एक साथ चुनाव का सकारात्मक विचार






दोबारा सरकार बनाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए सिरे से उन योजनाओं को अमली जामा पहनाने में जुट गए हैं जिसकी बात वे पहले से करते रहे हैं। इन्हीं में से एक मसला है 'एक देश, एक चुनाव' का जिस पर आम सहमति की राह बनाने के लिए आज संसद के प्रांगण में विभिन्न राजनीतिक दलों के अध्यक्षों की बैठक हुई। इस बैठक में 40 पार्टियों को न्योता भेजा था, जिसमें कुछ वे क्षेत्रीय दल भी शमिल थे जिनका संसद में प्रतिनिधित्व नहीं है। सरकार के इस निमंत्रण पर कुल 21 दलों के अध्यक्ष बैठक में शामिल हुए जबकि तीन पार्टियों ने इस मुद्दे पर अपनी राय लिखित में भेजी। जिन दलों ने एक चुनाव के प्रस्ताव के विरोध में इस बैठक से दूरी बनाई उनमें राजग की दूसरी सबसे बड़ी घटक शिवसेना भी शामिल है जबकि राकांपा प्रमुख शरद पवार, बीजद प्रमुख नवीन पटनायक, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती और वाइएसआर के जगन मोहन रेड्डी सरीखे कई विपक्षी दलों के नेताओं ने न सिर्फ बैठक में हिस्सा लिया बल्कि बकौल राजनाथ सिंह इनमें से किसी ने भी इस विचार का विरोध करने या इसे खारिज करने की जहमत नहीं उठाई। हालांकि सरकार के विचार को सिरे से खारजि करते हुए बैठक में शिरकत करने से इनकार करने वाले दलों में कांग्रेस, सपा, बसपा, डीएमके, पीडीपी और तृणमूल मुख्य रूप से शामिल है। दूसरी ओर माकपा के सीताराम येचुरी और भाकपा के डी राजा इस बैठक में शामिल हुए, लेकिन उन्होंने 'एक देश, एक चुनाव'के मुद्दे का पुरजोर विरोध किया। अब तय हुआ है कि इस मुद्दे पर सुझाव देने के लिए एक कमेटी बनाई जाएगी ओर उसकी रिपार्ट के आधार पर ही इस विचार को अमली जामा पहनाने का प्रयास किया जाएगा। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी पहले ही कह चुके हैं कि इस मामले में सरकार की ओर से मनमानी का प्रयास कतई नहीं किया जाएगा बल्कि आम सहमति कायम करके और सबका विश्वास हासिल करके ही इसे लागू करने की दिशा में पहलकदमी की जाएगी लिहाजा यह उम्मीद करना तो बेकार ही है कि आज की कवायद का तुरंत कोई नतीजा दिखाई देगा लेकिन इससे एक आस तो बंधी ही है कि सकारात्मक दिशा में ठोस कदम उठाया जा रहा है। सच पूछा जाए तो एक प्रधान, एक निशान, एक विधान और एक कर की ही तर्ज पर अब एक चुनाव की आवश्यकता भी सबको महसूस हो रही है। हमारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने एक साथ चुनाव कराने पर बल दिया है। चुनाव आयोग का रूख भी सकारात्मक है और संसद में भी विचार-मंथन चल रहा है। नीति आयोग भी विचार कर रहा है और जमीन पर भी सकारात्मक चर्चाएं हो रही हैं। इसके अलावा राजनीति आमसहमति कायम करने का भी प्रयास आरंभ हो गया है। यह चुनाव सुधार की दिशा में बहुत बड़ा कदम है क्योकि अभी स्थिति यह है कि चुनावों की अधिकता ने पूरी व्यवस्था को बुरी तरह जकड़ा हुआ है। आलम यह है कि हमेशा कहीं ना कहीं या किसी ना किसी स्तर पर चुनाव चलता ही रहता है। कभी लोकसभा का तो कभी विधानसभा का या स्थानीय निकायों का। इन चुनावों के अलग-अलग होने से अर्थव्यवस्था पर भी भारी बोझ पड़ता है और चुनावी आचार संहिता के कारण जनहित के काम भी प्रभावित होते हैं। शासन और प्रशासन की काम की गति भी बाधित होती है और पुलिस, प्रशासन व सशस्त्र बलों को झोंकना पड़ता है। आचार संहिता के कारण सरकारी कामकाज ही प्रभावित नहीं होता है बल्कि लोगों का सामान्य जीवन भी बुरी तरह प्रभावित होता है। दूसरी ओर सरकार पर हमेशा चुनाव की तलवार लटकी रहती है जिसके कारण देशहित व जनहित के बड़े व कड़े निर्णय लेने की हिम्मत दिखाना मुश्किल होता है। साथ ही राजनीति दलों व नेताओं के सामने चुनौती रहती है कि चुनावी व्यस्तताओं के बीच उन्हें अपने वायदे भी पूरे करने होते हैं और जनकल्याण व देश के विकास की नीतियों पर भी अमल करने की जिम्मेवारी निभानी होती है। वास्तव में देखा जाए तो एक साथ चुनाव कराने का विचार ना तो नया है और ना ही अनोखा है जिसको लेकर हाय-तौबा मचाने की जरूरत हो या इसके आधार पर मोदी सरकार की ईमानदार कोशिश को आशंकाओं व आरोपों के कठघरे में खड़ा किया जा सके। अलबत्ता वर्ष 1952, 1957 और 1962 से लेकर 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे। यह परंपरा आगे भी जारी रह सकती थी लेकिन एक ओर विखंडित जनादेश सामने आने की शुरूआत और दूसरी ओर सौ से अधिक बार अनुच्छेद 356 के तहत आपातकालीन प्रावधान का इस्तेमाल करके राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाये जाने से चुनावों की तय तारीखों में बदलाव होता गया और सदन के निर्धारित समयावधि में हेरफेर होता चला गया। यहां तक कि अब तक हुए सत्रह में से छह लोकसभा चुनाव पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किए बिना ही आयोजित किए गए। नतीजन आज नौबत यह आ गई है कि कोई भी महीना ऐसा नहीं गुजरता जो पूरी तरह चुनावों से अछूता रहे। हमेशा देश के किसी ना किसी हिस्से में किसी ना किसी स्तर का कोई चुनाव चलता ही रहता है।  अब चुनावी मकड़जाल से व्यवस्था को बाहर निकालने का एक ही उपाय है कि समूचा देश 'एक बार मतदान करेंगे, पांच साल तक काम करेंगे' के नारे को बुलंद करने की दिशा में आगे बढ़े। हालांकि इस राह में चुनौतियों व समस्याओं की भरमार भी है। अभी इस सपने को साकार करने के लिए तमाम बाधाओं को पार करना होगा। सबसे पहले तो विरोधियों द्वारा किए जाने वाले दुष्प्रचार से निपटने की चुनौती से निपटना होगा। उसके बाद इसे लागू करने के लिए आवश्यक संविधान संशोधन भी करना होगा। साथ ही इसे अमली जामा पहनाने के लिए बहुत बड़ी तादाद में सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और पुलिस व सशष्त्र बल की भी जरूरत होगी। लेकिन सुखद बात है कि कोई भी अड़चन ऐसी नहीं है जिसका हल ना निकल सकता हो। लिहाजा उम्मीद की जा सकती है कि यह परिकल्पना आज नहीं तो कल अवश्य साकार होगी। इस परिकल्पना के साकार होने और एक देश, एक चुनाव की व्यवस्था के लागू होने के बाद लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का जीवंत व विकासात्मक रूख सामने आएगा, जिसमें बेमानी अलगाववादी राजनीति और असमंजस व अनिश्चितता के बादलों से पूरी तरह निजात मिल जाएगी।