महा-परिवर्तन का जनादेश






लोकसभा चुनाव के नतीजों को लेकर विपक्षी खेमे में मची अफरातफरी और कांग्रेस, सपा व तृणमूल कांग्रेस तक में इस्तफों के अंबार का जो माहौल देखा जा रहा है वह यूं ही नहीं है। चुनाव तो आते-जाते रहते हैं और चुनावी हार-जीत का सिलसिला भी लगा ही रहता है। लेकिन इस बार का चुनाव परिणाम कतई सामान्य नहीं है जिसे सहज सामान्य तरीके से स्वीकार किया जा सके। वास्तव में यह महा-परिवर्तन का जनादेश है जिसमें तमाम स्थापित परंपराएं व मान्यताएं पूरी तरह तिरोहित होकर रह गई हैं। इस परिवर्तन को नहीं समझ पाने के कारण ही विपक्ष को इस कदर शर्मनाक शिकस्त का सामना करना पड़ा है और अब परिवर्तन का एहसास हो जाने के कारण ही उसके अनुरूप खुद को ढ़ालने की राह तलाशी जा रही है। इस जनादेश को गहराई से समझने की कोशिश करें तो यह जहां एक ओर जातिवाद और संप्रदायवाद की सियासत की समाप्ति का जयघोष है वहीं दूसरी ओर परिवारवाद और विरासत की राजनीति पर पूर्णविराम का भी एहसास करा रहा है। वर्ना अमेठी से राहुल गांधी का, गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया का, कन्नौज से डिंपल यादव का, बदायूं से धर्मेन्द्र यादव का और बिहार से लालू के लालों का पूरी तरह सूपड़ा साफ नहीं होता। सूपड़ा तो जाट वोट बैंक की विरासत को आगे बढ़ानेवाले अजित सिंह और भूपेन्द्र हुड्डा के परिवार से लेकर चैधरी चरण सिंह, भजन लाल और एनटीआर की विरासत संभाल रहे चंद्रबाबू नायडू का भी साफ हो गया है। वास्तव में देखा जाए तो उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति को जातिवाद की शिकार बताते हुए भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बताया जा रहा था, लेकिन नतीजे बताते हैं कि जब देश का चुनाव हो तो मतदाता भी संकीर्ण सोच से बाहर निकल कर मतदान करते हैं। गठबंधन के बावजूद भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ना युवा मतदाताओं के रुझान का भी संकेतक है। गठबंधन में कांग्रेस की मौजूदगी भी शायद नतीजों को नहीं उलट पाती, पर अमेठी से राहुल की हार और उत्तर प्रदेश के लिए कांग्रेस की ट्रंप कार्ड प्रियंका गांधी की विफलता में पार्टी के लिए कई सबक निहित हैं। यूपी में गठबंधन की हार ने यह जता दिया है कि देश की जनता जात-पात की राजनीति से पूरी तरह ऊब गयी है। 

यही कारण है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की चुनौती ध्वस्त कर दी गई और बिहार में कथित महागठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया। मध्य भारत की 40 में से 37, पश्चिम भारत की 78 में से 73, पूर्वी भारत की 117 में से 73 और उत्तरी भारत की 151 में से 119 सीटें भाजपा-एनडीए ने जीत कर हासिल की हैं। हालांकि दक्षिण की 131 में से 32 सीटें ही एनडीए की झोली में आईं, लेकिन वह भी कामयाबी का एक बेहतर स्तर है, क्योंकि दक्षिण में भाजपा-एनडीए का विस्तार और राजनीतिक प्रभाव सीमित है। दरअसल जिन 159 सीटों पर दलित वोट निर्णायक हैं, वहां 90 से अधिक सीटें राजग गठबंधन ने जीती हैं। मुस्लिम निर्णायक 103 सीटों पर भी करीब 55 सीटें हासिल की गई हैं। आदिवासियों की बहुलता और असर वाली 68 में से 50 सीटों पर भाजपा-एनडीए उम्मीदवार सफल रहे हैं, लिहाजा विश्लेषण यह होना चाहिए कि अब भाजपा बनियों, ब्राह्मणों और व्यापारियों की ही पार्टी नहीं रह गई है। बेशक उसका विस्तार हुआ है, लिहाजा जिन इलाकों में किसानों से जुड़े मुद्दे सुलगते रहे हैं या हावी रहे हैं, वहां भी ज्यादा जनादेश भाजपा-एनडीए के पक्ष में है। नरेंद्र मोदी के ऊपर आरोप चाहे जो हों, लेकिन तथ्य यह बता रहे हैं कि उन्होंने गरीबों के लिए जिन कल्याणकारी योजनाओं को लागू किया, उसमें उन्होंने हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं किया, जाति नहीं देखी, बल्कि जो जरूरतमंद हैं, उनके लिए काम किया। तमाम परियोजनाओं को जनता के लिए लेकर आये, ताकि देश का निर्माण एक आयाम स्थापित कर सके। 2014 के जनादेश की तर्ज पर इस बार भी भाजपा ने राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, हिमाचल, उत्तराखंड आदि राज्यों में लगभग 100 फीसदी सीटें जीती हैं। इस जनादेश के साथ ही 18 राज्य 'कांग्रेस मुक्त' हो गए हैं। हमारा यह दावा नहीं है कि इतने राज्यों में कांग्रेस का खात्मा हो गया है। राजनीति में ऐसा संभव नहीं है, लेकिन इतने राज्यों में कांग्रेस का चुनावी प्रभाव बेहद क्षीण हो गया है, जनता ने उसे बिलकुल नकार दिया है। नतीजतन देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मात्र एक सीट तक सिमट कर रह गई है। उसके बड़े, राष्ट्रीय नेता चुनाव हारे हैं। भाजपा जैसी काडर आधारित पार्टी में औसत कार्यकर्ता भी श्रेय का पात्र होता है। यदि कांग्रेस 50-55 सीटों तक सिमट कर रह गई है और समूचा विपक्ष अभियान छेड़ने के बावजूद मोदी, भाजपा-एनडीए की खूबसूरत जीत को थाम नहीं पाया है, तो दो निष्कर्ष तय लगते हैं। यह जनादेश मोदी सरकार की योजनाओं और कार्यक्रमों पर औसत नागरिकों का राष्ट्रीय अभिमत भी है। आश्चर्य यह है कि दिसंबर, 2018 में जिन तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने भाजपा को पराजित कर सफलता हासिल की थी और सरकारें बनाई थीं, वहां अब भाजपा ने उसका सूपड़ा साफ कर दिया है। निःसंदेह नये भारत की राजनीति में परिवार व जाति आधारित राजनीति और घपले- घोटालों को जनता बर्दाश्त नहीं कर सकती है। भाजपा ने राष्ट्रवाद को चुनाव में मुद्दा बनाया है। हालांकि, भाजपा का राष्ट्रवाद बिल्कुल अलग प्रकार का है। राष्ट्रवाद की अलग-अलग परिभाषा हो सकती हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में क्षेत्रीय दल किसी एक खास परिवार पर निर्भर हो चुके हैं, उनकी राजनीति और रणनीति भी इन्हीं परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती है, जबकि राजनीति हमेशा ऐसी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर होनी चाहिए। इस ऐतिहासिक, अप्रत्याशित और अंचम्भित करने वाले जनादेश का सार यह है कि देशवासी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को ध्यान रखकर मतदान करने लगा है। हर मोर्चे पर मोदी सरकार कामयाब नहीं थी, आर्थिक नीतियों की विसंगतियों का त्रास जनता ने भोगा। रोजगार के मुद्दे पर भी सरकार आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी। लेकिन फिर भी जनता को विश्वास है कि मोदी ही कुछ कर सकते हैं। तभी 'एक बार फिर मोदी सरकार' के नारे को हकीकत में बदल दिया। बहरहाल 2019 का चुनाव संपन्न हुआ, जनादेश के जरिए भारत विजयी रहा, ऐसा प्रधानमंत्री ने भी माना है।