स्वस्थ लोकतंत्र हेतु नोटा को मजबूत बनाने की जरूरत

                                  (मोर पाल सिंह)


आधुनिकीकरण के इस आधुनिक युग में प्रत्येक क्षेत्र में तीव्रता से परिवर्तन हो रहे हैं। इसी परिवर्तन का परिणाम चुनावी राजनीति में नोटा के रूप में हम सबके समक्ष उभरा है। विगत चुनावी वर्षाें में ये एक बेहतर विकल्प के रूप में हम सबका मार्गदर्शन कर चुका है क्योंकि प्रत्येक क्षेत्र में उम्मीदवार प्रत्याशियों में से कोई न कोई प्रत्याशी आपकी अपनी सोच के अनुरूप खरा उतरता है ये बिल्कुल आवश्यक नहीं है। सभी प्रत्याशियों  में से किसी के भी वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप उपयुक्त न होने और वर्तमान आवष्यकताओं की पूर्ति न कर पाने की स्थिति में नोटा के विकल्प ने निश्चित  रूप से चुनावी राजनीति में एक नई ताकत आम जनता को प्रदान तो की है, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में नोटा की स्वयं की कोई अस्तित्वात्मक परिभाषा न होने की वजह से यह अपने पूर्ण प्रभाव को दिखाने से पहले ही गम्भीर रूप से घायल कर दिया गया है। और इसको घायल करने वाला और कोई नहीं बल्कि इसके निर्माणकर्ता ही है जिन्होंने फिर से जनता के समक्ष इसे एक विकल्प के रूप में रखकर जनहित को ध्यान में रखने की भ्रमित लड्डू भी परोस दिया परन्तु उसके वोट प्रतिशत  का चुनाव पर असर का कोई निश्चित प्रभाव और उस प्रभाव की सम्भावनाओं की कोई भी सही परिभाषा न गढ़ कर अप्रत्यक्ष रूप से इस विकल्प को समाप्त भी कर दिया, क्योंकि कितना भी मत नोटा पर क्यों न पड़ जाये परन्तु चुनावी समर में जीत उसी की होगी जिसको एक मत भी अधिक मिला हो। इस तरह कितने बुद्धिजीवियों ने अपने मत के रूप में नोटा को चुना इससे उन उम्मीदवारों की जीत निर्धारित करने के साथ साथ उनकी प्रत्याषित राजनीति पर कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ  वर्तमान चुनाव में तो नोटा को अपना उल्लू सीधा करने का जरिया बनाने की कोशिश  करते हुए स्वयं के योग्य प्रतीत न होने की अवस्था में प्रत्याशियों द्वारा इसका अधिकाधिक प्रयोग करने के लिए लोगों से इसकी सिफारिश  करते अवश्य  सुना गया, जिससे उनके अनुसार विपक्षी पार्टी का एक वोट कम हो सके और उस मतदाता विषेष का मत व्यर्थ के रूप में परिभाषित होकर अप्रत्यक्ष रूप से उस प्रत्याषी विषेष की जीत एवं स्वार्थ सिद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। लेकिन प्रश्न ये है कि क्या हमारे लोकतंत्रात्मक देश  में लोकमत किसी भी स्थिति में व्यर्थ के रूप में निर्धारित करना उचित है या फिर उसके भी अपने आयाम और अपनी परिभाषा होनी चाहिए, विचार करने योग्य बात तो ये है कि नोटा का विकल्प चुनने का दमखम निश्चित  रूप से तार्किक और तुलनात्मक रूप से अधिक आलोचनात्मक व्यक्ति ही रख सकते हैं। तो क्या इनकी तथा  हमारी प्रत्याषित राजनीति और शासन तंत्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिए क्योंकि यह मत तो निश्चित  रूप से अन्य सभी विपरीत प्रभावात्मक पक्षों जैसे- धर्म, जाति, पार्टी सर्मथन तथा अन्य स्वार्थाें से इतर होकर पड़ा है जिसकी मांग अच्छे प्रत्याशित  और देश  को सुदृढ़ बनाने हेतु कार्यरत देश  के सच्चे सेवक सदैव से करते आये हैं। अतः यह अत्यन्तआवश्यक है कि यह निश्चित  किया जाये कि कितने प्रतिशत नोटा पर वोट पडे़ जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव सभी प्रत्याशियों  के वर्तमान चुनाव में अयोग्य सिद्ध होने के साथ साथ भविष्य में उनके चुनावी करियर को निर्धारित करेगा, साथ ही यह भी निश्चित  होना समय की मांग है कि प्रत्येक प्रत्याशी  को कुल मतदान का कम से कम कितना प्रतिषत मत प्राप्त करना अनिवार्य होगा जिससे उस चुनाव में उसकी सही उम्मीदवारी सिद्ध हो सके। तब चुनाव में लोकमत का प्रयोग सही रूप में स्वस्थ राजनीति को जन्म दे सकेगा, और तब ही लोकतंत्र में नोटा का सर्वाधिक उपर्युक्त प्रयोग निश्चित  हो सकेगा।