सइयां कोतवाल, सब मालामाल

सैद्धांतिक तौर पर राजनीति को भले ही देश सेवा व जनता जनार्दन के हितों से जोड़कर दिखाने की परंपरा रही हो और तमाम राजनेता खुद को देश व जनता के प्रति समर्पित बताते हों लेकिन व्यावहारिक पक्ष ऐसा नहीं है। व्यावहारिक तौर पर सेवा भाव से अधिक मेवा भाव ही प्रबल दिखाई देता है जिसमें सियासत को साधन व माध्यम बना कर सत्ता की मलाई हथियाने का प्रयास किया जाता है। अगर ऐसा नहीं होता तो नेताओं को अपने जीवन—यापन के लिये कुछ ना कुछ काम धंधा तो करना ही पड़ता। आखिर भूखे भजन ना होई गोपाला। लेकिन देखा यह जाता है कि जिन नेताओं की आमदनी का श्रोत स्पष्ट रहता है और जिनके काम—धंधे के बारे में सबको पता होता है उनकी कमाई तो एक निश्चित अनुपात में ही बढ़ पाती है लेकिन जिनका कोई काम धंधा अथवा कमाई का जरिया दिखाई नहीं पड़ता उनकी आमदनी में अनाप शनाप इजाफा होता रहता है। मिसाल के तौर पर कांग्रेस का शीर्ष संचालक परिवार हो या राजद, बसपा अथवा कई अन्य क्षेत्रीय दलों के संचालक व व्यवस्थापक। यह पता करना बेहद मुश्किल है कि आखिर इनके पास कौन सा खजाना आया जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। वर्ना कुछ ही दशक पूर्व सियासत में कदम रखने से काफी दिनों बाद तक बसपा व राजद सरीखे दलों के संस्थापक किस बदहाली व काफी हद तक फटेहाली में जीवन गुजार रहे थे यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन बाद में दिनों दिन उनकी चल—अचल संपत्तियों में दिन दूना और रात चौगुना इजाफा होता चला गया जिसकी आमद का कोई स्थाई या स्पष्ट श्रोत कहीं दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार के पूर्वजों ने आखिर कौन सा खजाना रख छोड़ा है जिसके दम पर बीती कई पीढ़ियों से बिना कोई काम धंधा किये वे लोग बादशाहों से भी बेहतर जीवन गुजार रहे हैं? निश्चित ही ये सभी मामले सत्ता के दुरूपयोग से जुड़ते हैं जिसमें महज कुछ लाख की लागत दिखाकर एक कंपनी बना ली जाती है या कागजी तौर पर इंवेस्टमेंट दिखा जाता है और बाद में करोड़ों का मुनाफा कूट लिया जाता है। जो लोग इन्हें मुनाफा देते हैं उनका कुछ तो लाभ जुड़ता होगा कि वे कागजी कंपनियों को अकूल मुनाफा करा देते हैं और पूरी कमाई वैध हो जाती है। यही आरोप रॉबर्ट वाड्रा के मामले में लगा जहां डीएलएफ से लोन लेकर डीएलएफ का ही फ्लैट बुक कर लिया जाता है। डीएलएफ लोन का ब्याज भी माफ कर देता है और बाद में लोन से लिया गया फ्लैट बेचकर करोड़ों का मुनाफा भी दिखा दिया जाता है। निश्चित ही कोई कंपनी किसी आम आदमी पर तो इस तरह मेहरबान होगी नहीं। निश्चित ही फायदा कहीं और रहता है, काम कुछ और दिखाया जाता है और मुनाफे के नाम पर कमाई किसी अन्य जरिये से हो जाती है। इस सबमें पूरा शासन—प्रशासन कुछ नहीं कर पाता क्योंकि सारा काम नियम कायदों के साथ वैधानिक तरीके से होता है। तभी तो राहुल गांधी के एक करोड़ के फार्म हाउस का कोई दागी कंपनी चार—पांच लाख रूपया महीना तक की दर से किराया अदा कर देती है और यह कभी पता नहीं चल पाता कि आखिर इतना अधिक किराया क्यों चुकाया गया। निश्चित तौर पर इन कंपनियों को कुछ अलग लाभ मिलता होगा और उसकी कहीं और भरपाई की जाती है। वाकई ऐसे मामलों में बेहद झोल—झाल होता है जिसकी कड़ियां ना तो आज तक जुड़ पाई हैं और ना ही मौजूदा कानूनों के प्रभावी रहते हुए इस व्यवस्था में ऐसे मामलों का कभी पूरा खुलासा हो पाएगा। ऐसा ही एक मामला फिर सामने आया है जो राहुल गांधी से सीधे तौर पर जुड़ता दिखाई देता है। इस मामले में राहुल के करीबी व्यवसायी को सीधे तौर पर मोटा मुनाफा हासिल हुआ है और देश सिर्फ ठगा हुआ देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। पूरा मामला यूं है कि वर्ष 2002 में भारत में बैकॉप्स सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड बनी थी। इस कंपनी में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी निदेशक थे। बैकॉप्स का अर्थ बैक ऑफिस होता है। यह न तो मैन्युफैक्चरिंग में थी और न ही सर्विस सेक्टर में बल्कि लायजनिंग कंपनी थी। इसका मकसद था काम कराके पैसे लेना। राहुल गांधी की मित्र मंडली में एक विंग कमांडर मट्टू भी थे जिन्हें कंपनी में रखा गया था। उन्हें रखने के पीछे उद्देश्य था रक्षा क्षेत्र के सौदे किए जा सकें। 2003 में लंदन में इसी नाम से यह कंपनी बनी और उसमें राहुल गांधी के अलावा एक अमेरिकी उलरिक मैकनाइट निदेशक थे। जून 2005 में इसमें राहुल 65 प्रतिशत के और मैकनाइट 35 प्रतिशत के हिस्सेदार थे। दोनों का लंदन का पता था 2 फ्रॉगनल वे लंदन। यह लंदन का विशिष्ट इलाका है इस घर के मालिक थे अजिताभ बच्चन और उनकी पत्नी रोमेला बच्चन। 2004 में राहुल गांधी ने अपने चुनावी हलफनामे में बैकॉप्स, यूरोप तथा तीन बैंक खातों की बात कही थी। 2009 में राहुल गांधी दोनों ही कंपनियों से निकल गए। 2011 में फ्रांसीसी फर्म को भारत सरकार ने स्कॉर्पीन पनडुब्बियों के निर्माण का भारत में कॉन्ट्रैक्ट दिया। उस कंपनी ने अपनी भारतीय सहयोगी कंपनी के साथ करार किया। उस ठेके में भारत की एक छोटी सी कंपनी फ्लैश फोर्ज भी आॅफसेट पार्टनर चुनी गई। फ्लैश फोर्ज ने 2011-12 में ऑप्टिकल आर्मर का अधिग्रहण कर लिया। दिलचस्प बात यह रही कि अमेरिकी नागरिक मैकनाइट उस कंपनी में निदेशक बना दिए गए। उन्हें कंपनी के 4.9 प्रतिशत शेयर दिए गए। यानि सरल भाषा में कहें तो उलरिक मैकनाइट की दो कंपनियों को फ्लैशफोर्ज ले लेती है। उसके बाद वे उसके निदेशक बन जाते हैं। उस कंपनी को ऑफसेट कान्ट्रैक्ट मिल जाता है। अब सवाल है कि उलरिक को कमाई के जो मौके मिले वह यूं ही तो मिले नहीं। इसका कुछ तो भुगतान कहीं ना कहीं किया ही गया होगा। वह भुगतान किस प्रकार किन रास्तों से कब और कितना किया गया इसका मनी ट्रेल जब तक सामने नहीं आता तब तक यह एक सामान्य व्यावसायिक मामला ही है जो कानून वैध है और इसके लिये किसी को कोई सफाई नहीं देनी। यानि कमाया, खाया और बाद में सब हजम। ऐसे ही चलती है सियासत और ऐसे ही मालामाल होते रहते हैं सियासत के सूरमा।