सूत न कपास, शेरवानी की आस





लोकसभा चुनाव के लिये अभी सिर्फ प्रचार ही समाप्त हुआ है। अंतिम चरण का मतदान भी बाकी है और मतगणना के बाद चुनाव परिणाम सामने आने में भी अभी पांच दिन बचे हुए हैं। लेकिन चुनावी प्रक्रिया समाप्त होने से पूर्व ही विपक्षी खेमे में सरकार बनाने को लेकर जो हड़बड़ी का माहौल दिख रहा है वह अप्रत्याशित भी है और अनपेक्षित भी। अप्रत्याशित इसलिये क्योंकि अभी कुछ ही दिनों पूर्व जिन राजनीतिक दलों के बीच एकजुट होकर चुनाव लड़ने पर भी सहमति नहीं बन पाई, नेतृत्व के मसले पर आम राय नहीं बन सकी, नीतियों में विरोधाभास रहा और काफी हद तक इन्होंने आपस में एक दूसरे को भी चुनावी नुकसान पहुचाने से परहेज नहीं बरता, वे सभी अब मोदी सरकार का अस्तित्व मिटाने के लिये नए सिरे से एकजुट होने की कवायदों में जुट गए हैं। हालांकि यह उनका अधिकार भी है और जिम्मेवार राजनीतिक दल होने के नाते कर्तव्य भी कि देश को संवैधानिक संकट में ना फंसने दें और आम सहमति से देश में एक मजबूत सरकार बनाने का प्रयास करें। लेकिन हर बात का एक वक्त होता है और समय से पहले ही किस्मत से अधिक प्राप्त करने की कोशिश करना उपहास का पात्र बना देता है। यही हो रहा है विपक्षी दलों के साथ भी। देश के प्रति जिम्मेवार दिखने के लिये आवश्यक था कि पहले सभी मिल जुल कर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने की दिशा में आगे बढ़ते ताकि पूरी पारदर्शिता के साथ देश को यह बता सकें कि गैर-भाजपाई सरकार की नीति क्या होगी और किन योजनाओं को साकार करते हुए यह देश को किस दिशा में आगे ले जाएगी। लेकिन इस मसले पर कोई कुछ नहीं बोल रहा। सबका एक सूत्रीय एजेंडा है कि किसी भी तरह मोदी सरकार को उखाड़ फेंका जाए। यानि समग्रता में देखें तो इस गठजोड़ की जमीन ही नकारात्मकता से भरी हुई है। खैर, इस नकारात्मकता के बीच भी अगर इनकी नीयत साफ होती तो सीधे सरल लहजे में यह तय किया जा सकता था कि जिसकी जितनी संख्या बड़ी होगी उतनी सत्ता में भागीदारी अधिक होगी। लेकिन ऐसा कहना भी जरूरी नहीं समझा जा रहा है। स्थिति यह है कि सरकार तो सभी बनाना चाह रहे हैं लेकिन यह फार्मूला किसी के पास नहीं है कि किसकी सरकार बनेगी, कैसी सरकार बनेगी और किसलिये सरकार बनेगी। जाहिर है कि नजर सिर्फ सत्ता की मलाई पर है ना कि जनसरोकारों पर। इसमें भी इतनी बेसब्री कि चुनावी प्रक्रिया समाप्त होने और चुनाव परिणाम सामने आने का भी इंतजार करना गवारा नहीं हो रहा है। तभी तो अंतिम चरण के चुनाव से एक दिन पहले अगली सरकार बनाने के लिए गठबंधन करने की कोशिशें तेज करते हुए टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू सपा, बसपा, तृणमूल, आप, कांग्रेस, भाकपा, माकपा और राकांपा से लेकर शरद यादव सरीखे फुटकर नेताओं के साथ भी वार्ता प्रक्रिया शुरू कर दी है। नायडू ने सभी नेताओं से कहा है कि भाजपा को बाहर रखकर अगली सरकार बनाने के लिए हमें एक साथ आना चाहिए और मिलकर काम चाहिए। नायडू ने इस बात पर भी आम सहमति बनाने की कोशिश की है कि अगर भाजपा को पर्याप्त सीटें नहीं मिलती हैं और फिर भी वह सरकार बनाने का दावा करती है तो ऐसी स्थिति में रणनीति तैयार रखनी चाहिए। वे अगली सरकार बनाने के लिए संयुक्त भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने पर जोर दे रहे हैं और इसके लिये उन्होंने साफ शब्दों में ऐलान कर दिया है कि भगवा पार्टी का विरोध करने वाले किसी भी दल का महागठबंधन में स्वागत किया जाएगा। यानि इस पूरी कवायद को समग्रता में देखें तो विपक्ष ने अभी से यह मान लिया है कि इस बार संसद में किसी भी एक दल या चुनाव पूर्व गठबंधन को बहुमत हासिल नहीं होने जा रहा है। साथ ही उनका विश्वास यह भी है कि भाजपा के खिलाफ लड़नेवाले सभी दल इस बार अवश्य मालामाल हो जाएंगे जबकि भाजपा और उसके सहयोगियों को किसी भी सूरत में बहुमत का आंकड़ा हासिल नहीं होगा। इसी सोच और संभावना ने विपक्षी दलों की उम्मीदें भी जगाई हैं और उनके बीच एक डर का वातावरण भी बना दिया है। डर इस बात का कि कहीं बहुमत से कम पड़ रही सीटों का जुगाड़ करने के लिये भाजपा की ओर से विपक्षी खेमे में सेंध ना लगा दी जाए। हालांकि यह मानना तो बेवकूफाना ही होगा कि भाजपा के रणनीतिकार हाथ पर हाथ रख कर चुनावी नतीजा आने का इंतजार कर रहे होंगे। ऐसा होता तो प्रधानमंत्री के बगल में बैठकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह हर्गिज यह नहीं करते कि भले ही इस बार भाजपा को पिछली बार से अधिक सीटें मिलेंगी और वह राजग के घटक दलों के साथ मिलकर सरकार बनाएगी लेकिन विचारधारा के आधार पर अगर कोई भी दल राजग के साथ जुड़ना चाहेगा तो उसे सत्ता में भागीदार व साझेदार बनाने से परहेज नहीं बरता जाएगा। यानि औपचारिक तौर पर तो भाजपा ने भी अपने सहयोगी दलों की संख्या में वृद्धि करने की नीति का अभी से ऐलान कर दिया है। लेकिन खुले तौर पर अभी भाजपा की ओर से गठबंधन के प्रयासों की शुरूआत नहीं की गई है। निश्चित तौर पर भाजपा सब्र के साथ अंतिम चरण का मतदान समाप्त होने का इंतजार कर रही है और उसके बाद जमीनी स्थिति का जायजा लेकर और एग्जिट पोल के सर्वे का नतीजा सामने रखकर वह भी भविष्य की योजनाएं बनाने के लिये खुल कर सक्रिय होगी। लेकिन विपक्षी खेमे में बेसब्री का ही माहौल है। हालांकि उनकी चुनौतियां भी बड़ी हैं। उन्हें नीति भी तय करनी है और गठबंधन के लिये नेता का भी चयन करना है। अपने लोभ और महत्वाकांक्षांओं से भी निपटना है और सहयोगी को न्यूनतम भागीदारी पर संतुष्ट करने का भी प्रयास करना है। लेकिन राहें इतनी आसान नहीं हो सकती जहां कांग्रेस ने भी अब प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी ठोंक दी है और माया, ममता से लेकर नायडू और पवार भी उम्मीदों से भरे दिख रहे हैं। लिहाजा अब चुनावी नतीजा आने के बाद जो समीकरण बनेगा उसका मसला तो अलग ही है लेकिन उम्मीदों से भरे विपक्षियों द्वारा की जा रही जोड़-तोड़ व जुगाड़ की कवायदें अगले चार-पांच दिनों तक आम लोगों का भरपूर मनोरंजन अवश्य करेंगी।