अमेरिका के युद्धोन्माद की कीमत दुनिया भुगतेगी ?

(विष्णुगुप्त)


अमेरिका के युद्धोन्माद की कीमत दुनिया चुकायेगी, खासकर भारत जैसे देश जो इंधन के लिए ईरान और अन्य अरब देशों के उपर निर्भर है। इंधन पदार्थो की कीमत बढेगी, इंधन पदार्थो का उत्पादन कम होगा, समुद्री मार्ग से आने वाले इंधन पदार्थ की सुरक्षा भी खतरे में पडेगी। पर इसकी चिंता विश्व समुदाय की भी नहीं है। अमेरिका जहा अपनी दादागिरी दिखाने के लिए युद्धोन्माद पर है, वहीं ईरान भी अपने परमाणु कार्यक्रम पर पूरी तरह ईमानदार नहीं है। खासकर ईरान की इस्राइल नीति, मुस्लिम दृष्टिकोण भी कम जिम्मेदार नहीं है, इसके कारण विश्व जनमत में ईरान को उस तरह का समर्थन हासिल नहीं हो रहा है जिस तरह का समर्थन चाहिए। विश्व जनमत का समर्थन ही अमेरिका जैसे युद्धोन्माद पर उतारू देश को शांति के मार्ग पर लाने के लिए बाध्य कर सकता है।
अमेरिका-ईरान के बीच युद्धक तनातनी में भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए? क्या ईरान का हाल भी इराक की तरह ही होगा? क्या जार्ज बुश की तरह डोनाल्ड ट्रम्प भी युद्धक मानसिकता पर सवार हैं? अगर अमेरिका और ईरान के बीच कोई युद्ध हुआ और युद्ध लंबा खिंचा तो फिर दुनिया की अर्थव्यवस्था कैसी होगी, क्या दुनिया की अर्थव्यवस्था गतिमान रहेगी या फिर दुनिया की अर्थव्यवस्था पर मंदी की छाया रहेगी? अमेरिका और ईरान के बीच युद्ध हुआ तो फिर चीन-रूस जैसी युद्धक शक्तियां निष्पक्ष बनी रहेंगी या फिर सीरिया की तरह ईरान का साथ देगी? क्या ईरान के पास ऐसी सामरिक शक्ति है जो अमेरिका की युद्धक मानसिकता और अमेरिका द्वारा थोपी जाने वाले युद्ध का सफलतापूर्वक साामना कर सके? अगर ईरान के पास युद्धक क्षमता नहीं है तो फिर ईरान भी इराक की श्रेणी में खडा हो सकता है क्या? ईरान अमेरिकी प्रतिबंधों से फिलहाल किस प्रकार की समस्याओं से धिरा हुआ है? जब भारत और अन्य दुनिया के देश ईरान से तेल खरीदना बंद कर देंगे तो फिर ईरान की आंतरिक अर्थव्यवस्था कैसे और किस प्रकार से गतिमान होगी? अगर ईरान की अर्थव्यवस्था पर मंदी छायी रही और तेल के खरीददार भाग खडे हुए तो फिर ईरान की जनता अपनी जरूरत के चीजों के लिए किस प्रकार से संधर्ष करेंगे? क्या ईरान ने अमेरिकी प्रतिबंधों से लडने की कोई चाकचैबंद योजनाएं बनायी हैं? क्या ईरान ने अमेरिकी युद्धक हमलों से बचाव और सामना करने के लिए कोई युद्धक योजनाएं बनायी हैं या नहीं? क्या अमेरिकी बहकावे में सउदी अरब का आना सही है? क्या सउदी अरब का ईरान के खिलाफ संभावित अमेरिकी युद्ध में कूदना अरब महादेश के लिए सही होगा या गलत? अगर सउदी अरब भी अमेरिका का पिछलग्गू बन कर युद्ध में कूदा तो फिर अरब देशों की मुस्लिम एकता टूटेगी या नहीं? क्या शिया-सुन्नी युद्ध की भी कोई आशंका दिख रही है? जानना यह जरूरी है कि ईरान एक शिया बहुलता और अस्मिता वाला देश है जबकि सउदी अरब सुन्नी बहुलता और सुन्नी अस्मिता वाला देश है। सउदी अरब और ईरान के बीच हमेशा युद्ध की आशंका बनी रहती है, अरब में अपनी सर्वश्रेष्ठता और वर्चस्व के लिए सउदी अरब और ईरान तलवारें भाजंते रहे हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ईरान पर हमला करने का आदेश भी जारी कर दिया था, अमेरिका की सेना ईरान पर हमला भी करने वाली थी। दुनिया इस खबर से दहल गयी थी। पर एकाएक डोनाल्ड ट्रम्प को सुबुद्धि आयी और उसने हमले की योजना बदल डाली। ईरान ने अमेरिका का जासूसी विमान मार गिराया था जो उसकी सीमा में प्रवेश कर गुप्तचर जानकारियां हासिल कर रहा था। ईरान के खिलाफ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प उसी तरह की धमकी पिला रहे हैं जिस तरह की धमकी जार्ज बुश इराक को दिया करते थे। उल्लेखनीय है कि रसायनिक हथियारों के प्रोपगंडा के आधार पर जार्ज बुश जूनियर ने इराक पर हमला किया था। बाद में इराक में रसायनिक हथियारों की बात झूठी साबित हुई थी फिर भी जार्ज बुश जूनियर ने इराक में सदाम हुसैन के पतन को अपनी जीत बतायी थी। अभी-अभी जो अमरिका की ईरान विरोधी युद्धक मानसिकताएं सामने आयी है उससे पूरी दुनिया सकते हैं, पूरी दुनिया का जनमानस इसे पागलपन समझता है या फिर सनकी भरा ही नहीं बल्कि दुनिया की मानवता के लिए खतरनाक, हानिकारक समझता है। पर दुनिया के जनमानस का कद्र कभी अमरिका करता ही नहीं है। सबसे बडी बात यह है कि दुनिया के जनमानस या फिर दुनिया की जनभावना का सम्मान कोई भी वीटो धारी देश नहीं करते हैं। वीटोधारी देश हमेशा से दुनिया की जनभावना को कुचलते हैं, वीटोधारी देश दुनिया के गरीब देशों के हितों पर कैंची चलाते हैं, दुनिया के वीटोधारी देश दुनिया के गरीब देशों के प्राकृतिक संसााधनों पर बलपूर्वक कब्जा करते हैं। कभी चीन ने संयुक्त राष्ट्रसंध के चार्टर की धज्जियां उडाते हुए भारत पर हमला किया था, अमेरिका का हाथ सीरिया, वियतनाम और इराक सहित अन्य देशों के खून से रंगे हुए हैं, कभी सोवियत संघ ने भी अफगानिस्तान पर कब्जा कर संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर का विध्वंस किया था। जानना यह भी जरूरी है कि अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, फंास और रूस के पास वीटो का अधिकार है और ये पांचों देश सुरक्षा परिषद के सदस्य हैं। अनिवार्य तौर पर वीटो देशों की इच्छाएं संयुक्त राष्ट्र में सिर चढ कर बोलती हैं और गरीब और अविकसित देशों की इच्छाएं और हित संयुक्त राष्ट्रसंध में बेमौत मरती रही हैं।
अमेरिका और ईरान के बीच असली विवाद क्या है और अमेरिका ईरान से क्या चाहता है, किस प्रकार की इच्छाओं को लेकर अमेरिका आग बबूला है? क्या कोई पुरानी मानसिकताएं भी उकसा रही हैं, क्या कोई पुरानी ग्रथियां भी अमेरिका और ईरान के बीच झगडे का कारण रही हैं? जबसे ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई है तब से अमेरिका और ईरान के बीच में संबध कटूतापूर्ण रहे हैं, ईरान की इस्लामिक क्रांति को अमेरिका कभी-भी पचा नहीं सका। इस्लामिक क्रांति के पूर्व ईरान की राजतांत्रिक व्यवस्था से अमेरिका के संबध बहुत अच्छे थे और ईरान भी प्रगति के रास्ते पर था, ईरान में सामाजिक खुला पन दुनिया में चर्चित था। इस्लामिक क्रांति से इस्लामिक रूढियों को विस्तार हुआ और इस्लामिक रूढियों ने अन्य धर्मा और पंथों पर खूनी और दंगाई समस्याएं थोपी थी। अमेरिका अपने आप को दुनिया के धार्मिक अधिकारों का रखवाला समझता है, अपने आप को अमेरिका दुनिया के मानवता का रखवाला समझता है। ऐसे में इस्लामिक ईरान और अमेरिका के बीच कैसे मधुर सबंध विकसित हो सकते थे? सटनेश वर्शेज के लेखक सलमान रूशदी की हत्या के लिए जारी ईरान का फतवा भी अमेरिका के ईरान विरोधी होने का कारण रहा है।
तत्कालीक कारण ईरान का अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौते से हटना है। ईरान ने 2015 के अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौते की प्रतिबंद्धताओं से हटने की घोषणा की थी। 2015 में ईरान और अमेरिका के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौता हुआ था। इस अंतर्राष्ट्रीय समझौते में अमेरिका के साथ ब्रिटेन और फ्रांस भी थे। ईरान के साथ यह परमाणु समझौता बराक ओबामा की देन थी। इस समझौते के तहत ईरान को अपने परमाणु कार्यक्रम में पारदर्शिता लाने की प्रतिबद्धता थी, ईरान के परमाणु धरों और ईरान के सभी प्रकार की परमाणु योजनाओं का निरिक्षण करने का अधिकार अमेरिका और समझौते में शामिल देशों के पास था। अमेरिकी कूटनीति यह आरेाप लगाती रही थी कि ईरान ने अपनी प्रतिबद्धता का पालन नहीं किया और परमाणु हथियार विकसित कर रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चुनाव के दौरान ईरान के साथ परमाणु समझौता से हटने का वायदा किया था। डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के साथ परमाणु समझौते से हटने की घोषणा कर डाली थी। ईरान के साथ परमाणु समझौते पर ब्रिटेन और फ्रांस भी हस्ताक्षर किये थे। ब्रिटेन और फ्रांस ईरान के साथ परमाणु समझौते से हटने के खिलाफ थे। पर डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने मित्र देश ब्रिटेन और फ्रांस की भी परवाह नहीं की थी। डोनाल्ड ट्रम्प का तब कहना था कि उसे सिर्फ अपने देश के हित चाहिए। अमेरिका ने ईरान के आस-पास अपने घातक हथियार तैनात कर दिये हैं। अमेरिका का कहना है कि अगर उसके प्रतिबंधों का तोडा गया और नजरअंदात किया गया तो फिर उसके हथियार जवाब देंगे।
इधर सउदी अरब भी ईरान के खिलाफ कूद चुका है। सउदी अरब का कहना है कि वह ईरान के खिलाफ कोई भी युद्ध लडने के लिए तैयार है। अरब क्षेत्र में चल रहे आतंकवाद की कई लडाइयों को लेकर सउदी अरब और ईरान के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। सउदी अरब अमेरिका का विश्वसीनय साझीदार है। सीरिया के प्रश्न पर सउदी अरब और ईरान एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें भाजते रहते हैं।
भारत के सामने कुएं और खाई की स्थिति उत्पन्न है। भारत के लिए सउदी अरब ही नहीं बल्कि ईरान भी अच्छे दोस्त हैं और आर्थिक संबंध भी दोनों देशों के बीच है। भारत अमेरिका को बहुत हद तक नाराज नहीं कर सकता है। विश्व नियामक संस्थानों में अमेरिका का साथ भारत को चाहिए।फिर भी भारत को कोशिश करनी ही चाहिए। ट्रम्प को मोदी युद्धोन्माद से बचने की सलाह तो दे ही सकते हैं। ईरान को भी फिर से परमाणु कार्यक्रमों पर विचार करना चाहिए। ईरान को परमाणु मिसाइलों और अन्य परमाणु हथियारों का उन्नयन बंद कर देना चाहिए। दुनिया को देखने का मुस्लिम दृष्टिकोण से भी ईरान को मुक्त हो जाना चाहिए, मुस्लिम दृष्टिकोण से ईरान की रक्षा नहीं हो सकती है। सउदी अरब जैसे सुन्नी देश अमेरिका के साथ खडे हैं।