मतदान आंकड़ों के सार्वजनिकरण में सावधानी जरुरी


         (डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा)


देश में सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव संपन्न हो गए हैं। देशवासियों ने अपने प्रतिनिधियों को चुन लिया है। काफी हो हुल्ला के बावजूद देश में निष्पक्ष चुनाव संपन्न हो गए हैं। दरअसल देश की चुनाव व्यवस्था की सारी दुनिया लोहा मानती है। ऐसे में चुनाव आयोग की कार्यशैली पर उठाए जाने वाले विवादों को आम जनता भी अधिक गंभीरता से नहीं लेती। खैर जनता ने अपने प्रतिनिधि चुन लिए है। एनडीए को स्पष्ट बहुमत देकर अपनी मंशा जता दी है। ऐसे में अब जनप्रतिनिधियों का दायित्व हो जाता है कि वह अपने आप को किसी दल या क्षेत्र या जाति या वर्ग या धर्म-संप्रदाय विशेष का प्रतिनिधि नहीं मानकर लोकसभा क्षेत्र के सभी नागरिकों का प्रतिनिधि मानकर उपर उठकर विकास की राह अपनाएं। यह करीब करीब साफ है कि 17 वीं लोकसभा के लिए भी ओसत मतदान 70 फीसदी से कम रहा है। इसका मतलब यह है कि 100 में से 30 लोगों ने तो अपने मताधिकार का उपयोग ही नहीं किया है। हांलाकि सर्वोच्च न्यायालय ऐसे लोगों पर कड़ी टिप्पणी कर चुका है कि कर्तव्य विहीन ऐसे लोगों को सरकार की आलोचना करने या कुछ मांगने का भी हक नहीं है। आखिर लोगों को अपने कर्तव्य को समझना होगा। चुनाव सुधारों की दिशा में आगे बढ़ते चुनाव आयोग को अभी काफी कुछ करना है। मतगणना के बाद से मतप्रतिशत और कहां से किसकों कितने मत मिले है के आंकड़े जारी किए जा रहे हैं। इस तरह के आंकड़े जारी करना आम रहा है। पर कहीं कहीं ना कहीं लगता है कि इस तरह के आंकड़ों से सामाजिक समरसता प्रभावित होती है। समाचार पत्रों में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार किस बूथ पर किस प्रत्याशी को कितने वोट मिले हैं इस तरह के आंकड़ों से कहीं ना कहीं व्यक्तिगत तो नहीं पर क्षेत्र विशेष या यों  कहें कि बूथ विशेष की पार्टी विशेष के प्रति प्रतिवद्धता से सामने होने से हारने व जीतने वाले दोनों ही नेताओं पर उस क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति एक अलग तरह की प्रतिक्रिया या कहें कि रिएक्शन सामने आता है। वैसे भी चुनाव आयोग कहता आया है कि मतदाताओं का मत गोपनीय होता है और इसकी किसी को जानकारी नहीं होती कि किसे किसको मत दिया है। ऐसे में चुनाव सुधारों में इस और ध्यान दिया जाना जरुरी हो जाता है।
देश के 61 करोड़ 30 लाख मतदाताआंे का आभार, भारत के निर्वाचन आयोग और उसकी टीम का आभार, लोकतंत्र के प्रहरियों का आभार। 17 वीं लोकसभा के सात चरणों के मतदान के बाद 23 मई को चुनाव परिणामों के साथ ही नई संसद का आगाज हो गया है। एनडीए को स्पष्ट बहुमत देकर मतदाता ने अपना काम कर दिया है। चुनाव आयोग को भी इस बात का आभार की लाख आलोचनाओं के बावजूद देश में साफ सुथरा चुनाव संपन्न हो गया। बंगाल की घटनाओं को अलग कर दिया जाए तो समूचे देश में शांतिपूर्ण चुनाव संपन्न हो गए। इस बात के चुनावों की खासबात यह कि मोदी बनाम अदर्स चुनाव होने और चुनाव परिणाम से पहले एक्जिट पोल च सटोरियों की घोषणाओं को अलग कर दिया जाए तो किसी को भी इस तरह के स्पष्ट जनादेश की संभावनाएं नजर नहीं आ रही थी। एक्जिट पोल के परिणाम भी लोगों के यहां तक किसी भी राजनीतिक दल के गले नहीं उतर रहे थे क्योंकि आम मतदाता कहीं मुखर ही नहीं लग रहा था। देखा जाए तो यह अंडर करंट वाली स्थिति रही है। यदि राजनीतिक दलों या विश्लेषकों को इस अंडर करंट का थोड़ा सा भी अंदेशा होता तो मतगणना के एक दिन पहले तक विरोधी दल चुनाव आयोग व अन्य स्थानों पर गुुहार नहीं लगाते। विश्लेषक तो यहां तक मानते हैं कि मोदी-शाह को छोड़ दिया जाए तो भाजपा या एनडीए के घटक दलों को भी अंदेशा नहीं था। इसका सीधा सीधा अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि एक दिन पहले के अमित शाह के भोज के लिए उद्धव ठाकरे और नीतिश कुमार की उपस्थिति के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े। हां इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी-शाह की जोड़ी के हौसले पूरी बुलंदी पर थे। उन्हें लगता है वोटो की इस सुनामी का अंदाज था।
देश की चुनाव व्यवस्था की जितनी तारीफ की जाए वह कम है। वेलट पेपर से होने वाले चुनाव अब ईवीएम से भी एक कदम आगे वीवीपेट तक पहुंच गए हैं। चुनाव परिणाम से पहले वीवीपेट की गणना को लेकर काफी हो हुल्ला रहा। सर्वोच्च न्यायालय तक के दरबाजे खटखटाए गए पर प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में पांच पांच वीवीपेट मशीनों के मिलान का निर्णय ही आखिर में माना गया। चुनाव आयोग में सुधारों का दौर जारी है। ऐसे में राजनीतिक दलों या अध्येताओं को मतदान आंकड़े जारी किया जाना तो न्यायसंगत हो सकता है पर सार्वजनिक रुप से बूथ बार आंकड़े जारी होने से आपसी समभाव प्रभावित होता है। हांलाकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नेता चुने के बाद अपने पहले ही उद्बोधन में जनप्रतिनिधियों के लिए कोई पराया नहीं होता कह कर जनप्रतिनिधियों को उपर उठकर कामकरने की नसीहत दी है। यह शोभनीय व व्यापक हित में भी है पर यदि इस तरह के आंकड़े सार्वजनिक करने में संकोच किया जाए, सतर्कत बरती जाए तो अधिक उपयुक्त माना जा सकता है। इससे गोपनीयता बनी रहने के साथ ही मतदान के प्रति और अधिक उत्साह सामने आएगा। राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग और इस क्षेत्र में काम कर रहे अध्येताओं को इस तरह के आंकड़ों के सार्वजनीकरण पर बहस छेड़नी होगी और उसके बाद कोई ठोस निर्णय करना होगा ताकि मतदान की पवित्रता, गोपनीयता और आपसी दुराभाव की स्थिति नहीं बन सके। लोकतंत्र की जय, मतदाता की जय। भारत भाग्य विधाता की जय।