कसौटी पर अमेरिका की ईमानदारी






भारत और अमेरिका के रिश्ते अब ऐसे मोड़ पर आ चुके हैं कि यहां से वापस लौटने की कोई बात सोचना भी मुश्किल है। अब ना तो पहले की तरह हम गुटनिरपेक्षता की राह पर आगे बढ़ रहे हैं और ना ही अमेरिका के समक्ष शीतयुद्धकालीन चुनौतियां हैं जिसके कारण उसे हमारे विरोधियों को अपने साथ लेकर चलना जरूरी हो। बल्कि मौजूदा दुनिवायी मसलों को हल करने में दोनों एक दूसरे के पूरक बन कर सामने आए हैं। लेकिन इन दोनों देशों के बीच जिन मसलों को लेकर सबसे अधिक मतभेद हैं वह सीधे तौर पर राष्ट्रवाद से जुड़ता है। चुंकी दोनों जगह प्रखर राष्ट्रवादी ताकतें सत्तासीन हैं लिहाजा वैचारिक व सैद्धांतिक तौर पर संतुलन की राह बनाने में दिक्कतें आ रही हैं। इसका सीधा समाधान तो यही हो सकता है कि दोनों अपने आपसी रिश्तों को मजबूत करने के क्रम में एक दूसरे की समस्याओं को भी समझें और उसे दूर करने में सहायक हों, लेकिन इसके लिये संबंध का आधार तो बराबरी का ही हो सकता है। अगर दोनों एक दूसरे को अपने मनमुताबिक दिशा में हांकने का प्रयास करते रहेंगे तो रिश्ते की मजबूती प्रभावित होगी ही। ऐसा ही इन दिनों देखा भी जा रहा है जिसमें अमेरिका दिनोंदिन भारत को अपने अनुकूल व काफी हद तक पिछलग्गू बनाने के लिये लगातार दबाव बना रहा है। उसने कहा हम ईरान से तेल ना लें, हमने मान लिया। अब वह चाहता है कि हम रूस से संबंध ना रखें और उससे हथियार ना खरीदें। ऊपर से वह सीमा शुल्क की दरों को कम करने का दबाव बना रहा है। साथ ही उसकी मंशा डाटा लोकलाइजेशन, ई-कामर्स व चीनी कंपनी हुवेई को लेकर भारत पर दबाव बनाने की है। भारत ने यहां वित्तीय लेन देन वाली हर कंपनी के लिए स्थानीय स्तर पर डाटा रखना अनिवार्य कर दिया है। साथ ही ई-कामर्स के नियमों में बदलाव किया है जिससे विदेशी कंपनियों को हितों के खिलाफ माना जा रहा है। इन दोनो कदमों से गूगल, व्हाट्सअप, अमेजन जैसी अमेरिकी कंपनियों को परेशानी हो रही है। अमेरिका यह भी चाहता है कि उसके आटोमोबाइल, अल्कोहल, मेडिकल व डेयरी उत्पादों के आयात पर मौजूदा शुल्क दर घटाई जाए। इसके अलावा अमेरिका एच 1बी वीजा के मुद्दे पर भी भारत पर लगातार दबाव बना रहा है। यानि उसे एकतरफा तौर पर हमसे लाभ चाहिये पर बदले में हमें वह सिर्फ आश्वासन देकर काम चलाना चाहता है। अगर वाकई वह ईमानदार होता तो उसने ईरान से तेल खरीद रोकने के एवज में हमारी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने की राह निकाली होती। लेकिन उसने तो हमें जीएसपी यानी कारोबार में वरीयता देने वाली सूची से ही बाहर कर दिया जिसके तहत विकासशील देश होने के नाते हमें उससे आपसी व्यापार में कुछ आर्थिक सहूलियत मिल जाती थी। उसकी चाहत है कि हम अपनी रक्षा खरीद के लिये उस पर निर्भर रहें लेकिन वह हमें यह नहीं बता रहा कि बाकी मुल्कों के साथ सदियों पुराने संबंध खराब करने से हमें लाभ क्या मिलेगा। वैसे भी अब तक तो उसने हमेशा हमारे हितों के खिलाफ ही काम किया है। वह तो ताजा दोस्ती इसलिये है क्योंकि अब पाक से उसे कोई लाभ नहीं है जबकि हम उसे अपना बाजार भी दे सकते हैं और विश्वमंच पर हर तरह का सहयोग भी। लेकिन इसके लिये जरूरत है आपसी विश्वास की जिसके लिये दोनों तरफ से ईमानदारी की दरकार है। लेकिन इसके उलट अमेरिका तो सीधे तौर पर धमकाने पर उतर आया है। भारत व अमेरिका के बीच कारोबारी मुद्दों को लेकर बढ़ते तनाव के बीच ट्रंप ने ट्विट किया कि मैं प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से यह कहने जा रहा हूं कि भारत हमेशा से अमेरिका के खिलाफ काफी ज्यादा सीमा शुल्क लगाता है, हाल में इसने सीमा शुल्क की दर और बढ़ा दी है। यह अस्वीकार्य है और इसे वापस लेना होगा। यानी कोई आवेदन नहीं, कोई निवेदन नहीं। सीधा आदेश कि हमें यह करना होगा। अब कौन बताए उनको कि ऐसे लहजे में बात करके वे अपना ही नुकसान कर रहे हैं। जहां तक हमारा सवाल है तो जिस तरह उनके लिये अमेरिकी हित सर्वोपरि है, वैसे ही हमारे लिये अपने हितों से ऊपर कोई नहीं है, कुछ नहीं है। तभी तो अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ की नई दिल्ली यात्रा तथा प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ हुई उनकी बैठक में हमने साफ व दो टूक लहजे में बता दिया कि हम अपने हितों और अन्य देशों के साथ रिश्तों के मामले में किसी का दबाव नहीं मानेंगे। बहरहाल ओसाका में मोदी और ट्रंप की द्विपक्षीय बातचीत से जो नतीजा सामने आया है उसमें इतना तो पता चल रहा है कि ईरान के मसले पर भारत ने अमेरिका की बात मान ली है और बदले में अमेरिका ने रूस से एयर मिसाइल डिफेंस सिस्टम की खरीद के मसले पर अपनी आंखें मूंद ली हैं। लेकिन अब कसौटी पर अमेरिका की ईमानदारी है और देखना होगा कि हमें आर्थिक नुकसान पहुंचा कर अपना मुनाफा कूटने की नीयत से वह बाज आता है या नहीं। इसी आधार पर परख होगी दोनों देशों के रिश्तों की और उससे ही पता चलेगा कि आखिर अमेरिका हमें मित्र मानने के लिये तैयार है या नहीं। उसे अगर भारत का सहयोग चाहिये तो उसे हमारे हितों की चिंता करनी ही होगी, इसके बदले में उसे नुकसान नहीं होने की गारंटी हमारा रिश्तों को निभाने का ट्रैक रिकार्ड ही दे रहा है। हमारी तरफ से सीमा शुल्क की दर तब बढाई गई जब अमेरिका ने हमारे आर्थिक हितों पर चोट करने की पहल की वर्ना हमारी ना तो उसे नुकसान पहुंचाने की कोई नीति है और ना नीयत। बेहतर होगा दोनों ओर से एक समिति बना दी जाए जो कर की दरों के मामले में संतुलन पर नजर रखे और इस बात की निगरानी करे कि दोनों को एक दूसरे से फायदा हो, नुकसान ना हो। इसके लिये एक समझदारी से रोड मैप बनाना होगा वर्ना यह विवाद आगे भी नए रूप में सामने आ सकता है।