माता कुमाता न भवति

 



























               *ए माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी.....*.















 ईश्वर हर किसी के पास नहीं पहुँच पाया होगा, शायद इसीलिए अपनी प्रतिकृति माँ के रूप में पृथ्वी पर भेज दी। माँ संतान के लिए ईश्वर का अद्वितीय उपहार है। माँ की दुआओं में दुनिया की सारी दौलत है , माँ भाव है, दुलार है , ममता का लहराता सागर है जिसके प्रेम का कोई ओर छोर नही है । माँ वो दिल है जिसको निकाल संतान किसी को देने के लिए चल देती है परंतु उसी सन्तान को ठोकर लगने पर माँ का दिल कराह उठता है और उसे संभल कर चलने की हिदायत देता है। एक माँ ही है जिसका प्रेम विपरीत परिस्थितियों में भी नही बदलता। संतान उसके साथ चाहे जितना भी गलत व्यवहार करे किंतु माँ कभी उसे शाप नही देती।

     'पुत्र कुपुत्र जायते, माता कुमाता न भवति।,माँ से ही घर की परिभाषा बनती है । माँ के अभाव में घर ईंटों से बना मकान है।

    माँ के दिये संस्कारों से व्यक्ति महान बनता है और समाज मे सम्मान पाता है। जितने भी महापुरुष व गौरवशाली महिलाएं हुई हैं उनकी श्रेष्ठता का कारण माँ द्वारा की गई परवरिश होती है।कहा भी जाता है यदि व्यक्ति के गुणों की परीक्षा करनी है तो उसकी माता के गुणों को जान लो। माता की प्रेरणा से ही ध्रुव पिता और राज सिंहासन से भी ऊँचा स्थान प्राप्त करके आज भी आसमान में तारा बनकर उत्तर दिशा में चमक रहा है । वीर माता जीजाबाई के त्याग और प्रेरणा से शिवाजी को छत्रपति बनने का गौरव प्राप्त हुआ । स्त्री त्याग और बलिदान की मूरत होती है। कर्तव्यनिष्ठा की भावना उसमें कूट कूटकर भरी होती है । ऐसी ही बलिदानी कर्तव्यनिष्ठ माँ पन्ना धाय के त्याग को कौन नही जानता जिन्होंने कर्त्तव्य पालन के लिए उफ किये बिना अपने पुत्र को राजपुत्र बचाने के लिए बलिदान कर दिया  । इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है।माँ के त्याग और निश्वार्थ प्रेम के कारण ही उसे पिता से ऊपर स्थान दिया गया है।

 

माँ की ममता और दुलार के उद्धरण साहित्य और धर्म ग्रंथो में अनेकत्र मिलते हैं । माँ तो अपनी अहेतुकी करुणा और प्यार  संतान पर न्योछावर करना जानती है। फिर भले ही उस संतान को उसने अपने गर्भ को जन्म दिया हो या न दिया हो उसके प्रेम में कोई भेद नही होता । ऐसा ही दिव्य प्रेम मां यशोदा का कृष्ण के साथ था । कृष्ण को अपने उदर से उत्पन्न न करने के बावजूद यशोदा आज भी उनकी माता के रूप में पूजित हैं अपने निस्वार्थ प्रेम और अहर्निश सेवा का कोई प्रतिफल नही चाहती । संतान को  जन्म देने में उसे असह्य वेदना सहनी पड़ती है। उसकी सुन्दर काया भी विकृत हो जाती है । परन्तु वो संतान को देखकर कर मुस्कराती है । उसका रक्षा कवच बनकर निरन्तर उसके साथ रहती है और उसका मार्गदर्शन करती है। सही कार्य  के लिए उसे प्रेरित करने के साथ साथ चुनौती का सामना करना सिखाती है ।इसलिए माँ और मातृभूमि को स्वर्ग से भी गुरुतर माना जाता है । 

*जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी*

बदले हुए परिवेश में माँ की भूमिका भी परिवर्तित हो रही है , अब वह स्वयं आत्मनिर्भर बनकर धन का अर्जन कर रही है और संतान को भावनात्मक रूप से सम्बल प्रदान करने के साथ साथ आर्थिक रूप से भी सशक्त कर रही है और उसके लिए निर्णय भी ले रही है  । माँ के इसी गरिमामयी स्वरूप का स्मरण करने के लिए प्रतिवर्ष 12  मई को  *मातृ दिवस* मनाया जाता है । और उसका सम्मान किया जाता है । मातृ दिवस मनाकर माँ की वंदना करना निश्चित ही प्रशंसनीय है परंतु जो माँ हमारे ऊपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है और बदले में अपने श्रम और त्याग का कोई मूल्य नही चाहती तो क्या हमारे वयस्क हो जाने पर मां की वृद्धावस्था में सिर्फ मातृ दिवस मना करके उसकी चरण पूजा कर देना ही पर्याप्त है?  जो मां हमारे पालन पोषण और समाज मे सम्मानित इंसान के रूप में जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाने में अपने स्वास्थ्य व उज्जवल भविष्य की चिंता किये बिना दिन रात सेवा में तत्पर रहती है वो मां  हर दिन हमारे स्नेह और परवाह की अधिकारी नहीं है क्या ?  वृद्धावस्था में एकाकी जीवन यापन करती माताएँ और वृद्धाश्रमों का बढ़ता हुआ ग्राफ

क्या हमारी कर्तव्यहीनता को इंगित नही करता ? आज समाज के सामने यक्ष प्रश्न है यदि माँ भी अपने कर्तव्य से विमुख हो जाए , अपनी स्वाभाविक करुणा , ममता और उदारता को तिलांजलि दे दे तो क्या इंसान भावनात्मक  रूप से दृढ़ होगा ? यदि संतान की क्रूरता को देखते हुए स्त्री संतान उत्पन्न करना बन्द कर दे तो क्या सृष्टि गतिशील रह पाएगी ? इन प्रश्नों पर मंथन करने की  आवश्यकता है और परिवार में माँ के गौरवमयी स्थान को बनाये रखने की जरूरत।