प्रेस की चुनौतियां

                                    विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस-3 मई 


                                                    (बाल मुकुन्द ओझा )


तीन मई का दिन दुनियाभर में प्रेस की आजादी के दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रेस स्वतंत्रता के बुनियादी सिद्धांतों, मूल्यों और प्रेस की स्वतंत्रता पर हो रहे हमले का बचाव करने और अपने पेशे को जिम्मेदारी और ईमानदारी से निभाते हुए जान गंवाने वाले पत्रकारों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हर साल यह दिन मनाया जाता है। प्रेस के सामने पहले भी चुनौतियां थीं और आज भी हैं। कलम में बहुत ताकत होती है, आजादी के दौरान पत्रकारों ने अपनी कलम के बल पर अंगे्रजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। प्रेस सरकार और जनता के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में अपनी महती भूमिका का निर्वहन करता है। आधुनिकीकरण व सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार के फलस्वरूप मीडिया की आचार नीति और चुनौतियों के स्वरूप में परिवर्तन आया है। डिजिटल युग में सोशल मीडिया पर कई चैनलों का प्रसार हुआ है। आवश्यकता इस बात की है कि पत्रकार सोशल मीडिया पर वैसे खबरों को ही पोस्ट करें, जिससे सामाजिक संबंधों का निर्माण होता हो। प्रेस की चुनौतियां लगातार बढ़ती ही जा रही है। प्रेस को आंतरिक और बाहरी दोनों मोर्चों पर संघर्ष करना पड रहा है। इनमें आंतरिक संघर्ष अधिक गंभीर है। प्रेस आज विभिन्न गुटों में बंट गया है जिसे सुविधा के लिए हम पक्ष और विपक्ष का नाम देवे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा आज भी लोग प्रिंट मीडिया को अधिक विश्वसनीय मान रहा है।


प्रेस को आज चैतरफा खतरे का सामना करना पड़ रहा है। कहीं शासन के कोपभाजन का सामना करना पड़ता है तो कहीं राजनीतिज्ञों ,बाहुबलियों और अपराधियों से मुकाबला करना पड़ता है। समाज कंटकों के मनमाफिक नहीं चलने का खामियाजा प्रेस को भुगतना पड़ता है। दुनिया भर में प्रेस को निशाना बनाया जा रहा है। रिपोर्टिंग के दौरान मीडियाकर्मी को कहीं मौत के घाट उतारा जाता है तो कहीं जेल की सलाखों की धमकियाँ दी जाती है। मीडिया पर भी आरोप है कि वह अपनी जिम्मेदारियों का सही तरीकें से निर्वहन नहीं कर पा रहा है। कहा जा रहा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हमारे सामाजिक सरोकारों को विकृत कर बाजारू बना दिया है। बाजार ने हमारी भाषा और रचनात्मक विजन को नष्ट भ्रष्ट करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। ऐसे में प्रेस की चुनौतियों को नए ढंग से परिभाषित करने की जरुरत है।
मीडिया के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है उसकी विश्वसनीयता बनी रहे। विश्वसनीयता और स्वतंत्रता हर क्षेत्र की जरूरत है। इसके अभाव में समाज में अराजकता उत्पन्न होना स्वभाविक है। मीडिया नागरिकों के सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त करता है। मगर देखा जाता है मीडिया सत्ता और उसके विरोधी खेमे में बंट कर अपनी विश्वसनीयता को दावं पर लगा देता है जिसका खामियाजा अंततोगत्वा लोकतंत्र को ही उठाना पड़ता है। विश्वसनीयता का कम होना, अखवार बन्द होने से अधिक खतरनाक है। किसी की कठपुतली बनने अथवा अंध समर्थन या विरोध हमारी लोकतान्त्रिक मर्यादाओं को नष्ट करता है जिसे बचना निहायत जरुरी है। किसी निर्दोष को बिना सत्य जाने आरोपित करना पाप के सामान है।
प्रेस के माध्यम से हम देश दुनियां में घटित होने वाली गतिविधियों से अवगत होकर अपना ज्ञान बढ़ाते है। मीडिया की आजादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के साथ प्रेस को चैथा खंभा माना जाता है। प्रेस इनको जोड़ने का काम करती है। प्रेस की स्वतंत्रता के कारण ही कार्यपालिका , न्यायपालिका, और विधायिका को मजबूती के साथ आम आवाम की भावना को अभिव्यक्त करने का अवसर हासिल हुआ है। कभी कभी प्रेस पर तिल को ताड बनाने का आरोप लगाया जाता है राजनीतिक दलों और नेताओं को राह दिखाने का काम भी बहुधा मीडिया ही करती है। आम आदमी को रोटी कपडा और मकान की बुनियादी सुविधा सुलभ करने में भी प्रेस की अहम् भूमिका है। भ्रष्टाचार से लड़ने का काम भी प्रेस ने बखूबी किया है। सत्ता की नाराजगी का दंश भी मीडिया को झेलना पड़ा है। 1975 में आम आवाम के हक की लड़ाई लड़ने वाले विपक्ष का समर्थन करने पर आपातकाल के नाम पर मीडिया का गला घोँट दिया गया था। सेंसरशिप का सामना भारतीय प्रेस को करना पड़ा था। अनेक अखबारों पर सरकारी छापे पड़े। विज्ञापन रोके गए। बहुत से अखबार जुल्म ज्यादती के शिकार होकर अकाल मोत के शिकार हो गए। बहुत से पत्रकारों को जेलों में भी डाला गया। इसके बावजूद भारत की प्रेस घबराई नहीं और इस आपदा का डटकर मुकाबला किया। यह प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने का ही फल था की एक सरकार का लोकतान्त्रिक तरीके से शांति के साथ तख्ता पलट हुआ।