विद्यासागर की मूर्ति नहीं विचारों को खंडित करने का कुप्रयास

भारत के लोकसभा चुनाव में समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर की एंट्री भी हो गयी है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की रैली के दौरान मचे बवाल में इस महान समाज सुधारक की मूर्ति अज्ञात समाज कंटकों ने तौड़ दी जिसके कारण वे चर्चा में आ गये। शायद विद्यासागर को भी यह पत्ता नहीं था की जिस समाज को सुधारने के लिए वे जीवन पर्यन्त संघर्षरत हुए उसी समाज की हिंसा का शिकार हो जायेंगे। सच तो यह है उनकी मूर्ति नहीं अपितु उनके विचारों को खंडित करने का यह कुत्सित प्रयास हुआ है जो किसी भी सभ्य समाज के लिए बेहद शर्मनाक है। इस पर की ज ारही सियासत भी निश्चय ही निंदनीय है। सरकार को चाहिए वह उन समाज कंटकों को खोजकर कानून के हवाले करे जिन्होंने इस घिनोने कृत्य को जन्म दिया है। यह भारत माता के लाल का अपमान नहीं अपितु हमारे संस्कारों और संस्कृति का भी घोर अपमान है जिसे किसी भी हालत में सहन नहीं किया जा सकता। इससे पूर्व भी गाँधी और आंबेडकर की मूर्तियां खंडित हुई थी मगर प्रभावी कार्यवाही नहीं होने से समाज कंटकों के हौसले बुलंद हुए। महान दार्शनिक, समाजसुधारक और लेखक ईश्वरचंद विद्यासागर का जन्म 26 सितंबर, 1820 को कोलकाता में हुआ था। वह स्वाधीनता संग्राम के सेनानी भी थे। ईश्वरचंद विद्यासागर को गरीबों और दलितों का संरक्षक माना जाता था। उन्होंने स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह कानून के लिए खूब आवाज उठाई और अपने कामों के लिए समाजसुधारक के तौर पर भी जाने जाने लगे।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर का बचपन गरीबी में ही बीता। उन्होंने गांव के स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा ली और फिर अपने पिता के साथ कोलकाता आ गए। पढ़ाई में अच्छे होने की वजह से यहां उन्हें कई संस्थानों से छात्रवृत्तियां मिली। उनके विद्वान होने की वजह से ही उन्हें विद्यासागर की उपाधि दी गई थी।
साल 1839 में उन्होंने कानून की पढ़ाई पूरी की और फिर साल 1841 में उन्होंने फोर्ट विलियम कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया था। उस वक्त उनकी उम्र महज 21 साल ही थी। फोर्ट विलियम कॉलेज में पांच साल तक अपनी सेवा देने के बाद उन्होंने संस्कृत कॉलेज में सहायक सचिव के तौर पर सेवाएं दीं। यहां से उन्होंने पहले साल से ही शिक्षा पद्धति को सुधारने के लिए कोशिशें शुरू कर दी और प्रशासन को अपनी सिफारिशें सौंपी। इस वजह से तत्कालीन कॉलेज सचिव रसोमय दत्ता और उनके बीच तकरार भी पैदा हो गई। जिसके कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। लेकिन, उन्होंने 1849 में एक बार वापसी की और साहित्य के प्रोफेसर के तौर पर संस्कृत कॉलेज से जुडे। फिर जब उन्हें संस्कृत कालेज का प्रधानाचार्य बनाया गया तो उन्होंने कॉलेज के दरवाजे सभी जाति के बच्चों के लिए खोल दिए।
ईश्वर चंद विद्यासागर एक महान समाज सुधारक, लेखक, शिक्षाविद् और संस्कृत के विद्वान थे। समाज में क्रांतिकारी बदलाव के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया। महिलाओं की शिक्षा और स्थिति में बदलाव के प्रति उनका योगदान उल्लेखनीय है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने निज भाषा और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूलों की एक श्रृंखला के साथ कोलकाता में मेट्रोपॉलिटन कॉलेज की स्थापना की। इससे भी कई ज्यादा उन्होंने इन स्कूलों को चलाने के पूरे खर्च की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली। उन्होंने विधवाओं की शादी के समाज में खूब आवाज उठाई और उसी का नतीजा था कि विधवा पुनर्विवाह कानून-1856 पारित हुआ।
उन्होंने खुद एक विधवा से अपने बेटे की शादी करवाई थी। उन्होंने बहुपत्नी प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ भी आवाज उठाई थी। उनके इन्हीं प्रयासों ने उन्हें समाज सुधारक के तौर पर पहचान दी।
आधुनिक बंगाली भाषा के जनक विद्यासागर न सिर्फ महान लेखक थे बल्कि उनको आधुनिक बंगाली भाषा का जनक भी कहा जाता है। बंगाली की कई वर्णमालाओं में उन्होंने संशोधन किया। उन्होंने संस्कृत पर भी काफी काम किया। सेवानिवृत्त होने के समय तक वह संस्कृत कॉलेज, कलकत्ता में संस्कृत के प्रफेसर थे। उन्होंने संस्कृत व्याकरण के नियमों पर एक किताब भी लिखी।
उनका नाम ईश्वर चंद बंदोपाध्याय था। लेकिन विभिन्न विषयों पर उनकी मजबूत पकड़ और ज्ञान के कारण उनके गावों के लोगों ने उनको विद्यासागर के नाम से पुकारना शुरू कर दिया।