एक राष्ट्र एक चुनाव पर सब एक क्यों नहीं




(देवानंद राय)

एक तरफ हम जहां विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गर्व करते हैं तो वहीं दूसरी ओर इस लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए हर चुनाव में अरबों रुपए खर्च करते हैं जबकि देश में गरीबी अब भी वैसी ही है जैसी गरीबी हटाओ के नारे की शुरुआत हुई थी क्या हम चुनावी खर्चे को कम नहीं कर सकते ? चुनाव के समय खर्च होने वाले धन का प्रयोग हम अपने स्वास्थ्य सेवाओं को और मजबूत करने में नहीं लगा सकते| पूरा देश देख रहा है किस प्रकार बिहार में लोग अपने आंखों के सामने अपने ही बच्चों को खो रहे हैं चुनावी खर्च कम करने तथा शासन को पूर्ण रूप से गति देने के लिए ही विधि आयोग तथा प्रधानमंत्री जी ने एक देश एक चुनाव पर जोर दिया है पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनको जनता हर चुनाव दर चुनाव सबक सिखा रही है उनके राष्ट्र विरोधी नीतियों के लिए पर वे तो ऐसे हैं कि खुद में बदलाव को तैयार ही नहीं कांग्रेसी जो वेंटीलेटर पर पहुंच चुकी है जिसे इस चुनाव में जनता ने पूरी तरह से नकार दिया उस पर भी वे इस तरह के राष्ट्रहित की बैठकों और प्रधानमंत्री के आमंत्रण को ठुकरा कर अपनी ही कब्र खोद रहे हैं |बसपा का कहना है कि यह बैठक एक छलावा है तो बहन जी आप ने सपा के साथ गठबंधन तोड़कर जो किया उसे क्या कहा जाए ? बसपा तो यह भी कह रही है कि अगर यह बैठक ईवीएम पर होती तो वह जरूर जाते चुनाव आयोग ने जब ईवीएम हैकिंग प्रतियोगिता रखी थी तब वहां तो कोई नजर नहीं आ रहा था और मायावती जी को ईवीएम पर अगर भरोसा नहीं है तो 0 से 10 सीटें जो ईवीएम के बदौलत है उन पर इस्तीफा दिलवा कर बैलट से चुनाव कराने की हिम्मत दिखाएं| उधर ममता जी भी इस सर्वदलीय बैठक से दूर रही उन्होंने तो केंद्र के हर प्रस्ताव और कार्यक्रम को रेड कार्ड दिखा रखा है। परंतु एक राष्ट्र एक चुनाव को लागू करने में कई अड़चनें भी हैं विधि आयोग के अनुसार इसे लागू करने में दो अनुच्छेद में संशोधन करना होगा पहला लोकसभा तथा राज्यसभा के कार्यकाल से अनुच्छेद संबंधित अनुच्छेद 83 और अनुच्छेद 172 जो विधानसभा के कार्यकाल से संबंधित है यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि राज्य सभा कभी विघटित नहीं होती। अनुच्छेद 174 जो राज्य के विधानमंडल के सत्र, सत्रावसान और सत्र विघटन से संबंधित है। इसमें भी संशोधन करने की आवश्यकता पड़ सकती है।विधि आयोग लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ दो चरणों में कराने की बात कह रहा है। एक राष्ट्र एक चुनाव बेशक राष्ट्रहित में है पर हर नई चीज के साथ नई समस्याएं भी खड़ी रहती हैं ठीक वैसे ही इस प्रस्ताव को सभी राज्यों में मंजूरी दिला पाना भी एक टेढ़ी खीर है। कांग्रेस का रुख देखकर तो उसके शासित पांच राज्यों में इसकी मंजूरी दिला पाना दूर की कौड़ी लगती है। एक अन्य समस्या यह भी है कि सभी राज्य सरकारों का कार्यकाल एक साथ कैसे पूरा हो सकता है इसमें भी एकरूपता लानी होगी देश में पहली बार आम चुनाव 1951 में हुए थे तब लोकसभा चुनाव तथा राज्यों के विधानसभा चुनाव भी एक साथ ही हुए वर्ष 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा तथा राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ ही है अर्थात पहली लोकसभा चुनाव से लेकर चौथे लोकसभा चुनाव तक लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ ही होते रहे। 1967 के बाद यह क्रम टूटा। परंतु 1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को कहा। 2015 में संसद के कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने भी यही बात दोहराई थी।यह कितना हास्यपद है कि सर्वदलीय बैठक क्षेत्रीय पार्टियों में से एक सपा भी दूर रही जिसने पिछले वर्ष ही विधि आयोग एक राष्ट्र एक चुनाव मसले पर राजनीतिक दलों के सलाह पर उसने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था।40 दलों के आमंत्रण पर मात्र 21 दलों का शामिल होना तथा सोलह दलों का अनुपस्थित रहना जिसमें सपा, बसपा, कांग्रेस जैसी पार्टियों शामिल रही यह स्वस्थ लोकतंत्र के लक्षण नहीं है।तीन बातें जो बिल्कुल स्पष्ट है कि एक राष्ट्र एक चुनाव से पैसा, समय और विकास तीनों को लाभ होगा।पहला पैसे की बचत होगी अगर हम देश में होने वाले चुनाव में खर्च रूपों के आंकड़ों पर नजर डालें तो हमें पता चलता है कि देश के पहले आम चुनाव 1952 मे 10.45 करोड़ रुपये खर्च हुए थे उसके बाद यह खर्च दिन दुगनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ता गया और 2014 में मतदान के लिए निर्वाचन आयोग ने 3870.34 करोड़ खर्च किए तो वहीं 2019 में यह खर्च 4500 करोड़ तक पहुंच गया। इसमें एक रोचक तथ्य यह भी है कि वर्ष 1957 के लोकसभा चुनाव में सबसे कम रुपए खर्च हुए थे इसमें मात्र 5.9 करोड रुपए ही खर्च हुए इस चुनाव में प्रति मतदाता चुनाव खर्च भी केवल 30 पैसे ही आया था तो वहीं प्रति मतदाता खर्च जो अब बढ़कर 2019 में ₹72 हो गया है जो कभी प्रथम चुनाव 1952 में मात्र 62 पैसे था। हमें इस तरह मतदाताओं के ही पैसे का दुरुपयोग रोकना होगा साथ ही अगर एक राष्ट्र एक चुनाव से अगर समय की बचत होती है तो उसे देश को और विकसित करने में प्रयोग करना होगा तथा विकास को आचार संहिता में बार-बार रोककर उसकी स्पीड को को कम नहीं किया जा सकता है। इस कारण एक राष्ट्र एक चुनाव वर्तमान समय की मांग है परंतु कुछ सवाल ऐसे भी हैं जिनके उत्तर आम से लेकर खास तक सभी जानना चाहते हैं कि जैसे अगर किसी राज्य में सरकार बनती है और एक वर्ष के भीतर गिर जाती है तो क्या होगा ? क्या वहां फिर से चुनाव होगा या राष्ट्रपति शासन लगेगा अगले 4 वर्ष के लिए अगर राष्ट्रपति शासन लगता है तो पुनः अनुच्छेद 356 में भी संशोधन करना पड़ेगा क्योंकि वर्तमान में किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 6 माह तक ही लग सकता कुछ यह सवाल भी है कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में क्या होगा ? और सबसे मुख्य बात यह कि एक राष्ट्र एक चुनाव में भी क्या काला धन पहले की तरह बरकरार रहेगा या इस पर रोक लगाने का कुछ ठोस प्रयास होगा| इन सब प्रश्नों के जवाब प्रधानमंत्री द्वारा गठित कमेटी को ढूंढने होंगे| एक राष्ट्र एक चुनाव पर प्रधानमंत्री का कमेटी बनाना अगर स्वागत योग्य है तो वही मिलिंद देवड़ा जैसे कांग्रेसी नेता का पार्टी लाइन से हटकर राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए इस पर सहमत होना कांग्रेश को आईना दिखाने जैसा ही है|