कांग्रेस में इस्तीफों की बारिश




(देवानंद राय)

मानसून ने फिर इस बार हमें छला है पूरा देश सूखे की चपेट में नजर आ रहा है|कहीं-कहीं बारिश होगी बूंदाबांदी और बादलों की लुकाछिपी जारी है पर एक जगह पर झमाझम बारिश हो रही है|आप सोच रहे होंगे वह कौन सी दुर्लभ जगह है तो मित्रों को कांग्रेस का दफ्तर है ऐसा नहीं कि दफ्तर की छत उड़ गई जो बारिश सीधे ऑफिस में घुस रही है या दिल्ली में जोरदार बारिश हो रही है पर यह सच है कि कांग्रेस दफ्तर में बारिश हो रही है| हाँँ भाई बारिश हो रही है पर किस की ? इस्तीफो कि ! हर 5 मिनट में कोई ना कोई मेल या चिट्ठी आती ही जा रही है इस्तीफे की। कांग्रेस समझ ही नहीं पा रही कि वह किसे संभालने अध्यक्ष को या कार्यकर्ताओं को। यह तो सुना था कि डूबते जहाज से पहले चूहे भागते हैं पर यहां तो जहाज का कैप्टन ही भागने पर अड़ा है।कांग्रेस का नया अध्यक्ष अभी मिला नहीं है परंतु नया अध्यक्ष कितना प्रभावकारी होगा यह तो आने वाले चुनाव बताएंगे पर सवाल एक और भी है कि अगर मान लिया जाए कि राहुल जी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देते हैं तो भी पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी है क्या कोई बाहर का व्यक्ति उन्हें आदेश देने की हिम्मत दिखा सकता है ?या फिर मनमोहन सिंह जी की तरह किसी मौनी बाबा को नाम का अध्यक्ष बनाकर  सिर्फ कोरमपूर्ति करें तो पार्टी का भला कभी नहीं होने वाला। पार्टी को फिर से जमीन से जुड़ना होगा सेवा दल जैसे संगठनों को फिर से जागृत करना होगा। देश विरोधी बयानों से, अनावश्यक ड्रामों से बचना होगा।राष्ट्रहित के मुद्दों पर राजनीतिक लाभ को न देखकर विपक्ष में बोलने के बजाय पक्ष में रहकर सरकार का सकारात्मक साथ लेकर एक नया संदेश देने की कोशिश करनी होगी। पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है संसद सत्र के पहले दिन ही कांग्रेस के लोकसभा के नेता अधीर रंजन ने जिस प्रकार से प्रधानमंत्री के प्रति अपशब्द प्रयोग में अधीरता दिखाई वह कतई उचित लक्षण नहीं है कांग्रेस पार्टी के दिन बहुरने के अपितु लक्षण और ज्यादा हालात बिगड़ने के।राष्ट्र विरोधी बयानों से तथा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और तुष्टिकरण की राजनीति से कांग्रेसी अपना जनाधार खोया तो वही बार-बार एक ही झूठ ही "चौकीदार चोर है" जैसे बयान देकर फिर कोर्ट में तीन बार माफीनामा लेकर राहुल जी ने अपना कार्यकर्ताओं तथा जनता से विश्वास खोया| अब कांग्रेस की हालत वह राजस्थान के कांग्रेस के प्रत्याशी जीतू पटवारी की बात जैसी हो गई है कि "पार्टी गई तेल लेने मेरा चेहरा याद रखना" वर्तमान में कांग्रेस के जो भी प्रत्याशी कुछ जीत दर्ज कर रहे हैं तो वहां उनकी खुद की जमीनी पकड़ और उनके कामों के कारण है| अन्यथा कार्यकर्ता और नेता तो कब के पार्टी से कट चुके हैं| और बाकी बचे कुछ वरिष्ठ और अड़ियल नेता जो पार्टी की दुर्गति कराने के बाद भी दिल्ली में मलाई काट रहे हैं| राहुल जी का दुख इन्हीं मलाई काटने वाले और किसी तरह जुगाड़ सेट कर दिल्ली में फ्री का बंगला पाने की लालच में चमचागिरी करने वाले कांग्रेसियों से ही है जो हाईकमान को खुश रखने के लिए उन्हें जमीनी हकीकत से दूर रखकर हवाई किले बनाने के सपने दिखाते हैं पार्टी को अगर जीत की बूटी चाहिए तो पहले पार्टी में अनुशासन की खूंटी फिर से गाड़नी होगी। यह कांग्रेस के संगठनात्मक कमजोरी ही कहलाएगी कि देश की सबसे पुरानी पार्टी जिसका अध्यक्ष कभी देश का राष्ट्रपति कहलाता था (आजादी से पूर्व कांग्रेस के अध्यक्ष को राष्ट्रपति कहा जाता था) जिसके अध्यक्ष पद पर एक से एक विद्वान और समाज तथा देश को नई दिशा देने वाले लोग बैठ चुके हैं पर जब से यह पद परिवारवाद का शिकार हुआ  तब से अब तक किसी को संगठन या पार्टी ने इस तरह तैयार नहीं किया कि वह आगे कभी इतने विशाल देश की सबसे  पुरानी पार्टी का मुखिया बन सके और यह उसी का परिणाम है कि आज पार्टी अध्यक्ष खुले तौर पर बार-बार इस्तीफा देने की बात कह रहा है और अंत में अड़ रहा है।पर कोई भी नया व्यक्ति अध्यक्ष पद लेने को तैयार नहीं है। कांग्रेस को इन सब चीजों पर भी मंथन करना चाहिए तथा संगठन के भीतर बदलाव करके कुछ ऐसे लोगों को भी तैयार करना चाहिए जो आगे चलकर पार्टी के दायित्व को सही ढंग से चला सके ना कि सिर्फ एक परिवार के सहारे अपनी राजनीतिक नैया को पार लगाने की जुगत में लगा रहे कांग्रेसी अगर सच में किसी नए व्यक्ति को अध्यक्ष पद पर बैठाना चाहती हैं तो किसी ऐसे व्यक्ति को बैठाये  जो कड़े और उचित फैसले लेने में बिल्कुल ना हिचके अन्यथा अगर इन सब खबरों का सिर्फ एक में मुख्य मकसद ये हो कि जनता की सहानुभूति पाना तो राहुल जी बेशक जनता की सहानुभूति पा सकते हैं पर वह सहानुभूति वोटों में नहीं बदल सकती।और प्रदेश अध्यक्षों से लगाकर पदाधिकारियों के 120 इस्तीफे और दिल्ली के 280 ब्लॉक समितियों को भंग करने जैसे निर्णय भी तब सिर्फ एक सियासी ड्रामे कहलाएंगे पार्टी में अगर सच में फेरबदल करना है तो एक बड़े पैमाने पर मंथन के बाद ही यह संभव है।अब देखना यह रोचक होगा कि आने वाले वक्त में कांग्रेस का "हाथ" किसका साथ पाता है और कौन इसे चलाता है ?