम की कवर स्टोरी के रूप में देश के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी पर लगाया गया है, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को डिवाइडर इन चीफ तक बता डाला है। लेकिन इस बार यह आरोप लगाने वाला लेखक न तो भारतीय है और न ही इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने वाला पत्र-पत्रिका ही भारतीय है, बल्कि इस बार यह रिपोर्ट प्रकाशित करने वाली टाइम पत्रिका अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिकाओं में से एक है। यहां उल्लेखनीय है कि टाइम की इस कवर स्टोरी का लेखक आतिश तासीर भारतीय भले न हो, लेकिन भारत की जानी-मानी लेखिका तवलीन सिंह और दिवंगत पाकिस्तानी राजनेता और व्यवसायी सलमान तासीर का पुत्र है। जबसे यह खबर भारतीय मीडिया में प्रसारित हुई है, तबसे चुनावी माहौल के बीच भारतीय राजनैतिक खेमे के साथ-साथ आमजनों में भी एक विचित्र सा कौतूहल है। लोग अपनी-अपनी राजनैतिक धारणाओं के अनुसार या तो इस पत्रिका की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं या फिर इस कवर स्टोरी के आधार पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दोषी सिद्ध करने के प्रयास में लगे हुए हैं। इन दोनों विचारों में से कौन सा विचार अधिक प्रमाणिक है, इस प्रश्न से भी अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में करती हैं। चाहें वह ब्रिटिश हुकूमत के समय भारतीय समाज के बंटने की बात हो या स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त की बात हो, यह एक कड़वा सत्य है कि भारत में शासक-राजनेता तुष्टिकरण की राजनीति करके भारतीय समाज को विभाजित करने का कार्य करते रहे हैं। असल में तुष्टिकरण की भारतीय समाज राजनीति का शिकार होकर विभाजित होता रहा है? देश में समय≤ पर हुई साम्प्रदायिक-जातिगत हिंसा की घटनाये ंतो यही बयां राजनीति का स्वरूप प्रत्यक्ष रूप से हमें भले ही लाभकारी दिखता हो, लेकिन अंततः तुष्टिकरण की राजनीति की परिणति समाज के विभाजन के रूप में ही होती है। भारतीय राजनीति का स्वरूप ऐसा हो चला है कि तमाम राजनेता बड़े मंचों से भले ही धर्मनिरपेक्षता की बात करते हों, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि चुनावी गढ़ जीतने के लिये सभी राजनैतिक दल अपनी पार्टियों के प्रत्याशियों को टिकट बांटते समय जातिगत-साम्प्रदायिक समीकरणों को आवश्यक रूप से प्राथमिकता पर रखते हैं। इसके अलावा एक कड़वा सच यह भी है कि स्थानीय स्तर पर वोट मांगते समय विभिन्न राजनैतिक प्रतिनिधि आम जनता को उनकी जाति-धर्म का वास्ता आज भी देते हैं, और जनता भी मतदान करते समय जातिगत-साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाती।
भारतीय सामाजिक ढांचे को और गहराई से समझने के लिये एक नजर भारतीय सिनेमा पर डाली जाये तो हमारे देश में बनने वाली लगभग हर दूसरी फिल्म की कहानी के केन्द्र में एक प्रेम-प्रसंग होता है और कहानी को पर्दे पर उतारने में माहिर निर्देशक प्रेम-प्रसंगों के इर्द-गिर्द घूमने वाले नायक-नायिकाओं के चरित्र को इस प्रकार उकेरते हैं कि दर्शक के रूप में सिनेमाघरों में बैठे हम सब नायक-नायिकाओं की जाति-धर्म को भूलकर इन नायक-नायिकाओं के प्रेम की परिणति सिर्फ उनके विवाह या मिलन के रूप में ही चाहने लगते हैं। लगभग यही स्थिति भारतीय टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले अधिकांश धारावाहिकों की भी है, जहां अकबर से लेकर श्रीराम और श्रीकृष्ण तक को जोधा, सीता और राधा के नजरिए से प्रस्तुत करने की कोशिशें आये दिनों छोटे पर्दे का हिस्सा बनती हैं। लेकिन दोहरे मानदण्डों का पूरा प्रशिक्षण देने वाला हमारा समाज हम सबको बचपन से ही दोहरे चरित्र के साथ जीना सिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। स्मृतियों के दरवाजे पर हल्की सी दस्तक देने पर ही बचपन की वह बातें आसानी से याद आ जाती हैं जब प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के दौरान ही नैतिक शिक्षा की पुस्तक में पढ़ाया जाता था कि अपने से बड़ों का सम्मान करना चाहिये, सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिये, हिंसा का त्याग करना चाहिये, सभी जीवधारियों से प्रेम करना चाहिये आदि। लेकिन स्कूल की चारदीवारी से निकलते ही समाज हमें एक दूसरा प्रशिक्षण देता था कि अपनी आयु से बड़े व्यक्तियों का सम्मान तो करना है, लेकिन जो व्यक्ति निम्न पदों पर कार्य करने वाले हों या जो सामाजिक ढांचे के तानेबाने के अनुसार निम्न जातियों से ताल्लुक रखते हों, हमारे निजी सम्प्रदाय से भिन्न अन्य किसी सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हों, वे उम्र में भले ही बड़े हों, लेकिन उनका सम्मान न भी किया जाये तो कोई बुराई नहीं है। एक प्रकार से ऊंच-नीच और साम्प्रदायिकता की एक बड़ी खाई के विषय में हम सबको अप्रत्यक्ष रूप से प्रशिक्षित कर दिया जाता है। कमाल की बात ये है कि शिक्षा का पर्याप्त प्रसार हो जाने के बाबजूद भी हम में से अधिकांश अपने व्यवहारिक जीवन में न तो विद्यालय और किताबों से मिले हुए तार्किक ज्ञान को ही प्राथमिकता पर रखते हैं और न ही मल्टीप्लेक्स में बैठकर पाॅपकाॅर्न के साथ बहाये गये उन आंसुओं को याद रखते हैं, जो नायक-नायिकाओं के विरह के फलस्वरूप हमने अपनी जेबें ढीली करके बहाये थे।
चन्द अपवादों को छोड़ दिया जाये तो आज भी स्थितियां यह है कि शिक्षित परिवारों के व्यस्क युवाओं द्वारा भी स्वस्थ प्रेम सम्बन्धों के आधार पर अन्य जाति-धर्म के युवक-युवती से विवाह की इच्छा जाहिर करने पर इस प्रकार के प्रस्तावों को अमूमन अस्वीकार कर दिया जाता है और कई बार ये स्थितियां आॅनर किलिंग जैसे मामलों तक का रूप ले लेती हैं। यदि हम अपने आसपास नजर दौड़ाये ंतो असानी से हमें इस तरह के कुछेक मामले देखने को मिल ही जाते हैं। विवाह और प्रेम प्रसंगों के मामलों को छोड़ भी दिया जाये तो भी समाज में ऊंच-नीच और साम्प्रदायिक-जातिगत पूर्वाग्रहों का प्रभाव इस स्तर तक है कि हाल ही मे उत्तराखण्ड के टिहरी जनपद में एक दलित युवक की हत्या मात्र इसलिए कर दी गई कि उसने एक विवाहोत्सव में कुर्सी पर बैठकर खाना खा लिया था। धर्मनिरपेक्षता का दावा ठोंकने वाले तमाम राजनीतिक दलों ने भी चुनावी माहौल में अपने प्रत्याशियों को साम्प्रदायिक-जातिगत समीकरणों के आधार पर टिकट बांटकर सम्प्रदाय और जाति की इस खाई को और भी बड़ा करने का ही काम किया है। स्थितियां यह हो चली हैं कि आज धर्म और जाति का कार्य न तो मानव व्यवहार का नियंत्रण रह गया है और न ही कार्य वितरण। बल्कि आज धर्म और जाति की विकृत अवधारणायें समाज में घृणा फैलाने वाले कारकों के रूप में कार्य कर रहे हैं और समाज को विभाजित करने में अहम भूमिका निभा रही हैं। साम्प्रदायिक-जातिगत पूर्वाग्रहों के फलस्वरूप पनप रही नफरत के बीच क्या हम धर्म और जाति के यथार्थ रूप से समाज को कभी परिचित करा पायेंगे और यह स्थिति पैदा कर पायेंगे कि स्कूलों और किताबों में पढ़ी जाने वाली नैतिकता को हम सब व्यवहारिक जीवन में भी आत्मसात कर पायें?
आज भले ही हम अपनी-अपनी राजनैतिक आस्थाओं के अनुरूप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विभाजन का जिम्मेदार मान लें या उनको इस आरोप से दोषमुक्ति दे दें, लेकिन भारतीय समाज के लिये यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि क्या विभिन्नता में एकता का मूलभाव रखने वाले भारतीय समाज में विभिन्न जाति और सम्प्रदायों के आधार पर विभाजित होकर रहना ही हमारी नियति हो चुकी है? यदि तुष्टिकरण की राजनीति का शिकार हो आम जनता सिर्फ और सिर्फ अपने सीमित जाति-सम्प्रदाय के हितों के विषय में ही सोचती रहेगी तो निश्चित ही तुष्टिकरण की राजनीति के संवाहक के रूप में तमाम राजनेता आते रहेंगे और हम फिर विभाजित होते रहेंगे, फिर भले ही इस विभाजन का जिम्मेदार किसी को भी ठहराया जाये।