सूरदास के साहित्य को खंगालने की जरुरत

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के कवियों में सूरदास को सर्वक्ष्रेष्ठ माना जाता है। सूरदास की जयंती पूरे भारत में 9 मई 2019 को हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। कृष्ण भक्ति को एक आयाम देने वाले महाकवि सूरदास भगवान श्री कृष्ण के भक्त थे। सूरदास ने देश और दुनिया को भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से देश-दुनिया को परिचित करवाया। वह एक कवि, संत और एक महान संगीतकार थे। जन्म से ही अंधे सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक गांव में बहुत निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर श्रीकृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास को भगवान् कृष्ण का परम भक्त माना जाता है। कृष्ण की हर लीला का वर्णंन उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से इस प्रकार किया है कि हर ओर कृष्ण ही कृष्ण दिखाई पड़ते हैं। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम और भक्ति को अपनी रचनाओं के माध्यम से पूरी दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। सूरदास ने अपनी रचनाओं में वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रंगार रस को अपनाया था। सूरदास ने नेत्रहीन होने के बावजूद कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की और साथ ही एक मिसाल कायम करते हुए साबित किया कि प्रतिभा और गुण किसी के मोहताज नहीं होते। छह वर्ष की आयु में इन्होंने अपनी इस विद्या से अपने माता पिता को चकित कर दिया था और इस वजह से ये बहुत जल्द ही प्रसिद्ध हो गए थे। हिंदी साहित्य के प्रति उनका योगदान अतुल्य है इसलिए उन्हें हिंदी साहित्य का सूर्य माना जाता है।
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं। सूरसागर ग्रन्थ सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिले हैं। इसके अलावा सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल≠न्ती और ब्याहलो उनकी प्रमुख और प्रसिद्ध रचनाएं है।
सूर की काव्य प्रतिभा ने तत्कालीन शासक अकबर को भी आकर्षित किया। उसने उनसे आग्रहपूर्वक भेंट की थी जिसका उल्लेख भी प्राचीन साहित्य में मिलता है। सूरदास के पदों में भगवान श्री कृष्ण के सुंदर रूप और उनकी लीलाओं का वर्णन होता था। जो भी उनके पद सुनता था, वो ही श्री कृष्ण की भक्ति रस में डूब जाता था। इस तरह अकबर भी सूरदास जी का भक्तिपूर्ण पद-गान सुनकर अत्याधिक खुश हुए। कहा जाता है कि सम्राट अकबर ने महाकवि सूरदास जी से उनका यशगान करने की इच्छा जताई लेकिन सूरदास जी को अपने प्रभु श्री कृष्ण के अलावा किसी और का वर्णन करना बिल्कुल भी पसंद नहीं था।
सूरदास ने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का चित्रण बड़े मनोहारी और सुन्दर ढंग से किया है । माता यशोदा के द्वारा बालक श्रीकृष्ण जब मक्खन चुराते समय पकड़े जाते हैं तब वह किस प्रकार माता को समझाते हैं वह निम्न पंक्तियों में वर्णित किया है -
मैया मोरी, मैं नहिं माखन खायो । ग्वाल बाल सब बैर परत हैं, बरबस मुख लपटायो । री मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो।
इसी भांति बालक श्रीकृष्ण के इस दृश्य का भी मनोहारी चित्रण है जिसमें वह मक्खन हाथ में लिए हुए घुटनों के बल चलते हैं-
सोभित कर नवनीत लिए। घटरुनि चलत रेनु तन मंडित दधि मुख लेप किये।
सूरदास के काव्य में वात्सल्य, करुण, शांति एवं शृंगार आदि रसों का प्रयोग बहुलता से देखने को मिलता है । सही में सूरदास काव्य जगत के शिरोमणि कवि थे। सूरदास के काव्य में नर से नारायण तक की यात्रा का वर्णन है। सूर की रचनाओं का कालजयी होना इस बात का प्रमाण है कि वे अप्रतिम शब्द व शैली के प्रामाणिक शिल्पकार थे।
माना जाता है कि सूरदास ने अपने जीवन काल में करीब एक लाख रचनाएं लिखीं। इनमें से अधिकांश पांडुलिपियों के बारे में संसार अंधेरे में है। सूर साहित्य आज भी यत्र तत्र बिखरा पड़ा है जिसे सहेजने की जरुरत है। सूरदास के पाठकों की संख्या करोड़ों में है जिन्हें सूर साहित्य से लगाव है। वे चाहते है इस अमर साहित्य को एक बार फिर जन जन तक पहुँचाया जावे ताकि आज की पीढ़ी सूर साहित्य से परिचित हो सके।