आचार संहिता के पुनरावलोकन की आवश्यकता

(डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद शर्मा)


राजनीतिक चश्में से अलग हटकर देखें तो राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आचार संहिता को लेकर जो मुद्दा उठाया है वह अपने आप में गंभीर होने के साथ ही गहन चिंतन का विषय है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनाव आयोग से चुनावों के कारण लंबे समय तक लगने वाली आचार संहिता के कारण आमजन और प्रशासन के प्रभावित होने की और ध्यान आकर्षित किया है। आचार संहिता के चलते सारे काम ठप्प हो जाते हैं और आपदा प्रबंधन जैसी विशेष परिस्थितियों के लिए भी चुनाव आयोग की अनुमति के लिए टकटकी लगानी पड़ती है। यह अपने आप में गंभीर और विचारणीय है।
यह सही है कि चुनावों की निष्पक्षता को देखते हुए चुनाव आयोग द्वारा चुनाव सुधारों के तहत आदर्श आचार संहिता लागू करने की व्यवस्था है। सत्तारुढ़ दल सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग नहीं करें, उस पर प्रभावी रोक लग सके और चुनावों में निष्पक्षता बनी रह सके, अनुचित हथकंड़ों या यों कहे कि चुनावों की पवित्रता बनाए रखने के लिए आदर्श आचार संहिता की व्यवस्था है। पर तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आचार संहिता के कारण पांच साल के लिए चुनी हुई सरकार सही मायने में केवल और केवल साढ़े तीन या पौने चार साल ही काम कर पाती है। हालिया राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीशगढ़ आदि प्रदेशों के चुनावों से ही आचार संहिता का विश्लेषण किया जाए तो पाएंगे कि पहले विधान सभा चुनावों के कारण आचार संहिता लग जाती है। फिर चुनाव के परिणाम आने और नई सरकार के गठन के बाद सरकार काम करना आरंभ ही करती है या यांे कहे कि 90 से 100 दिन के बाद लोकसभा के चुनावों के चलते आचार संहिता लग जाती है और देखा जाए तो सरकार पूरी तरह से पंगु हो जाती है। इन दो चुनावों के बाद स्थानीय प्रशासन यानी की नगर निगम या नगरीय निकायों के चुनावों की आचाार संहिता प्रभावित करने लगती है और इसके पूरा होते होते स्थानीय प्रशासन यानी कि पंचायती राज संस्थाओं की आचाार संहिता सिस्टम को थाम के रख देती है। इसके अलावा समय समय पर उप चुनावों के लिए लगने वाली आचार संहिता अलग। इस तरह से देखा जाए तो करीब साल सवा साल का समय आचार संहिता के भेंट चढ़ जाता है और पांच साल के लिए चुनी हुई सरकार इस दौरान आचार संहिता के कारण लाचार होकर रह जाता है। इससे एक ओर तो पांच साल की चुनी हुई सरकार चार पौने चार साल ही सही तरीके से काम कर पाती है। दूसरी और विकास कार्य प्रभावित होने लगते हैं। कुछ व्यावहारिक पक्ष भी है जिनके कारण आचार संहिता के चलते सरकार को करोड़ों रुपए का नुकसान होता है। कमोबेस यह स्थिति किसी एक प्रदेश की ना होकर समूचे देश की है। ऐसे मेें चुनाव आयोग ही नहीं बुद्धिजीवियों व नीति निर्माताओं को इस पर गंभीर चिंतन कर कोई सर्वमान्य उपाय खोजना होगा।
दरअसल सत्तारुढ़ दल आचार संहिता लगने से पहले मतदाताओं को प्रभावित करने वाले निर्णयों में तेजी लाती है। यह भी दुर्भाग्यजनक है कि नई सरकार आते ही पुरानी सरकार के छह महीनों के निर्णयों की समीक्षा करने लगते हैं। इसके अलावा चुनाव आचार संहिता से पहले सरकार का प्रचार तंत्र भी अधिक सक्रिय हो जाता है और नेताओं की फोटों के साथ योजनाओं के होर्डिंग्स, पोस्टर्स, बैनर, जिंगल्स आदि से अट जाता है। अब आचार संहिता लगते ही इन सबको हटाना पड़ता है और इन पर चंद दिनों के लिए व्यय होने वाले करोड़ों रुपए बर्बाद हो जाते हैं। ऐसे में ऐसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए जिससे या तो इस तरह के होर्डिग्स आदि लगे ही नहीं या फिर उन्हें हटाने की आवश्यकता ना हो। इस बारे में कोई स्पष्ट नीति होनी चाहिए। हांलाकि यह आचार संहिता का हिस्सा है पर यह भी विचारणीय है कि सरकारी विभागों की वेबसाइटों तक से प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों की फोटो हटानी पड़ती है। योजनाओं को हटाना पड़ता है तो फिर वेबसाइटों का मायना क्या रह जाता है। यह समझ से परे की बात है कि वेबसाइट पर तत्कालीन प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्रीगण की फोटो लगी रहने से क्या प्रभाव पड़ने वाला है? इसी तरह से सामान्य प्रकृति के कार्यो के लिए भी प्रशासन को चुनाव आयोग से अनुमति के लिए जाना पड़ता है तो एक तरह से प्रशासन ही ठप्प हो जाता है। ठीक है नई योजनाओं या कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार या शुरु करने पर आचार संहिता के कारण रोक लगे पर निर्णय हो चुके कार्यों या सामान्य कार्यो पर भी बिना अनुमति के रोक से प्रशासन प्रभावित होता है। एक सामान्य सी बात करे तो कर्मचारियों की पदोन्नति समिति की बैठक तो हो सकती है पर उसके परिणाम यानी कि पदोन्नति नहीं हो सकती। कोेई दुर्घटना हो जाती है, आपदा प्रबंधन की स्थिति आती है तो उस स्थिति में भी आचार संहिता के चलते चुनाव आयोग की अनुमति लेनी पड़ती है। हांलाकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आचार संहिता के कारण 78 दिन तक प्रशासनिक कार्य प्रभावित होने को संदर्भित किया है पर देखा जाए तो यह लगभग एक साल ही हो जाता है स्थानीय निकाय चुनावों सहित। एक बात और अब चुनाव एक से अधिक चरणों में होने लगे हैं। हालिया लोकसभा चुनाव सात चरणों में हुए। अब जिन राज्यों में पहले चरण या दूसरे चरण में ही चुनावों के लिए मतदान की प्रक्रिया पूरी हो गई वहां पर भी अंतिम चरण के मतदान और उसके बाद चुनाव परिणाम आने तक आचार संहिता लगे रहने का औचित्य विचारणीय है। हो सकता है कि चुनाव आयोग के अपने तर्क हो, राजनीतिक दलों का अपना सोच हो,सत्तारुढ़ दलों की अपनी मान्यता हो पर इतने लंबे समय तक आचार संहिता के चलते प्रशासन का प्रभावित होना निश्चित रुप से गंभीर विचारणीय हो जाता है। यहां चुनाव आयोग की मंशा को लेकर कोई प्रश्न नहीं है और ना ही चुनावों को प्रभावित करने की कोई मंशा, अपितु ऐसा कोई सर्वमान्य हल खोजने की आवश्यकता है जिससे आचार संहिता को ओर अधिक प्रभावी और कारगर बनाया जा सके। प्रशासन अपनी जगह काम करता रहे और चुनाव आयोग अपनी जगह काम करता रहे। इस दृष्टिकोण से विचार किया जाना समय की मांग व आवश्यकता है।